Tuesday, June 8, 2021

अफ़सोस

 

दरवाजे की घंटी बजी तो रजनी बड़े ही बेमन से उठी. घंटी दुबारा बजी तो रजनी बड़बड़ाई – ऐसी भी क्या जल्दी है इसे, हुंह. लोग कुछ सेकंड इंतज़ार भी नहीं कर सकते.

दरवाजा खोला तो सामने डाकिया खड़ा था – आपकी रजिस्ट्री है मैडम. उसने लिफ़ाफा और कलम आगे बढ़ा दिया. सरकारी लिफाफे की रंगत और खुशबु ही अलग होती है. रजनी समझ गई कि इसमें उसकी तकदीर का फैसला बंद है.

 

अभी पिछले शुक्रवार ही तो उसका और अनिर्बन का तलाक हुआ है. शनिवार और रविवार की छुट्टियाँ अनिर्बन की गलतियों को याद करके कोसने में गुज़र गईं. सोमवार को ऑफिस में इस तलाक के ही चर्चे थे. होते भी क्यूँ नहीं, आखिर अनिर्बन भी तो उसी ऑफिस का एक हिस्सा है. कुछ लोगों ने रजनी को आज की आज़ाद नारी बताया तो कुछ ने उसके अकेले हो जाने का दुःख जताया. पीठ पीछे लगभग सभी ने कहा कि मारवाड़ी लड़की और बंगाली लड़के की शादी वैसे भी नहीं टिकने वाली थी. किसी ने कहा कि अच्छा हुआ इनके कोई बच्चा नहीं है, वरना उसका क्या होता? किसी ने व्यंग मारा – चार सालों के प्यार के बाद की शादी साल भर भी नहीं टिक पायी!

जितने मुहँ, उतनी बातें! घूमते-घूमते कुछ बातें रजनी के कानों तक भी आ पहुँची. जिन लोगों पर भरोसा करके उसने अपने जीवन के राज़ साझा किए थे, वे भरोसे के कच्चे और ज़ुबान के चटोर निकले. अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत? इस ज़हरीले वातावरण में अब रजनी का दम घुटने लगा था. उसने बॉस को मैसेज भेजा – “बॉस, मेरी तबियत ठीक नहीं है. मैं घर जा रही हूँ. शायद कल भी न आ पाऊँ.”

“ओके”, बॉस का जवाब तुरंत ही आ गया.

 

आज बुधवार है. अदालत से तलाकनामा मंज़ूर हो कर आ गया है. रजनी को तो वैसे खुश होना चाहिए था पर जाने क्यों, बार-बार उसकी आँखें गंगा-जमुना हुआ चाहती हैं.

 

Saturday, June 5, 2021

कीमत


फ़ोन की घंटी लगातार बज रही थी। अमर ने सरसरी निगाह डाली। कोई अनजान सा नंबर था। उसने फोन को पलट कर रख दिया। घंटी फिर बजी। वही नंबर, अनजाना सा। उसने फिर से फ़ोन को पलट कर रख दिया। घंटी जब तीसरी बार बजी तो वह झल्ला उठा – “हेल्लो”।
पता नहीं फ़ोन करने वाले ने क्या कहा पर अमर के चेहरे के भाव कई बार बदले।
“रॉंग नंबर”, अमर ने फ़ोन काट दिया।
वो कौन था जो इतनी बार फोन कर रहा था? आखिर वह क्या चाहता था?
"कौन था?" रसोईघर से बेला की आवाज आई।
"कोई नही। यूँ ही, कोई अनजान नंबर था।"
"अनजान था, तो इतनी देर तक क्या बातें कर रहे थे?" बेला अब अमर के सामने खड़ी थी।
"अरे कुछ नही। बस कुछ मांग रहा था।" अमर ने बात को टालने की कोशिश की। मगर बेला और भी घबरा गई।
"क्या? क्या मांग रहा था? कहीं हर्ष भैया तो नही थे? घर का किराया मांग रहे थे क्या?"
"नही बाबा, अब नाश्ता दे दो। थक गया हूँ।"

अमर एक फैक्ट्री में काम करता था। कोरोना की वजह से लॉकडाउन हुआ तो मालिक ने लॉकआउट कर दिया। नौकरी तो गई ही, आमद के साधन भी गए। एक साल यूँ गुजरा, मानो एक उम्र हो। पेट की आग जब जलाती है तो तन, मन, इच्छाएँ, आत्मसम्मान, सब जला डालती है। अमर अभी अभी दूध और अखबार वितरित कर लौटा था। दस बजे से भोजन के तलबगारों के आनलाइन आर्डर की तामील में लग जाएगा। कोई खाएगा, तभी तो उसका परिवार भी खाएगा!

