Thursday, December 31, 2020
Monday, October 26, 2020
जय हो
साल दो हजार बीस। क्या साल है (विस्मय)! क्या साल है (घृणा)? पूरी दुनिया को उलट-पलट कर रख दिया। कई चेहरों से मुखौटे उतर गए। कई रिश्ते बेनकाब हो गए। सभ्यता और शिक्षा (डिग्री) के आवरण में छुपे भेड़िये खुल कर सामने आ गए।
अब जब धीरे-धीरे ताले खुल रहे हैं, लोग मिल रहे हैं, मुझे भी किसी की याद आ रही है। कौन? अरे भई, अपने मटकू भईया! याद आया? बिल्कुल आ गया होगा! उन्हें भला कौन भूल सकता है? तो चलिए, आज उनसे मिल आया जाए। वैसे एक बात तो तय है - आज मुझे जबर्दस्त डांट मिलने वाली है, फिर भी...
लो भई, आ गए हमलोग। तो क्या कहते हैं आपलोग? घंटी बजा दी जाए?
टिंग-टांग
दरवाजा खुलते ही भईया के दर्शन होते हैं।
"भईया प्रणाम।"
भईया अवाक खड़े हैं। शायद उन्हें सहसा यह विश्वास करना कठिन हो रहा है कि सामने मैं ही खड़ा हूँ।
"भईया प्रणाम।" मैंने फिर से हाथ जोड़े।
"अरे तुम! एतना दिन बाद! दिन क्या? साल बोलो, साल! हम त सोचे कि कहीं तुम भी राजनीति में त नहीं चला गया। लेकिन चुनावी मौसम में भी तुमरा दर्शन नहीं हुआ त लगा कि घर-परिवार में व्यस्त होगा। अंदर आओ।"
मैं वाकई कई सालों बाद आया था। थोड़ा डर रहा था। लेकिन भईया अब भी वैसे के वैसे ही थे - मस्तमौला, बेपरवाह, अक्खड़!
"बैठो, अब अपने घर में भी बैठने के लिए तुम्हें कहना होगा?" भईया पुराने रूप में थे।
"और भईया, बिहार चुनाव है। कोई वैक्सीन दे रहा है, कोई बेरोजगारी भत्ता और कोई प्रवासी मजदूरों का मुद्दा उछाल रहा है। कोई "उनके" पंद्रह साल बनाम "हमारे" पंद्रह साल का हिसाब दे रहा है। आप क्या दे रहे हैं?" मैंने बैठते हुए कहा।
"अरे हम क्या देंगे? इ बिहार की गौरवशाली भूमि है। रामायण काल से ही इसकी गौरवगाथा शुरू हुई। मगध के महा-शक्तिशाली साम्राज्य हों, बुद्ध - महावीर हों, बिहार ने एक से बढ़कर एक सपूत पैदा किए।"
"भईया बात तो आपकी सही है। लेकिन आज बिहार की ऐसी हालत क्यों है?"
"बात तो तुम सौ टका सही कह रहे हो। ईसा पूर्व जिस राज्य का परचम तक्षशिला से बंगाल तक फहराता था, उसका ई हाल कईसे हुआ?"
"कैसे हुआ भईया?" मैंने भी कुरेदा।
"जानते हो, इस बार नवरात में सोचे कि सुबह सुबह डाभ पिया जाए। पेट ठंडा रहता है। त बग्गले का एगो फल वाला को बोले कि पहुँचा दो। उ मान गया। दू दिन त ठीक डाभ दिया। तेसर दिन एक ठो छोटका वाला घुसा दिया। हम कुछ न बोले त पंचवा दिन और खराब दिया। छठा दिन से हम लेना बंद कर दिए। " भईया अब आवेशित हो रहे थे। मुझे हँसी आ गई।
"भईया, वो तो निपट अवसरवादी निकला। उसने तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही काट दिया।"
"सही समझे हो। कभी शांति से बैठना तो इसके विराट स्वरूप पर भी विचार करना।"
मैं अब भी सोच में हूँ....
