Sunday, October 17, 2010

नमो-नमः

आज थोड़ी फुर्सत मिली तो मटकू भईया की याद आयी। उनसे मिले तो ज़माना हो गया! मैं भी थोडा मसरूफ था, और भईया का तो खैर, कहना ही क्या? फिर तो मैंने सारा आलस छोड़ा और चल दिया भईया के घर की ओर...
मैं तेज़ क़दमों से बढ़ा चला जा रहा था कि सामने से भईया आते दीख गए!
"भईया प्रणाम"
"आनंद से रहो .....
माता रानी की कृपा तुम सबों पर बनी रहे...
इतनी तेजी से कहाँ चले?"
"आप ही से मिलने जा रहा था। बहुत दिन हो गए थे ना... आपका आशीर्वाद लिया नही था।"
भईया सिर्फ मुस्कुराये।
"कहाँ थे इतने दिनों? आप भी कभी इधर आये नही?" मैंने उलाहना दिया।
"अरे भाई, मैं भी दुर्गा-पूजा का आनंद ले रहा था! नए कपडे खरीदे, जूता खरीदा, नयी घडी ली.... और हाँ, नया मोबाइल भी लिया!" भईया बिलकुल बच्चों की तरह चहक रहे थे! उनका ये रूप मेरे लिए भी नया था!
"पत्नी-बच्चों के संग इस बार घूमा भी खूब!"
"क्या-क्या देखे?"
"अरे भाई, पूजा की रौनक देखी, श्रधालुओं का रेला देखा, चारों ओर भीड़ देखी, और साथ मेला देखा।"
"आप तो कविता करने लगे।" मैं मुस्कुराया।
"नही मेरे भाई, मैंने और भी बहुत कुछ देखा।
ज़बरदस्ती लिया जाने वाला चंदा देखा,
पंडाल के नाम पर गोरखधंधा देखा,
लोगों की कतार की परवाह किये बिना
पिछले दरवाज़े से, माँ का भोग बिकते देखा
पुलिस रही मौन, पूजा-समिती वालों को
ज़बरदस्ती गाडी रोक कर, 'पार्किंग' वसूलते देखा
गाड़ी पर सवार हो, भोंपू बजाते बाईकर्स को
माँ की भक्ति का माखौल उड़ाते देखा।"
भईया अचानक से गंभीर हो गए थे।
"मैंने एक और भी चीज़ देखी।"
"क्या?"
"एक बच्ची... चार-पांच साल की। रस्सी पर करतब दिखा रही थी। उसके माता-पिता ढोलक बजा रहे थे। दिल में आया कि उन्हें डांटू... खेलने की उम्र में काम करवा रहे हो?"
"फिर आपने क्या किया?"
"ई बताओ की हम तुमको समझदार लगते हैं कि बुरबक?" भईया ने पलटवार किया था। मैं भौंचक रह गया।
"क्या भईया आप भी? अरे आप से ज्यादा समझदार कोई है?"
"इसी लिए हम उसकी कटोरी में दस रुपये डाल आये......."
भईया की नज़रें झुक गयी थी। कुछ छ्णों तक यूँ ही रहने के बाद वो तेज़ी से वहां से चले गए और अपने दिल का तूफ़ान मेरे दिल में उतार गए।

Monday, August 2, 2010

CREDIBILITY

Abhishek Sharma was puzzled. It was on 1st of June, when he got his first posting as the Superintendent of Police, Balbhadrapur. He could still remember the glaze in the eyes of his father. And now, his father lay in bed. To save him meant a costly treatment in US. But how…? Who will help….?...? Numerous questions appeared from nowhere and were floating around his mind. It seemed like he was surrounded in a cloud of mist and smoke; questions appeared like ghosts, made fun of him and disappeared in the mystique.
“Sir”
The call pulled him out of his thoughts.
“People of Shanti-Samiti want to meet you.”
“Send them in.”

The group flocked in and the leader presented the bouquet. “Sir, we are lucky to have you as our police captain. Before you, the law and order of this area was controlled by Sapan’s gang and Sheru’s gang. Both of them have strong political support but you had the courage to put Sapan and his gang behind bars….
Abhishek was not listening now. His mind was busy, playing jigsaw puzzle. It just wanted to put the pieces in their right place. Suddenly, he smiled.
…… sir, we feel safe with you. You are the one we can rely on.” He smiled again.

“So Ojha-jee, you want me to release Sapan. He is not in any Police Station but in jail. It is not possible…AT ANY COST.” Abhishek stressed on the last few words. “Look captain, everything has its cost…” Abhishek smiled again, perhaps a bit sarcastically!
“One million; by evening.”
“Done.”
As soon as Ojha-jee left, Abhishek was busy calling a few numbers.

