Thursday, April 8, 2010

मूंछ (लघुकथा)

रविवार की सुबह-सुबह मैं चाय लेकर बैठा ही था कि पत्नी बोली, "दो-चार कहानी-कविता क्या लिख ली, अपने आप को कवि समझने लगे हो?" मैं छुट्टी का मूड बिगाड़ना नही चाहता था. डर था कि कहीं कुछ गलत बोल गया तो.... और अगर नही बोला तब तो खैर ... मैं सोच ही रहा था कि वो बोली, "ये खिचड़ी दाढ़ी बनाने का इरादा है या नही?" मेरे मन का बोझ कुछ हल्का हुआ. "अरे ज़रा चाय तो ख़त्म कर लूं!"

चूंकि रविवार था, इस बात की प्रबल संभावना थी कि सैलून में लम्बी कतार होगी, और मैं ठहरा लाईनों से घबरानेवाला. चाय को तुरत-फुरत निपटाया और विजय के "शरणागत" हो गया. मुझे देखते ही विजय बोला, "अच्छे समय पर आये. अभी तुरंत मैं खाली हुआ हूँ. वैसे तो एक चाचा का नंबर है, पर वो जब तक आते हैं, आप की दाढ़ी बना देता हूँ."

अँधा क्या चाहे? दो आँखें!
मैं भी फटा-फट बैठ गया और विजय यंत्रवत अपनी प्रक्रियाएँ पूरी करने में लग गया. अभी मामला शेविंग क्रीम तक ही पहुंचा था कि आवाज़ आयी, "विजय. ऐ विजय. हमार नंबर नइखे आइल?" एक पल को सब कुछ थम गया और दो जोड़ी आँखें एक अधेर व्यक्ति पर ठहर गयी. "बस दू मिनट में हो जाई चाचा. राउआ लेट करे लगलीं ता...." विजय के पास सिवा सफाई के कुछ नही था. वो "राजधानी" की स्पीड से शुरू हो गया. और होता भी क्यूँ नही? चाचा कुर्सी की बगल में जो खड़े थे!

विजय एक बार की अपनी प्रक्रिया ख़त्म कर दूसरी बार मेरे चेहरे पर क्रीम लगा रहा था. तभी चाचा ने धीरे से अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा, "एगो बात कहींs बबुआ?" मैं इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नही था. मैंने अपनी नज़रों के ज़रिये उन्हें ये बताने की कोशिश की कि मेरी उनकी बातों में कोई रूचि नही है; पर मेरी नज़रों की उपेक्षा और हल्के-से-क्रोध की झलक को नज़रंदाज़ कर वे
जारी रहे. "तहार बाबूजी बाsरन?" इस प्रश्न के साथ ही उनकी मंशा ज़ाहिर हो गयी. मैं मन-ही-मन उनकी धृष्टता और मूर्खता पर हंस पड़ा. मन की हंसी के होठों तक आने का एहसास तब हुआ जब विजय के हाथ अटपटा कर रुक गए. "क्या हुआ विजय भाई?" "पहले आप हंस लीजिये. जानते हैं, अभी कटते-कटते बचा." विजय के स्वर में गुस्सा कम और मेरी फ़िक्र ज्यादा थी. अब चूंकि विजय के हाथ रुक गए थे, मैंने चाचा की तरफ सपाट नज़रों से देखते हुए कहा, "नही."

इधर विजय शुरू हुआ, उधर चाचा शुरू हो गए, "बुरा मत मनियs ऐ बबुआ. हमनी सन बाबु-साहेब बानी जा. हमनी लोग में जबले बाबूजी जिन्दा रहेलन, मोंछ नइखे कटाल जाsला. मोंछ मरद के शान होखेला. .... .... " चाचा अपनी धुन में बोले जा रहे थे पर उन्हें ना मैं सुन रहा था, ना ही विजय.

अपनी दाढ़ी-मूंछ को ठिकाने लगा मैं अब हल्का महसूस कर रहा था. आखिर पत्नी के उलाहनों से पीछा जो छूट गया था! इधर "चाचा की चौपाल" जारी थी. "ऐ बबुआ, बुरा मत मनियs." मैं उनकी ओर देख सिर्फ मुस्करा दिया और विजय को १०० का एक नोट पकड़ा दिया. "क्या भईया? बोहनी के टाइम ई १०० का पत्ता थमा दिए?" "अच्छा चलो, दास बाबु की दूकान से छुट्टे करवा देता हूँ." दास बाबु की दूकान पर विजय अपनी मेहनत के दस रुपये उँगलियों में फिराता हुआ बोला, "जानते हैं भईया, ई जो चाचा हैं ना, अपना पोता के स्कूल में अपने बेटा का झूठा "मृत्यु प्रमाण-पत्र" जमा करवाएं हैं. जानते हैं क्यों? जिसके माँ-बाप नही होते और दादा या नाना पर बच्चे की जिम्मेदारी होती है, उनको स्कूल में साल भर का फीस सिर्फ ३०० रु लगता है!"

विजय तेजी से अपने सैलून की तरफ बढ़ गया. सैलून के अन्दर चाचा कुर्सी पर बैठे अपनी मूंछों पर ताव दे रहे थे.