Wednesday, September 2, 2015

मेघ गीत


 

छाए हैं चहुँ ओर, घटा घनघोर

कड़ड़ कड़ बिजुरी चमके

आसमान के श्याम पटल पर

इठलाती सी दामिनी दमके

 

झूम रहे दिक्, जीव-जंतु सब

पवन झकोरे उन्हें झुलाते

उमड़ घुमड़ कर काले बादल

जीवन ही का अक्स बनाते

 

गिरती बूँदें, मदमाती सी

गिरे उधर, हों जिधर हवायें

दामन में उनको भर लेने

धरा खड़ी बाहें फैलाये

 

धरती से उड़-उड़ कर पानी

पहले हैं बादल बन जाते

उमड़-घुमड़ कर, गरज-बरस कर

धरती की हैं प्यास बुझाते

Saturday, August 29, 2015

शुक्रिया


 

1

सुबह के आठ बजे हैं। यूँ तो इस वक़्त जीवन के हाथों में चाय का प्याला होता है किन्तु आज ऐसा नहीं है। बॉस ने कल ही ताकीद की थी कि कल दस बजे तक चाईबासा पहुँच जाना। कंपनी के नए विपणन कार्यालय का उद्घाटन होना है। सारे इंतजामात की जिम्मेदारी जीवन के सर डाल बॉस तो निश्चिन्त थे किन्तु जीवन? बेचारा! मरता क्या न करता। सुबह से बॉस दसियों बार फ़ोन कर चुके थे। अपनी बाइक पर बैठ उसने पलट कर देखा। वर्षा दरवाज़े पर खड़ी थी।उसकी मुस्कराहट ने जीवन के अंदर मानो नवजीवन का संचार कर दिया। जाती हुई बाइक की आवाज़ जब तक आती रही, वर्षा दरवाज़े पर ही खड़ी रही।

जीवन को घर से निकले आधा घंटा बीत चुका है और वह कुल-जमा नौ किलोमीटर की दूरी तय कर पाया है। उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। अभी लगभग सैंतालीस किलोमीटर का फासला बचा था। अगर हालात ऐसे ही रहे तो उसे अभी दो से ढ़ाई घंटे और लगेंगे। अचानक उसे लगा जैसे उसके मोबाइल की घंटी बज रही हो। मन-ही-मन वह झल्ला उठा - "ज़रूर बॉस होगा। बेवक़ूफ़! उसे लगता है कि बार-बार फ़ोन करने से काम जल्दी हो जाता है।" उसने बायाँ ब्लिंकर जलाया और गाड़ी सड़क किनारे खड़ी कर दी। उसने फ़ोन जेब से निकाला। वह अभी तक बज रहा था। स्क्रीन पर निगाह डाली तो नाम लिखा था - अरशद।

“हेलो”

“जीवन, यार मैं बड़ी मुसीबत में आ गया हूँ। नादिरा की प्रेगनेंसी में कंप्लीकेसी आ गयी है। उसे जीवन-ज्योति नर्सिंग होम में भर्ती करवाया है। डॉक्टर ने फ़ौरन सिजेरियन को कहा है। ऑपरेशन के लिए खून चाहिए। तू अभी-के-अभी आ जा मेरे भाई।”

अरशद की कातर ध्वनि ने उसके दिमाग में खतरे की घंटी बजा दी। मुझे अभी लौट चलना है, यह फैसला लेने में उसे क्षण भर भी सोचना नहीं पड़ा। उसने अरशद को सांत्वना दी –

“तू फ़िक्र मत कर मेरे भाई। मैं अभी पहुँचता हूँ। तू बस धीरज रख... और हाँ.... अस्पताल का क्या नाम बताया?”

“जीवन-ज्योति नर्सिंग होम”

“हाँ... हाँ... मैं समझ गया। तू पेपर्स रेडी कर। मैं बस पहुँचता हूँ।”

 

 

2

जीवन और अरशद जब ब्लड बैंक पहुँचे तो वहाँ ज्यादा चहल-पहल नहीं थी। अरशद ने स्वागत-कक्ष में बैठी महिला की ओर अपने कदम बढ़ा दिए। उसे अस्पताल के कागज़ सौंप वह माहौल का जायज़ा लेने लगा। खानापूर्ति में लगभग पाँच मिनट लगे होंगे। अब वे दोनों रक्त-दान कक्ष में श्री राव के सामने थे। ब्लड-ग्रुप की जाँच के बाद उन्होंने आगे की कार्रवाई अपने सहकर्मी डॉ एंजेला मुर्मू को सौंप दी। डॉ एंजेला डॉक्टर नहीं, जादूगर थीं। उनकी बातों-बातों में रक्त-थैली कब भर गई, इसका पता न तो जीवन को चला, ना ही अरशद को।

जीवन जब रक्त-दान कक्ष से बाहर निकला तो देखा कि अरशद बड़ी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहा है। उसने अपने हाथ में पकड़ा कागज़ अरशद की ओर बढ़ा दिया –

ये पेपर्स जल्दी से जमा कर दे तुझे रिप्लेसमेंट में ब्लड मिल जायेगा।”

अरशद ने एक नज़र उस कागज़ को देखा। उसकी आँखों में मानो छलक उठने को बेताब समंदर उमड़ रहा था। कृतज्ञता ने मानो उसकी ज़ुबान लड़खड़ा दी। हाथों को जोड़ वह धीमे स्वर में सिर्फ इतना ही कह पाया –

“शुक्रिया”

शब्द निकले तो लहरों ने भी सीमाएँ लाँघ दी। आँखों से गंगा-जमुना बह निकली। भावनाओं का समंदर इस कदर उफना कि शरीर और आवाज़, दोनों कांपने लगे।

“शुक्रिया मेरे भाई”

दोस्त के आँसू देख जीवन भी अपने को रोक नहीं पाया। बस एक कदम की ही तो बात थी। दोनों को गले मिला देख ब्लड बैंक के कर्मचारी भी आश्चर्यचकित थे। “खून का रिश्ता” भला इससे अच्छा क्या होता होगा?