Thursday, October 8, 2020
डूबता सूरज
डूबता सूरज
नीले आसमान को
नारंगी करता हुआ
लाल-बैंगनी-काला
अंधेरा भरता हुआ
डूबेगा सूरज तो
निकलेंगे सूरज कई
जुगनुओं में, दीपों में
तारों में, ले रौशनी नई
Monday, October 5, 2020
गिद्ध
गिद्ध
तुम नोचते
मरणोपरांत
नोच कर मारना
मार कर नोचना
बस इंसानो की
खासियत है
#truth
Sunday, September 20, 2020
दोबारा मत पूछना
टी वी ने कहा
पूछ डाला तो
लाइफ झिंगालाला
तो हमने पूछा
महँगाई घटेगी?
वे बोले - तुम हो
जिम्मेदार इसके
आबादी बढ़ाते,
बढ़ाते ही जाते
हर एक जगह
लाइन हो लगाते
हमने फिर पूछा
शिक्षा हमारी
क्यों है लचर?
क्या है बीमारी?
वे बोले - अभी
बताया तो था
कि तुम ही हो
जिम्मेदार इसके
हमने फिर से
नया सवाल दागा
स्वास्थ्य व्यवस्था
किधर है भागा?
वे गुस्सा हो गए
कितनी बार बताऊँ
कि तुम ही हो
जिम्मेदार इसके
गंदगी फैलाते तुम
तंबाकू चबाते तुम
खुद दवाईयाँ खरीद
डाक्टर बनते तुम
हमने किया अपने
ब्रह्मास्त्र का वार
क्यों नहीं है काबू
देश में भ्रष्टाचार?
इस बार तो वे बस
मुस्कराए, फिर हँसे
अबकी बार तुम
बिलकुल सही फँसे!
हाथी के दाँत हैं
इस पर तुम सोचना
और हाँ। खबरदार!
दोबारा मत पूछना
Tuesday, September 8, 2020
अंतर्द्वंद
अनमयस्क सा आकाश
अनासिक्त सा अंतर्मन
ख्वाहिशों की डोर कभी
हाथ आती, छूट जाती
Saturday, August 15, 2020
आजादी
आजादी
सोचने की
समझने की
सुनने की
बोलने की
सम्मान
व्यक्ति का
राष्ट्र का
देने की आजादी
पाने का भी हक
समानता
विचार में
व्यवहार में
भागीदारी में
सम्मान में
उम्मीद - कि
नेक बनेंगे
एक बनेंगे
एक रहेंगे
संग चलेंगे
चौहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस की बधाई।
Wednesday, July 15, 2020
प्रवासी
सपने कुछ पास लिए
घर गाँव जवार छोड़
आधा इधर छूट गया
आधा उधर छूट गया
माटी से मुँह को मोड़
रात दिन मजूरी की
रोटी की चिरौरी की
अपना हाड़ हाड़ तोड़
सपने तो सपने हैं
सपने कहाँ अपने हैं
सच से है कहाँ जोड़?
Monday, April 13, 2020
अखबार कह रहा है
कोई भूख से मर गया
उसी पन्ने में लपेट
रोटी लाया है दुखिया
इश्तेहार है जिस पन्ने पर
सुपर-स्पेश्यलिटी का
सरकारी रूग्णालय में
उसी पन्ने पर सोए काका
जिस पन्ने पर छपा है
कन्या पूजन की बात
उसी पन्ने में लिपटी मिली
कूड़े के ढेर में नवजात
खबर छपी: नेताजी अब
नहीं सहेंगे भ्रष्टाचार
उनके काले धन की गड्डी
बंधी रखी थी उस अखबार
खबरों और पन्ने में
अजीब जंग जारी है
अखबार कह रहा है
वक्त सब पर भारी है
Tuesday, March 10, 2020
जाने कैसी होली आई
बंटे हुए कई रंग लाई
हरा है तेरा, मेरा भगवा
कहते हैं अब भाई-भाई
रंग बिरंगे चेहरे होते
रंग बदलता था न कोई
अब तो रंगा सियार हर तरफ
जाने कैसी होली आई
गली-गली में रंग थे बहते
मिलते गले, मुबारक कहते
अब मिलने से भी डर लगता
जाने कैसी होली आई
भेद भाव सब मिट जाते थे
राग द्वेष सब छंट जाते थे
मन में ईर्ष्या, रंग हाथों में
जाने कैसी होली आई
Friday, February 21, 2020
स्त्रियाँ
जिनके चेहरे नहीं होते
Sunday, January 26, 2020
ये कैसा समय?