दस बजे दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो सामने सहज खड़ा था।
"अंकल, ये आपके बारे में पूछ रहे थे।" वह दो अजनबियों के सामने से हट गया। पीछे खड़े दोनों व्यक्तियों ने नमस्कार मे अपने हाथ जोड़े। अमर ने इन्हें कभी नही देखा था।
“जी, कहिए”
“हमने ही आपको फ़ोन किया था। पता चला कि आप कोरोना को मात दे चुके हैं। अब आप ही हमारी उम्मीद हैं।”
“देखिए, मैंने पहले ही कहा है कि आप गलत नंबर डायल कर रहे हैं।”
शोरगुल सुन कर बेला भी आ गयी थी। उसने अमर को टोका – “आप सभी अन्दर क्यों नहीं आ जाते? सहज बेटा धन्यवाद, इन्हें घर तक लाने के लिए।” सभी अब अन्दर आ चुके थे।
“कोई मुझे भी बताएगा कि माजरा क्या है?” बेला उत्सुक भी थी, नाराज़ भी।
“देखिए बहन जी, मेरा बेटा कोरोना संक्रमित है। डॉक्टर ने कहा है कि प्लाज्मा थेरेपी ही उसकी जान बचा सकता है। अमर जी का ब्लड ग्रुप मेरे बेटे के ब्लड ग्रुप से मिलता है। अगर आप खून दें तो मेरे बेटे की जान बच जाएगी।” एक व्यक्ति हाथ जोड़ भावुक हो गया था।
“देखिए भाई साहब। मैंने पहले ही कह दिया है – ये नहीं हो पाएगा।”
“ऐसा मत कहिए भैया। आप अपनी संतान के बारे में सोचे। अगर मेरी स्थिति में आप होते तो आपको कैसा लगता।”
“हमारी कोई संतान नहीं है”, बेला ने कुछ बुझे से स्वर में कहा। किन्तु अमर का स्वर अब तेज़ हो गया –
“एक शर्त है”
“क्या?”
“सत्तर हज़ार रुपये लगेंगे, वो भी पेशगी। मंज़ूर हो तो बोलो वरना अपना रास्ता नापो।”


2
“आपको क्या ज़रुरत थी उनसे ऐसे बात करने की?” बेला ने अमर को पानी का ग्लास देते हुए पूछा। अमर ने बेला का हाथ थाम लिया। ज़िन्दगी का दर्द दोनों की आँखों से छलक आया।
“चलो, अब भोजन तो परोसो। क्या मुझे भूखा ही मारोगी? पूरी दुनिया को भोजन पहुंचाते-पहुंचाते मुझे भी भूख लग आई है।” अमर ने बात सँभालने की गरज से कहा। अभी दोनों खाने बैठे ही थे कि दरवाजे की घंटी फिर से बजी।
“मैं देखती हूँ।” बेला ने कहा।
“नहीं-नहीं। मैं देख लेता हूँ। तुम खाती रहो।”
अमर ने दरवाजा खोला। सामने चार लोग खड़े थे। दो तो वही थे, जो सुबह आये थे। दो नए थे।
“आप लोग फिर आ गए?”
“जरा एक मिनट हमारी बात तो सुनिए।” एक अजनबी बोला।
“ऐसा है कि हम अभी-अभी भोजन के लिए बैठे हैं श्रीमान। तो बेहतर हो यदि आप इंतज़ार करें।”
“पर हम आपका ज्यादा समय नहीं लेंगे।”
“इंतज़ार करना है या लौट जाना है, आप पर निर्भर है।” अमर ने दरवाज़ा बंद कर लिया।