 

 

 

3

अस्पताल के प्रसूति-कक्ष के सामने माहौल बड़ा ही अजीब था। जिन्हें खुशखबरी मिल चुकी थी, वे अपने रिश्तेदारों तक उसे अग्रसारित करने में लगे थे। जिन्हें अभी खुशखबरी का इंतज़ार था, वे बरामदे में चहलकदमी कर रहे थे। प्रसूति-कक्ष का दरवाज़ा जरा भी आवाज़ करता तो सारे उस ओर लपकते। अरशद गुमसुम सा एक कोने में खड़ा था। जीवन बरामदे में लगे पोस्टर पढ़ने में व्यस्त था। समय काटने का इससे अच्छा तरीका भला और क्या हो सकता था। जीवन ने देखा कि तमाम सादे पोस्टरों के बीच एक चमकीले लाल रंग का पोस्टर है। उसने नजदीक जा कर देखा। वह रक्तदान से संबंधित एक पोस्टर था जिसमें लिखा था – एक रक्तदान तीन लोगों की ज़िंदगियाँ बचा सकता है।

अचानक प्रसूति-कक्ष का दरवाज़ा खुला और एक नर्स ने बाहर निकल कर आवाज़ दी –

“नादिरा के साथ कौन है?”

अरशद तुरंत हरकत में आया –

“जी... मैं हूँ।”

“मुबारक हो, नादिरा को लड़की हुई है। माँ और बच्चे को दो घंटे बाद पोस्ट-ऑपरेटिव वार्ड में शिफ्ट कर देंगे। फिर आप उनसे मिल सकते हैं। चलिए... यहाँ साइन कीजिए।”

साइन करके अरशद पलटा तो जीवन पीछे ही खड़ा था। उसने अरशद को मुबारकबाद दी। दोनों बाहर निकलते वक़्त उसी पोस्टर के सामने से गुज़रे। उसे देख जीवन थोड़ा ठिठका। अरशद ने पूछा –

“क्या हुआ?”

“कुछ नहीं” जीवन ने कहा।

“बस ये सोच रहा हूँ कि अगर एक रक्तदान तीन ज़िंदगियाँ बचा सकता है तो दो ज़िंदगियाँ तो आज मैंने बचा लीं। अब पता नहीं कि तीसरी ज़िन्दगी किसकी बचेगी।”

दोनों ने एक दुसरे को देखा और मुस्करा दिए। अरशद बोला –

“तू भी न यार...”

 

 

4

सुबह के दस बज चुके हैं और जीवन बड़ी तेज़ी से अपने नाश्ते को निपटाने में व्यस्त है। हो भी क्यों नहीं? उसे कल ही चाईबासा पहुँच कर सारा इंतज़ाम मुकम्मल करना था किंतु इंसानियत का तकाज़ा कुछ और ही था। जीवन इस बात से प्रसन्न था कि उसने इंसानियत को शर्मसार नहीं होने दिया। वह इस बात से भी खुश था कि बॉस ने भी उसकी बात समझी थी, लेकिन नादिरा और बच्ची से मिल कर लौटने में रात ज्यादा हो गयी। खैर, जैसे-तैसे नाश्ते को ख़त्म कर उसने पत्नी को आवाज़ दी –

“वर्षा... ओ वर्षा!”

किचन में व्यस्त वर्षा के कानों में जैसे ही उसकी आवाज़ पहुंची, उसने प्रत्युत्तर दिया –

“जी... आई”

जीवन ने जब तक अपने हाथ धोये, वर्षा तौलिया लिए पीछे खड़ी रही। हर रोज़ की तरह बैग उठाए वह अपनी मोटरसाइकिल की ओर बढ़ गया। वर्षा भी दरवाज़े पर खड़ी उसे जाते हुए देखते रही। मोटरसाइकिल पर बैठ जब वह पलटा तो पाया कि पत्नी मुस्कुरा रही है। उसे आत्मिक शान्ति की अनुभूति हुई। कोई तो है जो उसके घर से जाने के बाद उसके वापस लौटने की राह तकता है। एक स्वतःस्फूर्त मुस्कान उसके अधरों पर खेलने लगी।

पति को विदा कर वर्षा जब अन्दर आई तो देखा कि घड़ी में साढ़े-दस बज रहे हैं। उसे याद आया कि उसके पसंदीदा धारावाहिक का समय हो चला है। सोफे पर बैठ, धारावाहिक देखते-देखते कब वह लेट गई और लेटे-लेटे कब नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया, उसे पता भी न चला। अचानक फ़ोन की ध्वनि से उसकी नींद उचट गई। उसने घड़ी की ओर नज़र घुमाई। ये क्या? ये तो ढ़ाई बज गए! फ़ोन अभी भी बज रहा था। उसने फ़ोन उठा लिया –

“हेलो”

“क्या ये मिस्टर जीवन का नंबर है?”

“जी हाँ, मैं उनकी पत्नी। जी कहिए।”

“जी मैं सदर अस्पताल से इंस्पेक्टर संजय चौबे बोल रहा हूँ। उनका एक्सीडेंट हो गया है।”

“क्या?”

“जी हाँ, अच्छा होगा अगर आप तुरंत ही यहाँ चले आयें। उनका काफी खून बह गया है। वार्ड नंबर ३ के बेड नंबर ७ पर उन्हें खून चढ़ाया जा रहा है।”

वर्षा का दिमाग इस खबर से मानो सुन्न हो गया। वह धम्म से सोफे पर बैठ गयी। एक पल को उसे अपने आस-पास की दुनिया आभासी लगने लगी। अनिष्ट की आशंका ने सोचने-समझने की शक्ति को ही मानो क्षीण कर दिया था। आँखों के आगे धुंधली काली चादर यूँ लहरा रही थी मानो साक्षात् काल हो। हिम्मत बटोर कर उसने सामने पड़े ग्लास को उठाया। उसमें अब भी दो-तीन घूँट पानी था। सूखता गला जब तर हो गया तो जैसे दिमाग को भी नया जीवन मिला। उसने तुरंत फ़ोन कर अरशद को बुलाया।

