Tuesday, July 7, 2015

कैसी हो हमारी लाइफ?

जीवन क्या है?
 
चंद टुकड़े समय के?
जिन पर हो सवार
देह-आत्मा की जुगलबंदी
चलती है लगातार
 
या कि मन है?
करता सदा स्वयं से घर्षण
निरंतर, एक से बढ़ कर एक
कामनाओं का दर्पण
 
प्रश्न अति-सरल है किंतु उत्तर अति-कठिन. बिलकुल उसी तरह जिस तरह नचिकेता ने प्रश्न किया था – मैं कौन हूँ? मैं यानि? क्या मेरा नाम? मेरा खानदान? मेरे शहर का नाम? मेरा पेशा? इसके अनेक जवाब संभव हैं. सभी सही हैं और नहीं भी. सभी जीव-जंतुओं में मानव जीवन को श्रेष्ठ माना गया है. क्यों? आखिर हमारे भी सर-धर, हाथ-पाँव और ज्ञानेन्द्रियाँ जानवरों की तरह ही तो हैं. जो बात हमें जानवरों से अलग करती है, वह है विवेक. विवेक यानि सही और गलत में फर्क कर पाने की क्षमता. ये ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार मानसरोवर का हँस पानी में मिले दूध से दूध पी जाता है और पानी को यथावत छोड़ देता है. इंसानों और जानवरों में एक और फर्क होता है – इंसानियत का.
जब भी मैं अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचता हूँ, इंसान की मूल भावना मुझ पर भी हावी हो जाती है. मैं भी चाहता हूँ कि मैं एक सुखमय जीवन जियूं. हमारी सुखमय जीवन की परिकल्पना ढेर सारे पैसे, बड़ा बंगला, बड़ी गाड़ी, सुंदर पत्नी, सफल बच्चे, सेवा में तत्पर नौकरों की फ़ौज और सालाना विदेश की सैर जैसी अवधारणाओं से शुरू और इन्ही पे ख़त्म होती है. भौतिकतावादी दुनिया में ऐसा सोचना या इच्छा रखना न तो असामान्य है, न ही अनैतिक. बल्कि मैं तो कहूँगा कि बाजारवाद हमें एक उपभोक्ता की तरह देखता है और हमें इसी ओर प्रेरित भी करता है. लेकिन एक सच्चाई और भी है कि -
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां मगर फिर भी वो कम निकले
भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत इतनी हो जाती है कि लोग सही-गलत का फर्क भूलने लगते हैं. एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ. मुंबई में एक सेठ रहते थे. उनका ड्राईवर पैंतीस सालों से उनके साथ था. वह जब बूढ़ा होने लगा तो उसने अनुरोध करके अपने जवान पुत्र को सेठ जी के ड्राईवर की नौकरी दिलवा दी. पिता की ही तरह पुत्र भी मनोयोग से सेठजी की सेवा में रत रहने लगा. फिर एक दिन नौजवान की शादी हुई. शादी के बाद जब वह पहली बार सेठजी के घर पहुँचा तो उन्होंने अपनी गाड़ी की चाबी देते हुए कहा कि बेटा, मैं तुम्हे आज की छुट्टी देता हूँ. मेरी गाड़ी ले जाओ. ये हज़ार रूपए भी रखो. पेट्रोल भरवा लेना. दिन भर पत्नी को मुंबई घुमा दो. मेरी तरफ से शादी का तोहफा समझना. अँधा क्या चाहे – दो आँखे! दिन भर घुमाने के बाद उसने गाड़ी जुहू चौपाटी पर लगा दी और खुद भेल लेने चला गया. इस बीच गाड़ी के बगल से औरतों का एक झुण्ड गुजरा. सजी-संवरी नई-नवेली दुल्हन को चमचमाती गाड़ी में देख एक ने कहा – वाह, क्या तकदीर है सेठानी की. खुद भी चमक रही है और गाड़ी भी. बात दुल्हन के दिल में लग गयी. पति जब लौटा तो जिद पकड़ ली कि उसे भी ऐसी ही गाड़ी चाहिए. परिजनों ने लाख समझाया कि विदेशी गाड़ी नौकरों के बस की बात नहीं थी पर बात दिल में अन्दर तक उतर चुकी थी. न उसे मानना था, न वो मानी. उसकी तो भूख मिट गयी थी, रातों की नींद उड़ गयी थी. पति जो भी कमाता, उसका दो-तिहाई हिस्सा जमा कर देती. मुख मलिन होने लगा, काया क्षीण होने लगी किंतु जिद थी कि समय के साथ बलवती होती जाती थी. इतने पर बात बनती न दिखी तो वह सेठजी के घर नौकरानी बन गयी. आखिर कुछ अतिरिक्त पैसे आयेंगे तभी तो सपना पूरा होगा.