आसमान ओढ़े
हैं तेज हवाएँ
मगर लहरें नहीं
लगता है आज
नदी उदास है
रुक सी गई है
झील की मानिंद
हरी जलकुम्भी ने
छिपाया जल-दर्पण
अपना अक्स जहाँ
देखते थे कभी बादल
बीच बीच में
नुकीले चट्टान
भेद हरी चादर
बाहर को निकले
चट्टानों पर कतारें
सफेद बगुलों की
जिनका मछलियों पर नही
कीड़ों पर ध्यान है
तट पर हाहाकार
मचा, वो देखो!
कहाँ? अरे उधर
बहता जाता क्या?
पल में ही भीड़
निठल्लों की
बूढ़ों, बच्चों की
औरतों की
जितने मुंह उतनी
बात बनी
ना जाने किसकी
जान गई
कोई बोला - लगता
है गरीब मजदूर
दाने दाने को तरस
बिचारा चला गया
कोई बोला - आशिक
है, चेहरा तो देखो
हार प्रेम की बाजी
ये जीवन से हारा
पढ़ा - लिखा लगता
है बेरोजगार ये
सपने टूटे तो शायद
ये टूट गया
कोई बोला - बस!
बातें कर लो बड़ी बड़ी
नदी पार करने में
लगता फिसल गया ये
चर्चा चली खूब
अनुमान लगाए सबने
बहता रहा अभागा
आगे, शनैः शनैः
पुलिस आई,
अफसर आए
जनता आई
नेता आए
फिर से हल्ला
फिर है तमाशा
फिर से बातें
तोला माशा
नदी अभी भी
चुप चुप सी है
एक उदासी
ओढ़े सी है
समय की तरह
चुपचाप बहती नदी
देख रही है कोलाहल
और अनिच्छा भी
Thursday, January 16, 2020
राधे बाबू
पर आज कुछ खास है। आज राधे बाबू का उनसठवाँ आधिकारिक जन्मदिन है। बस एक साल और। उसके बाद सेवानिवृत्ति! वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में पदार्पण!
Tuesday, January 14, 2020
बागबाँ
एक इंसान ही तो है
वो चाहता है कि हों
उत्तर दिशा में दो सहेलियाँ
लाल-नारंगी बोगिनबेलिया
हरे भरे अशोक के बीच
लाल-लाल गुलमोहर पलाश
पूरब है सूरज का कोना
सूरजमुखी वहाँ है होना
तालाब में पानी कम हो
दलदल में खिले कमल हो
पश्चिम में हो मुख्य द्वार
ट्यूलिप के चार कतार
दक्षिण में चमेली के घेर
और लाल-पीले कनेर
कभी काटता है, कभी छाँटता
कभी पूरी क्यारी उखाड़ता
उसे नीले फूल बिलकुल भी
पसंद नहीं, तो लगाया नहीं
उसे फलदार वृक्ष भी
नापसंद, समय लगता है,
सेवा चाहिए, फल के लिए
फूल तो हर दिन आते हैं
उसे नील-माधव और
नीलकंठ भी नही जँचते
शेष-शैय्या शायी, श्रीपति
ही एक उसके आराथ्य हैं
उसे बच्चों से प्यार है
करता उनसे बातें खूब
बाग के बीचों बीच बने
फव्वारे की सीढियों पर
नित नए ढब, नए करतब
नए फसाने, नई कहानियाँ
बच्चे खुश, वो भी खुश
यही तो वो चाहता है
क्या करे बेचारा आखिर
बागबाँ भगवान नही
एक इंसान ही तो है