दोनों जब अस्पताल पहुँचे तो देखा कि जीवन को खून चढ़ाया जा चुका है। वह पूरी तरह से होश में था। उसे सही-सलामत देख वर्षा के दिल का सारा डर आँसू बन बह निकला। पति के बगल बैठ उसने जीवन का हाथ अपने दोनों हाथों से कस कर थाम लिया। उसके प्रेम के आवेग को जीवन भी पूरी तरह से महसूस कर पा रहा था। जब उसका एक्सीडेंट हुआ था तो उसे ऐसा लगा था कि अब वह कभी भी अपनी पत्नी को नहीं देख पाएगा। अब जब वर्षा का हाथ उसके हाथ में था, उसे यकीन होने लगा था कि दोनों कभी जुदा नहीं होंगे।

अचानक जीवन की नज़र पीछे खड़े अरशद पर पड़ी। उसने अपना दूसरा हाथ आगे बढ़ाया तो अरशद ने भी आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लिया। दोनों मुस्कुरा उठे। जीवन ने कहा –

“यार अरशद! आज तीसरी ज़िन्दगी भी बच गयी यार।”

 

Tuesday, July 7, 2015

कैसी हो हमारी लाइफ?

जीवन क्या है?
 
चंद टुकड़े समय के?
जिन पर हो सवार
देह-आत्मा की जुगलबंदी
चलती है लगातार
 
या कि मन है?
करता सदा स्वयं से घर्षण
निरंतर, एक से बढ़ कर एक
कामनाओं का दर्पण
 
प्रश्न अति-सरल है किंतु उत्तर अति-कठिन. बिलकुल उसी तरह जिस तरह नचिकेता ने प्रश्न किया था – मैं कौन हूँ? मैं यानि? क्या मेरा नाम? मेरा खानदान? मेरे शहर का नाम? मेरा पेशा? इसके अनेक जवाब संभव हैं. सभी सही हैं और नहीं भी. सभी जीव-जंतुओं में मानव जीवन को श्रेष्ठ माना गया है. क्यों? आखिर हमारे भी सर-धर, हाथ-पाँव और ज्ञानेन्द्रियाँ जानवरों की तरह ही तो हैं. जो बात हमें जानवरों से अलग करती है, वह है विवेक. विवेक यानि सही और गलत में फर्क कर पाने की क्षमता. ये ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार मानसरोवर का हँस पानी में मिले दूध से दूध पी जाता है और पानी को यथावत छोड़ देता है. इंसानों और जानवरों में एक और फर्क होता है – इंसानियत का.
जब भी मैं अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचता हूँ, इंसान की मूल भावना मुझ पर भी हावी हो जाती है. मैं भी चाहता हूँ कि मैं एक सुखमय जीवन जियूं. हमारी सुखमय जीवन की परिकल्पना ढेर सारे पैसे, बड़ा बंगला, बड़ी गाड़ी, सुंदर पत्नी, सफल बच्चे, सेवा में तत्पर नौकरों की फ़ौज और सालाना विदेश की सैर जैसी अवधारणाओं से शुरू और इन्ही पे ख़त्म होती है. भौतिकतावादी दुनिया में ऐसा सोचना या इच्छा रखना न तो असामान्य है, न ही अनैतिक. बल्कि मैं तो कहूँगा कि बाजारवाद हमें एक उपभोक्ता की तरह देखता है और हमें इसी ओर प्रेरित भी करता है. लेकिन एक सच्चाई और भी है कि -
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां मगर फिर भी वो कम निकले
भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत इतनी हो जाती है कि लोग सही-गलत का फर्क भूलने लगते हैं. एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ. मुंबई में एक सेठ रहते थे. उनका ड्राईवर पैंतीस सालों से उनके साथ था. वह जब बूढ़ा होने लगा तो उसने अनुरोध करके अपने जवान पुत्र को सेठ जी के ड्राईवर की नौकरी दिलवा दी. पिता की ही तरह पुत्र भी मनोयोग से सेठजी की सेवा में रत रहने लगा. फिर एक दिन नौजवान की शादी हुई. शादी के बाद जब वह पहली बार सेठजी के घर पहुँचा तो उन्होंने अपनी गाड़ी की चाबी देते हुए कहा कि बेटा, मैं तुम्हे आज की छुट्टी देता हूँ. मेरी गाड़ी ले जाओ. ये हज़ार रूपए भी रखो. पेट्रोल भरवा लेना. दिन भर पत्नी को मुंबई घुमा दो. मेरी तरफ से शादी का तोहफा समझना. अँधा क्या चाहे – दो आँखे! दिन भर घुमाने के बाद उसने गाड़ी जुहू चौपाटी पर लगा दी और खुद भेल लेने चला गया. इस बीच गाड़ी के बगल से औरतों का एक झुण्ड गुजरा. सजी-संवरी नई-नवेली दुल्हन को चमचमाती गाड़ी में देख एक ने कहा – वाह, क्या तकदीर है सेठानी की. खुद भी चमक रही है और गाड़ी भी. बात दुल्हन के दिल में लग गयी. पति जब लौटा तो जिद पकड़ ली कि उसे भी ऐसी ही गाड़ी चाहिए. परिजनों ने लाख समझाया कि विदेशी गाड़ी नौकरों के बस की बात नहीं थी पर बात दिल में अन्दर तक उतर चुकी थी. न उसे मानना था, न वो मानी. उसकी तो भूख मिट गयी थी, रातों की नींद उड़ गयी थी. पति जो भी कमाता, उसका दो-तिहाई हिस्सा जमा कर देती. मुख मलिन होने लगा, काया क्षीण होने लगी किंतु जिद थी कि समय के साथ बलवती होती जाती थी. इतने पर बात बनती न दिखी तो वह सेठजी के घर नौकरानी बन गयी. आखिर कुछ अतिरिक्त पैसे आयेंगे तभी तो सपना पूरा होगा.
इस बीच पाँच साल गुजर गए. एक दिन पता चला कि सेठ जी उस गाड़ी को बेचने वाले हैं. धूमिल होते सपने पुनः आँखों में चमकने लगे. बड़े मन-मनौव्वल के बाद सेठजी ने कम कीमत में ही गाड़ी उसे बेच दी. दुल्हन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. उसने पति से फरमाइश की कि आज फिर वहीं भेल खाने चलते हैं जहाँ शादी के बाद गए थे. दोनों गाड़ी में वहाँ पहुंचे. पति ने गाड़ी लगाई और भेल लेने चला गया. पुनः कुछ महिलाएँ उधर से गुजरीं तो दुल्हन सजग हो गयी. उनमे से एक ने कहा – इतनी चमचमाती गाड़ी में ये कैसी मनहूस और दरिद्र औरत बैठी है. लगता है कि सेठ की गाड़ी में उसकी नौकरानी घूमने चली आई है.
हमारी हालत भी कमोबेश उसी दुल्हन की तरह है. स्वर्ण-मृग की तृष्णा में हम ऐसे भटक जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ कब हमसे किनारा करके निकल गईं. जब लक्ष्य पाते हैं, तब जा कर एहसास होता है कि लक्ष्य का पीछा करते-करते ज़िन्दगी से ही दूर निकल आये हैं. सच ही तो कहा है कि –
उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में
जबकि सच्चाई यही है कि हमारा जीवन बहुत थोड़े में मजे से कट सकता था. हम जीवन को भरपूर जी सकते थे, समाज को कुछ दे सकते थे. हम ये क्यों भूल जाते हैं कि स्वर्ण-मृग की चाहत ने जब स्वयं ईश्वर के अवतार श्रीराम तक को वन-वन भटका दिया था तो हम तो तुच्छ मनुष्य हैं. कहा भी गया है -
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाए
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाए
आज एक और बात कहना चाहता हूँ. जीवन अत्यंत जटिल है. हम एक बार में तीन जिंदगियाँ जीते हैं. पहली है शारीरिक ज़िन्दगी जो कि आत्मा के शरीर छोड़ देने के साथ ख़त्म हो जाती है. हम जितने भी सुख-साधन जुटाते हैं, वो शरीर के काम आते हैं. दूसरी है मानसिक ज़िन्दगी. ये जीवन का भावनाओं वाला स्तर है. हम जो भी सोचते-समझते और महसूस करते हैं, वही हमारे विचार और व्यवहार में बदलता है. यही असल में हमारे सुख-दुःख का कारण बनता है. तीसरी ज़िन्दगी होती है – आत्मिक ज़िन्दगी. ये आत्मा के स्तर पर होती है. यही वो स्तर है जो विपरीत परिस्थितियों में हमें कमज़ोर नहीं पड़ने देता और अनुकूल परिस्थितियों में उन्मत्त नहीं होने देता. यह इंसान को विनयशील और दयालु बनाता है. इंसान इस बात को समझने लगता है कि “मुझमें जो कुछ अच्छा है, सब उसका है; मेरा जितना चर्चा है, सब उसका है”.
मैं तो फ़कत यही चाहता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी ऐसी जगह कटे जहाँ सब पर ईश्वर की कृपा हो. सभी स्वस्थ रहें, मिल कर रहें, मुस्कुराते रहें. जानता हूँ कि ज़िन्दगी कभी मुक्कमिल नहीं होगी, हमेशा किसी-न-किसी बात की कमी होगी. तुम चंद कदम साथ चलो तो, मेरी लिए जन्नत यहीं होगी.