इस बीच पाँच साल गुजर गए. एक दिन पता चला कि सेठ जी उस गाड़ी को बेचने वाले हैं. धूमिल होते सपने पुनः आँखों में चमकने लगे. बड़े मन-मनौव्वल के बाद सेठजी ने कम कीमत में ही गाड़ी उसे बेच दी. दुल्हन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. उसने पति से फरमाइश की कि आज फिर वहीं भेल खाने चलते हैं जहाँ शादी के बाद गए थे. दोनों गाड़ी में वहाँ पहुंचे. पति ने गाड़ी लगाई और भेल लेने चला गया. पुनः कुछ महिलाएँ उधर से गुजरीं तो दुल्हन सजग हो गयी. उनमे से एक ने कहा – इतनी चमचमाती गाड़ी में ये कैसी मनहूस और दरिद्र औरत बैठी है. लगता है कि सेठ की गाड़ी में उसकी नौकरानी घूमने चली आई है.
हमारी हालत भी कमोबेश उसी दुल्हन की तरह है. स्वर्ण-मृग की तृष्णा में हम ऐसे भटक जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ कब हमसे किनारा करके निकल गईं. जब लक्ष्य पाते हैं, तब जा कर एहसास होता है कि लक्ष्य का पीछा करते-करते ज़िन्दगी से ही दूर निकल आये हैं. सच ही तो कहा है कि –
उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में
जबकि सच्चाई यही है कि हमारा जीवन बहुत थोड़े में मजे से कट सकता था. हम जीवन को भरपूर जी सकते थे, समाज को कुछ दे सकते थे. हम ये क्यों भूल जाते हैं कि स्वर्ण-मृग की चाहत ने जब स्वयं ईश्वर के अवतार श्रीराम तक को वन-वन भटका दिया था तो हम तो तुच्छ मनुष्य हैं. कहा भी गया है -
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाए
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाए
आज एक और बात कहना चाहता हूँ. जीवन अत्यंत जटिल है. हम एक बार में तीन जिंदगियाँ जीते हैं. पहली है शारीरिक ज़िन्दगी जो कि आत्मा के शरीर छोड़ देने के साथ ख़त्म हो जाती है. हम जितने भी सुख-साधन जुटाते हैं, वो शरीर के काम आते हैं. दूसरी है मानसिक ज़िन्दगी. ये जीवन का भावनाओं वाला स्तर है. हम जो भी सोचते-समझते और महसूस करते हैं, वही हमारे विचार और व्यवहार में बदलता है. यही असल में हमारे सुख-दुःख का कारण बनता है. तीसरी ज़िन्दगी होती है – आत्मिक ज़िन्दगी. ये आत्मा के स्तर पर होती है. यही वो स्तर है जो विपरीत परिस्थितियों में हमें कमज़ोर नहीं पड़ने देता और अनुकूल परिस्थितियों में उन्मत्त नहीं होने देता. यह इंसान को विनयशील और दयालु बनाता है. इंसान इस बात को समझने लगता है कि “मुझमें जो कुछ अच्छा है, सब उसका है; मेरा जितना चर्चा है, सब उसका है”.
मैं तो फ़कत यही चाहता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी ऐसी जगह कटे जहाँ सब पर ईश्वर की कृपा हो. सभी स्वस्थ रहें, मिल कर रहें, मुस्कुराते रहें. जानता हूँ कि ज़िन्दगी कभी मुक्कमिल नहीं होगी, हमेशा किसी-न-किसी बात की कमी होगी. तुम चंद कदम साथ चलो तो, मेरी लिए जन्नत यहीं होगी.