It was Saturday. The police van was shifting Sapan and his gang to the new jail. This activity was done under direct supervision of the S.P. Ratan Sharma, the local editor of Dainik-Ujala was on the Gypsy with Abhishek. He wanted a few minutes from the police-chief and Abhishek was only able to give him this transit time. As the vehicles moved, so moved on the interview. Speeding through the city crawls, they were now gliding on the highway. The city hustles were being left behind and the three vehicles were passing through a small jungle when, all of a sudden, the Gypsy came to a halt!
“What happened Ramdin?”
“Nothing Sir. A cattle herd is passing by.”
A few moments went in silence. Only the roar of the engine was to be heard!
Trut…Trut
The sudden sound of bullets were shocking.
“Heads Down” shouted Abhishek. “Jawans, it is an attack. FIRE”

Although resisted by the police, the attackers were able to rescue Sapan and his team. The jawans led by S.P. followed them into the jungle only to find them shot-dead. The entire team started combing-operation and soon came across the Sheru’s gang. The encounter lasted for an hour and was left with all the Sheru’s gang dead and one constable seriously injured. The local press had exclusive “shoot” of this shoot-out and newspapers lay in praise of Abhishek!

Returning from US, Abhishek was happy that he had fulfilled the expectations of his father. He remembered the moment when his father took his hand and pressed it gently when he revived. He could still feel the humidity of the little drop of water shining in his father's eye. Abhishek was happy that he was able to carry out the duties of a son. The killing of two most notorious gangsters along with their gang had saved the credibility of his department. The news that he would be receiving “President’s Gallantry Award” was overwhelming. When he looked out of his car, a board passed by which said: “Credibility is a mix of knowledge and values”. He smiled; a deep sense of satisfaction, sarcasm and optimism went past that smile!

Saturday, May 29, 2010

अथ श्रीखैनी कथा

सुबह सवेरे पान की दूकान पर मटकू भईया दिख गए। उनसे मिले लम्बा समय हो गया था। अतः सोचा कि 'मौका भी है, दस्तूर भी' ऐसे मौके को हाथ से क्यों जाने दूं?
"भईया प्रणाम"
"आनंदित रहो"
"ये क्या भईया? सारी दुनिया तम्बाकू के दुष्प्रभावों की बात कर रही है, तम्बाकू को 'बाई-बाई' करने को कह रही है और एक आप हैं कि..... सुबह सवेरे पान की गुमटी पर नज़र आ रहे हैं?"
एक क्षण को लगा कि भईया की भृकुटी तनी, पर दूसरे ही पल वो मुस्कुराते नज़र आये।
"...तो आज भाषण पिलाने के मूड में हो?"
मैं हँसने लगा। भईया भी हँसने लगे।
"एक बात जानते हो? भारत के कितने किसानों के परिवार इस नगदी फसल के भरोसे चलते हैं? कितने पेट में ये अनाज बन कर जाता है? कितने बच्चों के हाथों में पकड़ी किताब के रूप में ढल जाता है? कितनी मरीजों के दवा का बिल चुकाता है?"
"नही"
"तम्बाकू बुरी चीज़ है, मैं भी मानता हूँ, पर पहले इस रोज़गार पर आश्रित लोगों को वैकल्पिक रोज़गार दो, वो खुद ही ये काम बंद कर देंगे। वैसे एक मजेदार बात बताऊँ?"
"हाँ भईया, ये भी कोई पूछने वाली बात है?"
"खैनी (तम्बाकू) भिखारी को भी ऊपर होने का एहसास कराती है और हाँ, देश की एकता और अखंडता कायम रखने में इसका बड़ा योगदान है।"
इस अजीबो-गरीब बात से चौंकना लाजिमी था, सो मैंने भी रस्म निभा दी।
"वो कैसे?"
"देखो, जब तुम किसी को कुछ देते हो तो दाता का हाथ ऊपर होता है और लेने वाले का हाथ नीचे होता है, है कि नही?"
"बिलकुल ठीक"
"लेकिन क्या तुमने कभी देखा है कि जब कोई किसी को खैनी देता है तो लेनेवाला देनेवाले की खुली हथेली पर रखी खैनी को अपनी चुटकी में उठता है? तो लेनेवाले का हाथ ऊपर हुआ कि नही?"
"और भईया, देश की एकता ...."
"हाँ सुनो।" मेरी बात बीच में ही काट कर भईया बोले।
"जब एक खैनी बनानेवाला अपनी हथेली पर तम्बाकू रगड़ता है, बाकी के खानेवाले बिना जाति-धर्म-राज्य-बोली या गोरा - काला देखे उसमे अपनी हिस्सेदारी पक्की करते हैं। बोलो सही या गलत?"
इस अद्भुत ज्ञान ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। इस "खैनी-पुराण" के बाद मैंने दोनों हाथ जोड़े और दूकान में लटके रेडी-मेड "राजा छाप खैनी" को पूरे भक्ति-भाव से प्रणाम किया।