Wednesday, July 1, 2015

मेरे मन की बात – पापी पेट का सवाल है

बारिश जैसे ही थमी, मैं तेज़ी से बाज़ार की ओर चल दिया. रास्ते में मैंने देखा कि भीड़ लगी है. मन में उत्सुकता हुई कि देखूँ तो, आखिर बात क्या है. पास पहुँचते ही डमरू की डुगडुग के साथ ही जोर की आवाज़ आई –

“जम्हूरे, साहब लोगों को खेल दिखायेगा?”

“हाँ उस्ताद दिखायेगा”

“क्या खेल दिखायेगा?”

“रस्सी पर करतब दिखायेगा उस्ताद”

“जम्हूरे, साहब लोग खुश हुए तो पैसे देंगे”

“हाँ उस्ताद, पैसे मिलेंगे तभी तो पेट चलेगा”

“तो साहब लोगों को खुश करेगा जम्हूरे?”

“हाँ उस्ताद”

“और ये तेरा बन्दर क्या बैठे-बैठे रोटियां तोड़ेगा?”

“ना उस्ताद, ये भी खेल दिखायेगा. आखिर पापी पेट का सवाल है. क्यों रे मोहन (बन्दर)?”

जवाब में बन्दर गुलाटियां मारता है, उस्ताद डमरू बजाता है और भीड़ तालियाँ बजाती है. मैं आगे बढ़ जाता हूँ. भूख के सामने जब शेर हंटर के आदेशों का पालन करने को मजबूर हो जाता है तो ये तो बन्दर ही है. और जम्हूरे की क्या बात करूँ? सरकारें लाख कहती रहें कि “सब पढ़ें, सब बढ़ें”, सारे जम्हूरे ये ही कहते हैं कि “माई-बाप, पापी पेट का सवाल है”. ऐसे में “बाल-श्रम” और “पशु-क्रूरता” निषेध जैसी बातें मजाक लगने लगती हैं.

खैर, मैं आगे बढ़ा तो एक पुराने परिचित मिल गए. कहने लगे कि आज-कल बड़े भागे-भागे फिरते हो. बात क्या है? मैंने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं, बस काम थोड़ा बढ़ गया है और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी, सो ज़रा मसरूफ़ हो गया हूँ. वे बोले कि आज कोई बहाना नहीं चलेगा. बड़े दिनों पर मिले हो. एक कप चाय तो साथ में पी ही सकते हो. मैंने कहा कि क्यों नहीं किंतु आज की चाय मेरी तरफ से. वे तुरंत राजी हो गए. मैंने चाय के साथ समोसे भी मँगवा लिए. मेरे मित्र ने पहला कौर उठाया, आँखें बंद कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और मेरी तरफ देख कर बोले – अन्नदाता सुखी भवः! मैं मुस्कुरा उठा. शायद मेरा मुस्कुराना उन्हें अच्छा नहीं लगा था. उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मेरी ओर मुखातिब थी. मैं बोला –

“पता नहीं इस देश का असली अन्नदाता कब सुखी होगा.”