Wednesday, July 1, 2015

मेरे मन की बात – पापी पेट का सवाल है

बारिश जैसे ही थमी, मैं तेज़ी से बाज़ार की ओर चल दिया. रास्ते में मैंने देखा कि भीड़ लगी है. मन में उत्सुकता हुई कि देखूँ तो, आखिर बात क्या है. पास पहुँचते ही डमरू की डुगडुग के साथ ही जोर की आवाज़ आई –

“जम्हूरे, साहब लोगों को खेल दिखायेगा?”

“हाँ उस्ताद दिखायेगा”

“क्या खेल दिखायेगा?”

“रस्सी पर करतब दिखायेगा उस्ताद”

“जम्हूरे, साहब लोग खुश हुए तो पैसे देंगे”

“हाँ उस्ताद, पैसे मिलेंगे तभी तो पेट चलेगा”

“तो साहब लोगों को खुश करेगा जम्हूरे?”

“हाँ उस्ताद”

“और ये तेरा बन्दर क्या बैठे-बैठे रोटियां तोड़ेगा?”

“ना उस्ताद, ये भी खेल दिखायेगा. आखिर पापी पेट का सवाल है. क्यों रे मोहन (बन्दर)?”

जवाब में बन्दर गुलाटियां मारता है, उस्ताद डमरू बजाता है और भीड़ तालियाँ बजाती है. मैं आगे बढ़ जाता हूँ. भूख के सामने जब शेर हंटर के आदेशों का पालन करने को मजबूर हो जाता है तो ये तो बन्दर ही है. और जम्हूरे की क्या बात करूँ? सरकारें लाख कहती रहें कि “सब पढ़ें, सब बढ़ें”, सारे जम्हूरे ये ही कहते हैं कि “माई-बाप, पापी पेट का सवाल है”. ऐसे में “बाल-श्रम” और “पशु-क्रूरता” निषेध जैसी बातें मजाक लगने लगती हैं.

खैर, मैं आगे बढ़ा तो एक पुराने परिचित मिल गए. कहने लगे कि आज-कल बड़े भागे-भागे फिरते हो. बात क्या है? मैंने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं, बस काम थोड़ा बढ़ गया है और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी, सो ज़रा मसरूफ़ हो गया हूँ. वे बोले कि आज कोई बहाना नहीं चलेगा. बड़े दिनों पर मिले हो. एक कप चाय तो साथ में पी ही सकते हो. मैंने कहा कि क्यों नहीं किंतु आज की चाय मेरी तरफ से. वे तुरंत राजी हो गए. मैंने चाय के साथ समोसे भी मँगवा लिए. मेरे मित्र ने पहला कौर उठाया, आँखें बंद कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और मेरी तरफ देख कर बोले – अन्नदाता सुखी भवः! मैं मुस्कुरा उठा. शायद मेरा मुस्कुराना उन्हें अच्छा नहीं लगा था. उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मेरी ओर मुखातिब थी. मैं बोला –

“पता नहीं इस देश का असली अन्नदाता कब सुखी होगा.”

“सही कहते हो. अभी कल ही की बात है, शाम को मैं सब्जी लेने निकला. पत्नी की सख्त हिदायत थी कि टमाटर ज़रूर ले आना. भाव पूछा तो टमाटर पचास रूपए किलो. मैं दाम सुन कर मायूस हो गया. घर लौटते वक़्त मुझे एक व्यक्ति मिला. उसने बताया कि उसके पास करीब बीस किलो टमाटर बचे हैं, यदि मैं पूरे लेना चाहूँ तो दो सौ रुपयों में वह उसे बेचने को तैयार है. मैंने पुछा कि भाई इतना सस्ता? उसने कहा कि मैं किसान हूँ. इस उम्मीद में करीब सौ किलो टमाटर ले आया था कि शहर में शायद ज्यादा कमाई हो जाए लेकिन मुझे मंडी में घुसने ही नहीं दिया. दलालों ने कहा कि सारा टमाटर पाँच रूपए के भाव हमें बेच जाओ. मैं क्या करता? गली-गली घूम कर दिन भर में अस्सी किलो तो बेच लिए पर अब अँधेरा हो रहा है. इतने टमाटर वापस ले जाऊं तो पचास रूपए इसी का भाड़ा लग जायेगा. कल इसे वापस लाने के और पचास रूपए लगेंगे, तो अब जो भी मिल जायेगा, वो दाम ले लूँगा.”

“फिर आपने क्या किया?”

“मैंने उससे कहा कि मेरे लिए दो किलो टमाटर तौल दे.”

“बाकी के टमाटरों का क्या हुआ?”

“मैंने उससे कहा कि बाकी के टमाटर मेरे घर पर रख दो. सुबह और सब्जियों के साथ आना और इन्हें ले जाना. तुम्हारा भाड़ा बच जायेगा.”