Thursday, April 8, 2010

मूंछ (लघुकथा)

रविवार की सुबह-सुबह मैं चाय लेकर बैठा ही था कि पत्नी बोली, "दो-चार कहानी-कविता क्या लिख ली, अपने आप को कवि समझने लगे हो?" मैं छुट्टी का मूड बिगाड़ना नही चाहता था. डर था कि कहीं कुछ गलत बोल गया तो.... और अगर नही बोला तब तो खैर ... मैं सोच ही रहा था कि वो बोली, "ये खिचड़ी दाढ़ी बनाने का इरादा है या नही?" मेरे मन का बोझ कुछ हल्का हुआ. "अरे ज़रा चाय तो ख़त्म कर लूं!"

चूंकि रविवार था, इस बात की प्रबल संभावना थी कि सैलून में लम्बी कतार होगी, और मैं ठहरा लाईनों से घबरानेवाला. चाय को तुरत-फुरत निपटाया और विजय के "शरणागत" हो गया. मुझे देखते ही विजय बोला, "अच्छे समय पर आये. अभी तुरंत मैं खाली हुआ हूँ. वैसे तो एक चाचा का नंबर है, पर वो जब तक आते हैं, आप की दाढ़ी बना देता हूँ."

अँधा क्या चाहे? दो आँखें!
मैं भी फटा-फट बैठ गया और विजय यंत्रवत अपनी प्रक्रियाएँ पूरी करने में लग गया. अभी मामला शेविंग क्रीम तक ही पहुंचा था कि आवाज़ आयी, "विजय. ऐ विजय. हमार नंबर नइखे आइल?" एक पल को सब कुछ थम गया और दो जोड़ी आँखें एक अधेर व्यक्ति पर ठहर गयी. "बस दू मिनट में हो जाई चाचा. राउआ लेट करे लगलीं ता...." विजय के पास सिवा सफाई के कुछ नही था. वो "राजधानी" की स्पीड से शुरू हो गया. और होता भी क्यूँ नही? चाचा कुर्सी की बगल में जो खड़े थे!

विजय एक बार की अपनी प्रक्रिया ख़त्म कर दूसरी बार मेरे चेहरे पर क्रीम लगा रहा था. तभी चाचा ने धीरे से अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा, "एगो बात कहींs बबुआ?" मैं इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नही था. मैंने अपनी नज़रों के ज़रिये उन्हें ये बताने की कोशिश की कि मेरी उनकी बातों में कोई रूचि नही है; पर मेरी नज़रों की उपेक्षा और हल्के-से-क्रोध की झलक को नज़रंदाज़ कर वे
जारी रहे. "तहार बाबूजी बाsरन?" इस प्रश्न के साथ ही उनकी मंशा ज़ाहिर हो गयी. मैं मन-ही-मन उनकी धृष्टता और मूर्खता पर हंस पड़ा. मन की हंसी के होठों तक आने का एहसास तब हुआ जब विजय के हाथ अटपटा कर रुक गए. "क्या हुआ विजय भाई?" "पहले आप हंस लीजिये. जानते हैं, अभी कटते-कटते बचा." विजय के स्वर में गुस्सा कम और मेरी फ़िक्र ज्यादा थी. अब चूंकि विजय के हाथ रुक गए थे, मैंने चाचा की तरफ सपाट नज़रों से देखते हुए कहा, "नही."

इधर विजय शुरू हुआ, उधर चाचा शुरू हो गए, "बुरा मत मनियs ऐ बबुआ. हमनी सन बाबु-साहेब बानी जा. हमनी लोग में जबले बाबूजी जिन्दा रहेलन, मोंछ नइखे कटाल जाsला. मोंछ मरद के शान होखेला. .... .... " चाचा अपनी धुन में बोले जा रहे थे पर उन्हें ना मैं सुन रहा था, ना ही विजय.