“सही कहते हो. अभी कल ही की बात है, शाम को मैं सब्जी लेने निकला. पत्नी की सख्त हिदायत थी कि टमाटर ज़रूर ले आना. भाव पूछा तो टमाटर पचास रूपए किलो. मैं दाम सुन कर मायूस हो गया. घर लौटते वक़्त मुझे एक व्यक्ति मिला. उसने बताया कि उसके पास करीब बीस किलो टमाटर बचे हैं, यदि मैं पूरे लेना चाहूँ तो दो सौ रुपयों में वह उसे बेचने को तैयार है. मैंने पुछा कि भाई इतना सस्ता? उसने कहा कि मैं किसान हूँ. इस उम्मीद में करीब सौ किलो टमाटर ले आया था कि शहर में शायद ज्यादा कमाई हो जाए लेकिन मुझे मंडी में घुसने ही नहीं दिया. दलालों ने कहा कि सारा टमाटर पाँच रूपए के भाव हमें बेच जाओ. मैं क्या करता? गली-गली घूम कर दिन भर में अस्सी किलो तो बेच लिए पर अब अँधेरा हो रहा है. इतने टमाटर वापस ले जाऊं तो पचास रूपए इसी का भाड़ा लग जायेगा. कल इसे वापस लाने के और पचास रूपए लगेंगे, तो अब जो भी मिल जायेगा, वो दाम ले लूँगा.”

“फिर आपने क्या किया?”

“मैंने उससे कहा कि मेरे लिए दो किलो टमाटर तौल दे.”

“बाकी के टमाटरों का क्या हुआ?”

“मैंने उससे कहा कि बाकी के टमाटर मेरे घर पर रख दो. सुबह और सब्जियों के साथ आना और इन्हें ले जाना. तुम्हारा भाड़ा बच जायेगा.”

मैं सोचने लगा. भारत किसानों का देश है. हमारी बहुसंख्य आबादी खेतिहर है, ग्रामीण है. बचपन की एक बात बताता हूँ. गर्मी की छुट्टियों में एक रिश्तेदार के घर गया था. खेतों के बीच उनके बड़े से घर के सामने कृषि-उपकरण रखे थे. एक ओर गायें बंधी थी. दृश्य बिलकुल किसी भारतीय ग्रामीण घर की अवधारणा की प्रतिमूर्ति की तरह जान पड़ता था. घर के पिछवाड़े आमों का छोटा सा बाग़ था. आम के कोई सात-आठ पेड़ होंगे. लीची और कटहल के भी पेड़ थे. सुबह से शाम तक बस आम और आराम! उसी दरम्यान उनके पिताजी से मिलने कुछ लोग आये. बातें चल रही थी. उसी बीच उन्होंने कहा –

उत्तम खेती, मध्यम बाण

अधम चाकरी, भीख निदान.

तब इसका मतलब समझ नहीं आया था. बस शब्द अच्छे लगे और याद रह गए. बड़े दिनों बाद एक दिन मेरे दादाजी के मुहँ से जब ये ही शब्द सुने तो उनसे मतलब पूछ बैठा. उसका सारांश यही था कि मिटटी ने हमें पैदा किया, उसी ने हमें पाला और एक दिन उसी मिटटी में मिल जाना है. उसकी व्याख्या उस दौर के भारतीय जनमानस की मनःस्थिति और मिटटी से उनके जुड़ाव को भली-भांति रेखांकित करता है. अपनी मिटटी से जुड़ना क्या होता है, उसी दिन समझ आया.

आज का दौर “मास्टर-शेफ़” का दौर है. पनीर-65 के सामने घी में छौंकी अरहर की दाल फीकी हो गयी है. घर आये मेहमान को ग्रामीण गृहस्थ भोजन किये बिना जाने नहीं देता था; पर अब क्या गाँव, क्या शहर, बस एक कप चाय – रिश्ते निभाए! अरे भाई, ये लोगों का दोष नहीं है. महँगाई तो ज़ालिम होती ही है. बेचारे खिलाने वाले क्या करें? और खानेवाले? वे कहाँ कम हैं. चावल-दाल-चोखा-भुजिया-अचार आज कल कौन खाता है? भई स्टेटस भी तो कोई चीज़ है! वो दिन गए जब लोग-बाग एक मुट्ठी सतुआ और एक गाँठ प्याज भर से खुश हो लिया करते थे. नमक-मिर्च अलग से मिल जाये तो सोने पे सुहागा. तब अगर कोई ना-नुकर करे तो मुहँ पे ही कह देते थे – ये मुहँ और मसूर की दाल. अब तो दाल इतनी महँगी हो गयी है कि खरीदने में ही लोगों की दाल न गले!

इसी बात पर मुझे महाभारत का एक प्रसंग याद आता है. पांडव वनवास में थे. उनकी भार्या द्रौपदी को सूर्य-देव से एक अक्षय-पात्र मिला था. इसकी विशेषता थी कि पात्र से तब तक भोजन निकलता रहता था जब तक द्रौपदी इससे भोजन न कर ले. एक बार द्रौपदी ने खा लिया तो फिर अगले दिन ही खाना मिलता था. तो हुआ यूँ कि एक बार दुर्वासा ऋषि अपने साठ हज़ार शिष्यों के साथ पांडवों के आश्रम पहुंचे और भोजन की मांग कर दी. ऋषि दुर्वासा अपने क्रोधी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे. किंतु परेशानी यह थी कि द्रौपदी भोजन कर चुकी थी. पांडवो के लिए आगे कुआँ पीछे खाई. ऐसे में उन्हें श्रीकृष्ण की याद आई. वे आये. पात्र को देखा. पात्र में एक दाना चावल और साग का छोटा सा पत्ता चिपका था. फिर क्या था! सभी ने मजे से भोजन किया.