मैं सोचने लगा. भारत किसानों का देश है. हमारी बहुसंख्य आबादी खेतिहर है, ग्रामीण है. बचपन की एक बात बताता हूँ. गर्मी की छुट्टियों में एक रिश्तेदार के घर गया था. खेतों के बीच उनके बड़े से घर के सामने कृषि-उपकरण रखे थे. एक ओर गायें बंधी थी. दृश्य बिलकुल किसी भारतीय ग्रामीण घर की अवधारणा की प्रतिमूर्ति की तरह जान पड़ता था. घर के पिछवाड़े आमों का छोटा सा बाग़ था. आम के कोई सात-आठ पेड़ होंगे. लीची और कटहल के भी पेड़ थे. सुबह से शाम तक बस आम और आराम! उसी दरम्यान उनके पिताजी से मिलने कुछ लोग आये. बातें चल रही थी. उसी बीच उन्होंने कहा –

उत्तम खेती, मध्यम बाण

अधम चाकरी, भीख निदान.

तब इसका मतलब समझ नहीं आया था. बस शब्द अच्छे लगे और याद रह गए. बड़े दिनों बाद एक दिन मेरे दादाजी के मुहँ से जब ये ही शब्द सुने तो उनसे मतलब पूछ बैठा. उसका सारांश यही था कि मिटटी ने हमें पैदा किया, उसी ने हमें पाला और एक दिन उसी मिटटी में मिल जाना है. उसकी व्याख्या उस दौर के भारतीय जनमानस की मनःस्थिति और मिटटी से उनके जुड़ाव को भली-भांति रेखांकित करता है. अपनी मिटटी से जुड़ना क्या होता है, उसी दिन समझ आया.

आज का दौर “मास्टर-शेफ़” का दौर है. पनीर-65 के सामने घी में छौंकी अरहर की दाल फीकी हो गयी है. घर आये मेहमान को ग्रामीण गृहस्थ भोजन किये बिना जाने नहीं देता था; पर अब क्या गाँव, क्या शहर, बस एक कप चाय – रिश्ते निभाए! अरे भाई, ये लोगों का दोष नहीं है. महँगाई तो ज़ालिम होती ही है. बेचारे खिलाने वाले क्या करें? और खानेवाले? वे कहाँ कम हैं. चावल-दाल-चोखा-भुजिया-अचार आज कल कौन खाता है? भई स्टेटस भी तो कोई चीज़ है! वो दिन गए जब लोग-बाग एक मुट्ठी सतुआ और एक गाँठ प्याज भर से खुश हो लिया करते थे. नमक-मिर्च अलग से मिल जाये तो सोने पे सुहागा. तब अगर कोई ना-नुकर करे तो मुहँ पे ही कह देते थे – ये मुहँ और मसूर की दाल. अब तो दाल इतनी महँगी हो गयी है कि खरीदने में ही लोगों की दाल न गले!

इसी बात पर मुझे महाभारत का एक प्रसंग याद आता है. पांडव वनवास में थे. उनकी भार्या द्रौपदी को सूर्य-देव से एक अक्षय-पात्र मिला था. इसकी विशेषता थी कि पात्र से तब तक भोजन निकलता रहता था जब तक द्रौपदी इससे भोजन न कर ले. एक बार द्रौपदी ने खा लिया तो फिर अगले दिन ही खाना मिलता था. तो हुआ यूँ कि एक बार दुर्वासा ऋषि अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ पांडवों के आश्रम पहुंचे और भोजन की मांग कर दी. ऋषि दुर्वासा अपने क्रोधी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे. किंतु परेशानी यह थी कि द्रौपदी भोजन कर चुकी थी. पांडवो के लिए आगे कुआँ पीछे खाई. ऐसे में उन्हें श्रीकृष्ण की याद आई. वे आये. पात्र को देखा. पात्र में एक दाना चावल और साग का छोटा सा पत्ता चिपका था. फिर क्या था! सभी ने मजे से भोजन किया.

किंतु क्या बात इतनी सी थी? नहीं. ज़रा सोचें. हम रोजाना अपनी थाली में कितना अन्न छोड़ देते हैं. भले ही कोई कम छोड़े, कोई ज्यादा, बर्बादी तो बर्बादी ही है. वैसे एक बात कहूँगा – यथा राजा, तथा प्रजा. अभी कुछ दिनों पहले पढ़ा कि FCI के गोदाम में रखे हज़ारों मन अनाज देखरेख के अभाव में सड़ गए. जाँच में पता चला कि ये अनाज वहाँ सालों पहले रखा गया था. जो लोग कंप्यूटर प्रोग्रामिंग जानते हैं, वे दो शब्दों से भली-भांति परिचित होंगे – Queue और Stack. Queue वो जहाँ पहले आने वाला पहले बाहर निकल जाये (FIFO) और Stack वो जहाँ सबसे अंत में आने वाला पहले बाहर निकल जाये (LIFO). गोदामों में जिस तरीके से सामान रखा जाता है वह का नमूना Stack है. ऐसे में प्रबंधन की जिम्मेदारी बनती है कि नियत समय से पहले पुराना अनाज वितरण हेतु बाहर निकल जाये.