अपनी दाढ़ी-मूंछ को ठिकाने लगा मैं अब हल्का महसूस कर रहा था. आखिर पत्नी के उलाहनों से पीछा जो छूट गया था! इधर "चाचा की चौपाल" जारी थी. "ऐ बबुआ, बुरा मत मनियs." मैं उनकी ओर देख सिर्फ मुस्करा दिया और विजय को १०० का एक नोट पकड़ा दिया. "क्या भईया? बोहनी के टाइम ई १०० का पत्ता थमा दिए?" "अच्छा चलो, दास बाबु की दूकान से छुट्टे करवा देता हूँ." दास बाबु की दूकान पर विजय अपनी मेहनत के दस रुपये उँगलियों में फिराता हुआ बोला, "जानते हैं भईया, ई जो चाचा हैं ना, अपना पोता के स्कूल में अपने बेटा का झूठा "मृत्यु प्रमाण-पत्र" जमा करवाएं हैं. जानते हैं क्यों? जिसके माँ-बाप नही होते और दादा या नाना पर बच्चे की जिम्मेदारी होती है, उनको स्कूल में साल भर का फीस सिर्फ ३०० रु लगता है!"

विजय तेजी से अपने सैलून की तरफ बढ़ गया. सैलून के अन्दर चाचा कुर्सी पर बैठे अपनी मूंछों पर ताव दे रहे थे.

Sunday, February 7, 2010

भक्त और भगवान

मैं कुछ दिनों से सोच में डूबा था काफी दिन हो गए, मटकू भईया से मुलाकात नही हुई थी. आज सोचा कि चल कर मिल ही आऊँ. घर से निकला ही था कि सामने से भईया आते दिखे. मैं प्रसन्न हो गया. यूँ लगा जैसे कुआँ खुद प्यासे के पास चला आ रहा हो.

"भईया प्रणाम" मैंने कहा.
"आनंद से रहो" भईया के श्री-मुख से आशीर्वाद पा कर अच्छा लगा.
"क्या बात हो गयी भईया?" मैंने उलाहना दिया. "दिसंबर गया, जनवरी गयी और आप मुझे अब मिल रहे हो?"
"अरे कोई ख़ास बात नही है. मैं एक महीने की ट्रेनिंग लेने मुंबई गया था."
"पर वहां के हालात तो बिगड़े हुए हैं. ठाकरे-द्वय ने तो जंग छेड़ रखी है. कभी बॉलीवुड को निशाना बनाते हैं तो कभी हिन्ढी-भाषियों को. अभी IPL मसले पर भिड़े हुए हैं. आपको क्या लगता है? क्या होगा मुंबई का?"
"अरे कुछ नही होगा" भईया पूरी तरह से बेपरवाह थे.
"अच्छा भैया, ये बताइए कि राहुल गाँधी के स्वागत की तो बड़ी-बड़ी बातें हुई थी. फिर क्या हुआ? गरजनेवाले बरसे नही!"
मैंने सोचा था कि कोई तगड़ा जवाब मिलेगा पर भईया तो सिर्फ मुस्कुरा कर रह गए.
"क्या भईया? कुछ तो बोलिए. यहाँ बोलनेवाले क्या-क्या नही बोल जाते हैं. अपनी लोकप्रियता का नाजायज़ फायदा उठाते हैं." मैंने भईया को उकसाया.
भईया ने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले, "भक्त है तो भगवान है."
वो तो धीरे से आगे बढ़ गए पर मैं सोचता रहा.

Monday, January 18, 2010

सूर्य-ग्रहण

15 जनवरी का दिन ज्योतिषियों और पोंगा-पंडितों के नाम रहा. एक अद्भुत खगोलीय घटना पर TV ने भी खासा हंगामा किया. जमशेदपुर में कुछ इस तरह दिखा ये नज़ारा...



Solar Eclipse in Jamshedpur

Tuesday, January 5, 2010

राष्ट्रीय खादी एवं हस्तशिल्प महोत्सव

गोपाल मैदान में आयोजित "राष्ट्रीय खादी एवं हस्तशिल्प महोत्सव" एक सुखद अनुभव दे गया| एक से बढकर एक कारीगरी, अनोखे शिल्प, राजस्थान का स्वाद और गांधीजी पर एक चित्र-श्रृंखला|
एक नज़र ...

Friday, January 1, 2010

नव-वर्ष सुखमय हो

सपनो की उड़ान
तीखी धूप के साथ
गर्म हवा के थपेड़े
पथरीली ज़मीन
उठती - गिरती सांसें
साँसों के साथ गिरते-उठते
सपनो के महल
मुट्ठी में बंद रेत-सी
निकल जाने को आतुर
जीवन, और सपने भी
फिर भी हार न मानना
फितरत है इंसान की
हैरान हुए थे धर्मराज भी जिस पर
जीते हैं यूँ कि
कभी मौत आएगी ही नही!
"मैं हूँ श्रेष्ट"
पहचान की जिद्द
हासिल किये अनगिनत मुकाम
आगे भी रहे ये जिद्द
घूमता रहे समय का पहिया