किंतु क्या बात इतनी सी थी? नहीं. ज़रा सोचें. हम रोजाना अपनी थाली में कितना अन्न छोड़ देते हैं. भले ही कोई कम छोड़े, कोई ज्यादा, बर्बादी तो बर्बादी ही है. वैसे एक बात कहूँगा – यथा राजा, तथा प्रजा. अभी कुछ दिनों पहले पढ़ा कि FCI के गोदाम में रखे हज़ारों मन अनाज देखरेख के अभाव में सड़ गए. जाँच में पता चला कि ये अनाज वहाँ सालों पहले रखा गया था. जो लोग कंप्यूटर प्रोग्रामिंग जानते हैं, वे दो शब्दों से भली-भांति परिचित होंगे – Queue और Stack. Queue वो जहाँ पहले आने वाला पहले बाहर निकल जाये (FIFO) और Stack वो जहाँ सबसे अंत में आने वाला पहले बाहर निकल जाये (LIFO). गोदामों में जिस तरीके से सामान रखा जाता है वह का नमूना Stack है. ऐसे में प्रबंधन की जिम्मेदारी बनती है कि नियत समय से पहले पुराना अनाज वितरण हेतु बाहर निकल जाये.

एक और छोटी सी खबर पढ़ी – झारखण्ड में भूख से सबर की मौत. बताता चलूँ कि सबर एक लुप्तप्रायः आदिम जनजाति है. अगले दिन खबर का असर देखने को मिला – प्रखंड पदाधिकारी ने सबर परिवार को 10 किलो चावल दिया, उपायुक्त ने कहा कि किसी को भी भूख से मरने नहीं दिया जायेगा, चिकित्सा पदाधिकारी का दावा कि मौत की वजह भूख नहीं, बीमारी थी. एक और खबर आई – झारखण्ड में 67% किशोरियाँ अनीमिया की शिकार. इनमे शहरों में रहने वाली और गरीबीरेखा से ऊपर की लडकियाँ भी शामिल हैं. एक और खबर – मध्याह्न भोजन की ख़राब गुणवत्ता के कारण बच्चों ने खाना खाने से इनकार किया. ऐसी अनेक ख़बरें हैं जो मैं पढ़ता रहता हूँ. आप हिंदुस्तान में जहाँ भी रहते हों, ऐसी ख़बरें कमोबेश आपके निगाहों से होकर भी गुजरती होंगी.

सरकार की अनेक योजनायें हैं कि गरीब को एक रूपए किलो अनाज और न जाने क्या-क्या. क्या सिर्फ योजनायें काफी हैं? उचित गुणवत्ता और मात्रा की बात कोई नहीं करता. यहाँ एक और सवाल प्रासंगिक है – सरकारी योजनायें मुफ्त क्यों? सिर्फ वोट के लिए? क्यों न लाभुकों से साफ-सफाई जैसे आसान और जनोपयोगी कार्य कराये जायें? उन्हें भी संतोष होगा कि वे मेहनत की कमाई खा रहे हैं, मुफ्तखोरी नहीं कर रहे और समाज (जिसका अभिन्न अंग वे स्वयं हैं और कार्य का सीधा फायदा उन्हें ही होगा) को भी फायदा हो! साथ ही हर योजना को घुन की तरह खोखला कर रहे दलालों पर भी लगाम लगेगा.

“मैं चलता हूँ. कभी घर पर आओ. इत्मिनान से बैठ कर बातें करेंगे.”

मैं जैसे नींद से जागा, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं. अब मैं भी चलता हूँ.” उनसे विदा लेकर मैं तेज़ क़दमों से सब्जीमंडी आ गया. काले-काले बादल उमड़-घुमड़ रहे थे. कब बरस जायें, कोई ठिकाना नहीं. सोचा कि जल्दी से दो-चार सब्जियाँ लेकर घर चलूँ, कि देखा कि सड़क पर हरा पानी बहा चला आ रहा है. सब्ज़ीवाले ने आवाज़ लगाई – ओ भैया, जरा हटिये. ये वो रंगवाला पानी था जिसे पटल (परवल) रंगने के लिए इस्तेमाल किया गया था. आगे देखा कि नेनुआ और भिंडी भी हरे पानी में डुबकियाँ लगा रही है. बिचारा टमाटर तो तेल-पानी में तैर रहा है. मंडी से निकला तो बदबूदार नाले के किनारे लगे ठेले पर क्या बच्चे, क्या जवान, सभी पूरी-सब्ज़ी-जलेबी खाने में मगन हैं. मैगी पर तो आपने प्रतिबन्ध लगा दिया साहब, इनका क्या करेंगे? क्या ऐसे लाखों खोमचेवाले हर दिन हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं करते? इनपर कार्रवाई की बात आये तो गरीब-विरोधी का ठप्पा लगने का डर हो जाता है.

पुरानी कहावत है – जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन. क्या हम सही भोजन कर रहे हैं? क्या भोजन की गुणवत्ता और मात्रा उचित है? क्या हमारा भोजन हमें उचित पोषण देने में सक्षम है? क्या भोज्य-पदार्थों की खरीद-बिक्री पूरी तरह से आर्थिक गतिविधि है या देश का भविष्य इस पर निर्भर है? अनेक प्रश्न हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. मैंने अपने मन की बात कही. अब फैसला आपके हाथ छोड़ता हूँ.

Sunday, June 21, 2015

मेरे मन की बात


इस संसार मे इन्सान होने के भौतिक मायनों से बढ़कर हैं वे सूक्ष्म मायने जो हमारे मन मस्तिस्क को संचालित व नियंत्रित करते है. मानव चेतना दो अलग-अलग स्तरों पर संचालित होती है. एक मन और दूसरा बुद्धि. इनमें जब भावनाएँ जुड़ती हैं तो एक बहुआयामी आभासी संसार का निर्माण करती है. इसकी जटिल प्रक्रियाएँ व्यक्ति को कभी हँसाती है तो कभी रुलाती है. जिस प्रकार सागर में निर्बाध रूप से लहरों के उठने-गिरने का सिलसिला चलता रहता है उसी प्रकार मानव मन में विभिन्न भाव स्पंदित होते रहते है. उनमे कुछ अच्छे होते हैं, कुछ बुरे. कई बार भाव शब्दों का सहारा खोजते है तो कई बार जल-धारा में परिवर्तित हो अपने होने का प्रमाण दे जाते है. विचार – उद्गार – सम्वाद की त्रिवेणी ही तो मन की बात है. कभी लगता है कि मन की सारी बातें कह डालूँ. कभी लगता है कि क्या यह उचित है ? कहीं ऐसा न हो कि मूल मुद्दा पीछे छूट जाए. यह डर अकारण नहीं है. कवि रहीम ने भी कहा था –

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोए,   

सुन अठिलैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोए.