एक और छोटी सी खबर पढ़ी – झारखण्ड में भूख से सबर की मौत. बताता चलूँ कि सबर एक लुप्तप्रायः आदिम जनजाति है. अगले दिन खबर का असर देखने को मिला – प्रखंड पदाधिकारी ने सबर परिवार को 10 किलो चावल दिया, उपायुक्त ने कहा कि किसी को भी भूख से मरने नहीं दिया जायेगा, चिकित्सा पदाधिकारी का दावा कि मौत की वजह भूख नहीं, बीमारी थी. एक और खबर आई – झारखण्ड में 67% किशोरियाँ अनीमिया की शिकार. इनमे शहरों में रहने वाली और गरीबीरेखा से ऊपर की लडकियाँ भी शामिल हैं. एक और खबर – मध्याह्न भोजन की ख़राब गुणवत्ता के कारण बच्चों ने खाना खाने से इनकार किया. ऐसी अनेक ख़बरें हैं जो मैं पढ़ता रहता हूँ. आप हिंदुस्तान में जहाँ भी रहते हों, ऐसी ख़बरें कमोबेश आपके निगाहों से होकर भी गुजरती होंगी.

सरकार की अनेक योजनायें हैं कि गरीब को एक रूपए किलो अनाज और न जाने क्या-क्या. क्या सिर्फ योजनायें काफी हैं? उचित गुणवत्ता और मात्रा की बात कोई नहीं करता. यहाँ एक और सवाल प्रासंगिक है – सरकारी योजनायें मुफ्त क्यों? सिर्फ वोट के लिए? क्यों न लाभुकों से साफ-सफाई जैसे आसान और जनोपयोगी कार्य कराये जायें? उन्हें भी संतोष होगा कि वे मेहनत की कमाई खा रहे हैं, मुफ्तखोरी नहीं कर रहे और समाज (जिसका अभिन्न अंग वे स्वयं हैं और कार्य का सीधा फायदा उन्हें ही होगा) को भी फायदा हो! साथ ही हर योजना को घुन की तरह खोखला कर रहे दलालों पर भी लगाम लगेगा.

“मैं चलता हूँ. कभी घर पर आओ. इत्मिनान से बैठ कर बातें करेंगे.”

मैं जैसे नींद से जागा, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं. अब मैं भी चलता हूँ.” उनसे विदा लेकर मैं तेज़ क़दमों से सब्जीमंडी आ गया. काले-काले बादल उमड़-घुमड़ रहे थे. कब बरस जायें, कोई ठिकाना नहीं. सोचा कि जल्दी से दो-चार सब्जियाँ लेकर घर चलूँ, कि देखा कि सड़क पर हरा पानी बहा चला आ रहा है. सब्ज़ीवाले ने आवाज़ लगाई – ओ भैया, जरा हटिये. ये वो रंगवाला पानी था जिसे पटल (परवल) रंगने के लिए इस्तेमाल किया गया था. आगे देखा कि नेनुआ और भिंडी भी हरे पानी में डुबकियाँ लगा रही है. बिचारा टमाटर तो तेल-पानी में तैर रहा है. मंडी से निकला तो बदबूदार नाले के किनारे लगे ठेले पर क्या बच्चे, क्या जवान, सभी पूरी-सब्ज़ी-जलेबी खाने में मगन हैं. मैगी पर तो आपने प्रतिबन्ध लगा दिया साहब, इनका क्या करेंगे? क्या ऐसे लाखों खोमचेवाले हर दिन हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं करते? इनपर कार्रवाई की बात आये तो गरीब-विरोधी का ठप्पा लगने का डर हो जाता है.

पुरानी कहावत है – जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन. क्या हम सही भोजन कर रहे हैं? क्या भोजन की गुणवत्ता और मात्रा उचित है? क्या हमारा भोजन हमें उचित पोषण देने में सक्षम है? क्या भोज्य-पदार्थों की खरीद-बिक्री पूरी तरह से आर्थिक गतिविधि है या देश का भविष्य इस पर निर्भर है? अनेक प्रश्न हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. मैंने अपने मन की बात कही. अब फैसला आपके हाथ छोड़ता हूँ.