 

किन्तु फिर मन-ही-मन विचार किया कि -

वह नर ही क्या

जो पी न सके दावानल को,

झंझावातों को न झेल सके

उद्दात लहरों से न खेल सके

 

इसलिए मैने भी कमर कस लिया है. कुछ विचार हैं, विचारों के स्तर पर. कुछ मुद्दे है, रोज़मर्रा के. कुछ बाते कहूँगा. बिलकुल बुनियादी बातें. ऐसी बातें जिनसे आपका और हमारा रोज़ का सरोकार है. मेरे मन की बातें.

Tuesday, May 26, 2015

वक्र-चक्र गति

तब पंख न थे, पर अरमाँ थे ऊँचा उड़ने के 
अब पंख फक़त हैं, पंखों में परवाज़ नहीं है 

जब सुनता न था कोई, रोम-रोम था चिल्लाता 
अब सब सुनते हैं, पर मुझमें आवाज़ नहीं है 

जब सुर न सधे थे, स्वर-लहरी थी हवाओं में 
अब सुर जो सधे तो, साथ बजे वो साज़ नहीं है 

इक दौर था वो कि कानाफूसी भी करते थे जोरों से  
अब सब कह दें, पर कहने को कोई राज़ नहीं है 

तब लगता था, कि बड़े हुए तो दिन बहुरेंगे 

पर अब लगता है, वैसे दिन तो आज नहीं हैं 

Saturday, May 23, 2015

The Palm Psalm

   Palms are a common sight in middle eastern countries but what if you happen to spot one right here in Jamshedpur? What would be your reaction? Well, initially I thought that I was daydreaming. A palm? It wasn't here a few days back. How come a tree such big go unnoticed? So, I stopped to have a better look of it.



 A closer look revealed the truth. It was NOT a palm tree. It is a Reliance 4G tower being set up by Reliance Jio. I think it is one of its kind of camouflage tower installed.

  With the leaves and trunk, you will surely mistake it for a palm tree. What else is better fit for a town that is "Clean City, Green City, Steel City".

In fact, many other such towers being set up will double up as high-mast lights. You will notice that the conventional vapour lights are being replaced by LED street lights!

Interesting! Isn't it?

Friday, March 6, 2015

बुरा न मानो होली है

अंग अंग
हो रंग रंग
भंग संग
बाजे मृदंग

कान्हा चले
ग्वालों के संग
हाथों में रंग
मन में उमंग

सखियाँ सहित
राधा खङी
कान्हा को रंगने
को अङी

दिक् दिक् रहा था
रस बरस
उल्लास उत्सव
का सरस

रस रंग राग
आया है फाग
हर मन मे आज
बजने दो साज

हर द्वेष भूल
खिलने दे फूल
बस मिल गले
आगे चलें

जीवन तो
हँसी ठिठोली है
बुरा न मानो
होली है

Thursday, February 12, 2015

अछूत


आज अट्ठाईस दिसंबर है। बच्चों की परीक्षाएँ ख़त्म हुए पूरे चार दिन बीत चुके हैं। इन चार दिनों में वे जितना खेलने की सोच सकते थे, उतना खेल चुके थे। आज छुट्टी का पाँचवा दिन है। शैतान-मंडली सुबह से ही सुस्त है। रौनी और चिंकी अपने दोस्तों के साथ सर्दी की अलसाई धूप में खुद भी अलसाये-अलसाये से लॉन में पड़े हैं –

“यार, बोर हो गए।” रौनी बोला।

चिंकी ने भी भाई की हाँ-में-हाँ मिलाया - “हाँ यार। ये मम्मी-पापा भी ना; कहीं घुमाने कहो तो बहाना बनायेंगे कि छुट्टी नहीं है।”

बहन का साथ पा कर रौनी का गुस्सा फूट पड़ा - “देखना, आज सन्डे है लेकिन बहानों का संडे कभी नहीं आता।”

तभी बाहर से आवाज़ आई – “आदित्य, ओ आदित्या!”

“क्या है मम्मी?”

“जल्दी से घर आ जाओ। पापा आ गए हैं और हम सब जू घूमने जा रहे हैं।”

“अभी आया! बाय रौनी। बाय चिंकी। बाय सैडी।”

सैडी यानि सुन्दरमण भी उठ चुका था, “बाय रौनी। बाय चिंकी। मैं भी अब चलता हूँ।”

“बाय अंकल”

“बाय बेटा।” बाज़ार से लौट रहे शास्त्री जी ने जवाब दिया। अंदर घुसते ही उनका सामना रौनी-चिंकी से हुआ। उनके उतरे चेहरे देख कर उन्हें किसी अनहोनी का अंदेशा तो हुआ पर उन्होंने तूफ़ान को छेड़ना उचित नहीं समझा। अंदर मिसेज शास्त्री ने आँखों-आँखों में बच्चों की नाराज़गी का कारण बता दिया। फिर क्या था! बस घंटे भर की बात थी और पूरा परिवार सिटी-पार्क में था।  

शहर के बीचों-बीच बना ये पार्क शहर की शान है। शहर की तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी यहाँ आ कर थम सी जाती है। करीने से बनी क्यारियों में भाँति-भाँति के पुष्प हों या उनका रस पीने को तत्पर तितलियाँ, पेड़ों पर भागती गिलहरियाँ हों या पत्तों के बीच लुक-छुपी करते पंछी, जीवन के अनेक रंग यहाँ बिखरे पड़े हैं। मुग़ल-गार्डेन के फूलों को निहारते-सराहते, फव्वारों के किनारे चलते-चलते परिवार अब चिल्ड्रेन-पार्क तक आ पहुँचा था।

“बच्चों, तुम दोनों मम्मी के साथ यहाँ खेलो। तब तक मैं लंच ले आता हूँ।” दोनों बच्चों ने आगे कुछ सुनने की बजाय झूले की ओर दौड़ लगा दिया। शास्त्रीजी ने पत्नी की ओर देखा और दोनों मुस्कुरा दिए।

“तुम इनका ख्याल रखना, मैं अभी आता हूँ।”


कुछ आधे घंटे में ही मिसेज शास्त्री ने शास्त्री जी को आते देखा। उनके हाथों में जो थैला था, उसके वजन के अंदाज़े से लग रहा था कि आज तो जम कर मौज होने वाली है। उन्होंने तुरंत बच्चों को आवाज़ लगाई -
"रॉनी! चिंकी! बेटा पापा आ गए हैं। तुम दोनों भी आ जाओ। जल्दी करो वरना खाना ठंडा हो जाएगा।" 

एक खुली सी शांत और साफ़ जगह देख कर शास्त्रीजी ने चादर बिछा दी। बात की बात में प्लेटें सज गईं और लाजवाब व्यंजनों का दौर शुरू हो गया।

“मम्मी, जरा चिली-चना तो बढ़ाना।” रौनी बोला।

“मेरे लिए पनीर-मसाला...” ये चिंकी थी।

सब अपनी मस्ती में खा रहे थे कि अचानक रौनी ज़ोर से चिल्लाया – “शू... हट... चल भाग यहाँ से।” यह एक आवारा कुत्ता था जो शायद भोजन की सुगंध से खिंचा चला आया था। शास्त्रीजी ने ऐसा दिखाया जैसे कि उनके हाथ में पत्थर हो और उसे कुत्ते की दिशा में फेंकने का नाटक किया। इसका असर हुआ और कुत्ता उलटे पाँव भाग चला। रौनी अब सहज हो चला था। उसने निश्चिंत होकर जैसे ही मुहँ में कौर डाला, उसकी निगाहें पेड़ की ओट में खड़े दो मलिन-मुख बालकों से जा टकराई। उसने सरसरी निगाह से देखा, दोनों ने फटे हुए वस्त्र धारण कर रखे थे जो शायद किसी वयस्क के थे। दोनों ही खाने को ललचाई निगाहों से एकटक घूर रहे थे। रौनी फिर असहज हो गया। उसकी असहजता  सहज ही परिजनों की  निगाहें उस ओर ले गयी जिधर रौनी देख रहा था। चार जोड़ी आँखों को अपने ऊपर टिका देख पहले तो दोनों सकपकाए, फिर पेड़ की ओट से निकल कर थोड़ा निकट आ कर खेलने लगे। उनकी निगाहें अब भी भोज्य-सामग्री पर ही टिकी थीं।

बालकों के निकट आ जाने से पूरा परिवार असहज हो उठा। सबने जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म किया और जूठा समेटने लगे। रौनी ने देखा कि उन्होंने जो जूठा फेंका था, दोनों बच्चे उसमें से बचा-खुचा निकाल कर खा रहे हैं। मिसेज शास्त्री ने शायद बेटे की स्थिति भांप ली थी। उन्होंने बैडमिंटन उठाया और रौनी के साथ खेलने लगी। माहौल फिर से खुशनुमा हो चुका था। शाम ढ़लने लगी थी और ठंड भी बढ़ रही थी। अब समय आ गया था कि घर को प्रस्थान किया जाए। शास्त्री परिवार सामान समेट कर चलने को हुआ कि दोनों बच्चे फिर से आ धमके। उनकी उपस्थिति ने मिसेज शास्त्री के अंदर गुस्से की लहर दौड़ा दी थी। शायद दोनों बच्चों ने इसे समझ लिया था, इसलिए वे उनकी तरफ ही हाथ फैलाये बढे –

“माई, कुछ दे दो माई।”

“हटो! पीछे हटो” कहते हुए मिसेज शास्त्री खुद ही पीछे जाने लगीं पर बच्चे भी कहाँ मानने वाले थे। एक ने बाएँ हाथ से उनका दुपट्टा पकड़ लिया और दाहिने हाथ से बार-बार उनके पैर छू कर प्रणाम करने लगा। मिसेज शास्त्री इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने झटका दे कर अपना दुपट्टा छुड़ाया और पति के पीछे जा छुपी। इतनी देर में शास्त्रीजी ने समझ लिया था कि इन बच्चों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होगा। उन्होंने झट से दस का एक नोट निकाला और मामले को निपटाया किन्तु मिसेज शास्त्री का मूड ख़राब हो चुका था।

“आवारा! भिखमंगे! सारा मूड ख़राब कर दिया।” मिसेज शास्त्री का गुस्सा तो जैसे सातवें आसमान पर था।

“देखा आपने! उसने मुझे छू लिया! मेरे कपड़े गंदे कर दिए। वाहियात गंदे बच्चे।” मिसेज शास्त्री अब अपने पति से मुखातिब थीं।

“मम्मी-मम्मी, क्या वे अछूत बच्चे हैं जो उनके छू लेने से आप इतनी नाराज़ हो?” ये चिंकी थी।

“..........................”

नन्हीं बच्ची के मासूम सवाल का निहितार्थ इतना गहरा था कि मिसेज शास्त्री अवाक् रह गई। पत्नी के गुस्से और बच्ची की जिज्ञासा में टकराव न हो, इसलिए शास्त्रीजी बोले, “रौनी-चिंकी, देखूं तो कि दोनों में कौन गाड़ी के पास पहले पहुँचता है!” सब कुछ भूल कर पल में ही दोनों हवा से बातें करने लगे।

इधर एक पेड़ के नीचे खड़े दोनों लड़के मिस्टर और मिसेज शास्त्री को जाते देख रहे थे। एक ने दूसरे से कहा –

“भाई ये अच्छे कपड़े वाले हमें अछूत क्यों समझते हैं?”

“अबे अच्छा ही है कि अछूत समझते हैं। इसी बहाने हमें पैसे तो मिल जाते हैं”

दोनों ही मस्ती में खिलखिला दिए।