3
“अगर आप वही बात कहने आये हैं, तो मेरा जवाब अब भी वही है। मंज़ूर हो तो हाँ, वरना अपना और मेरा समय बर्बाद न करें।” अमर ने उन्हें देखते ही कहा।
“अरे-अरे, आप तो नाराज़ हो गए।” एक अजनबी बोला। “पहले मैं अपना परिचय तो दे दूं। मैं विमल। मेरी दवा की दूकान है – विमल मेडिकल। आपने आते-जाते देखा होगा। और ये हैं सर्वेश्वर। स्थानीय थाने के दारोगा हैं।”
“नमस्कार”, सर्वेश्वर ने हाथ जोड़े। “आप बड़े गरम मिजाज मालूम होते हैं। अरे भई, एक ज़िन्दगी का सवाल है।”
“यदि मैं गरम मिजाज का हूँ तो आप यहाँ आये ही क्यों? मैंने तो आपको नहीं बुलाया?” अमर को भी गुस्सा आ गया। “मैंने अपनी बात कह दी है। अगर आपके लिए ज़िन्दगी का सवाल बड़ा है तो पैसे का सवाल छोटा होना चाहिए।”
“अमर जी, पैसे का क्या है? हाथ का मैल है। आज है, कल नहीं। आखिर इंसानियत भी कोई चीज़ होती है।” विमल बोला।
“ऐसा है विमल बाबू कि आपके मुहं से इंसानियत की बात अच्छी नहीं लगती। कल ही आपकी दूकान से २० रूपए का मास्क २५ में खरीद कर आया हूँ। आपके कर्मचारी ने रसीद देने से भी मना कर दिया था। तो गैर-कानूनी काम करने वाले, इंसानियत की बात करते भले नहीं लगते। अगर आपको इनसे इतनी ही हमदर्दी है तो आप ही पैसे दे दो। वैसे भी, आपके लिए तो पैसा हाथ का मैल है। इस विकट घड़ी में भी आप जनता को लूटने से बाज नहीं आए। आपदा में अवसर जो तलाश लिया था आपने! तो पैसे की कमी तो होगी नहीं। कुछ पुण्य ही मिल जाये!”
अमर के कटाक्ष ने चारों के घमंड को चूर कर दिया था। मगर वो घमंड ही क्या जो आपको सर्वश्रेष्ठ मानने का दुस्साहस ने दे! बड़ी ही विचित्र बात है। जब घमंड हावी हो जाए, तो विरोधी का आत्मसम्मान भी घमंड लगने लगता है और अपना घमंड भी आत्मसम्मान। तर्क के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। संवाद एकतरफा हो जाता है। मजा तो तब है जब घमंड को पद और पैसे की ताकत का सहारा मिल जाए। फिर तो जीत ही एकमेव विकल्प रह जाता है।

“ऐसा है अमर, हम इस इलाके के दारोगा हैं। दारोगा होकर कुछ माँग रहे हैं। और तुम मना कर रहे हो।” दारोगा को गुस्सा तो आ गया था लेकिन उसने शब्दों को संभाला।

“दारोगा जी, आप “कुछ” नहीं माँग रहे, बल्कि मेरे शरीर का खून माँग रहे हैं।” अमर ने “कुछ” शब्द पर जोर देकर कहा। “और हाँ, आप दारोगा ही हैं, कोई भगवान नहीं।”

“अब तुम हद से आगे जा रहे हो। दारोगा हैं हम। दारोगा! इतने केस में अन्दर करेंगे कि निकल नहीं पाओगे। जिद छोड़ दो।” सर्वेश्वर के पद का मद उस पर हावी हो गया। विमल ने बात सँभालने की कोशिश की –
“अमर जी, आप तीस हज़ार ले लो। हम इस से ज्यादा नहीं दे पाएंगे। आपको इंसानियत का वास्ता।”

“सुनिए दारोगा जी,” अमर ने विमल को अनसुना करते हुए कहा। “जब मैं अस्पताल में भर्ती हुआ तो सत्तर हज़ार का बिल थमा दिया गया। बिल में कई खामियाँ थीं। मैंने कई लोगों से मदद माँगी। किसी ने बिल ठीक करवाने में मदद नहीं की। अस्पताल से यह भी अनुरोध किया कि बिल थोड़ा कम कर दिया जाए। किसी ने मेरी न सुनी। मुझे कुछ नहीं सूझा तो बाज़ार से पाँच टका ब्याज पर पैसे उठाए। पाँच टका ब्याज समझते हैं आप? सौ के मूूल पर हर महीना पाँच रूपया! मूूल न दे पाया तो साल का साठ प्रतिशत! आप तो दारोगा हैं! अस्पताल वालों को अन्दर करेंगे? या फिर उस सूदखोर को? दूर क्यों जाना? मैं इसी विमल के खिलाफ बीस का मास्क पच्चीस में बेचने की शिकायत, लिखित में दूंगा। है आपमें हिम्मत? करेंगे इस पर कार्रवाई?”

“आप लोग अब सुनिए। आप ने मेरा काफी समय बर्बाद कर दिया है। अब आप लाख रूपया भी दें, तब भी मैं अपना खून नहीं दूँगा।” अमर ने नमस्कार में हाथ जोड़ दिए। एक व्यक्ति ने कुछ कहना चाहा पर अमर ने उन्हें बाहर निकल जाने का इशारा किया।

4
दरवाज़े की घंटी फिर बजी। अब अमर को गुस्सा आ गया। उसने दरवाज़ा खोला। वही दो लोग, सुबह वाले। अमर कुछ बोल पाता, इस से पहले उन्होंने अमर के हाथ में एक लिफाफा रख दिया।
“आप लोग फिर आ गए?” अमर का गुस्सा अब भी सातवें आसमान पर था।
“आप एक बार लिफाफा देख तो लें।” एक ने चिरौरी की। अमर ने लिफाफा खोला। तीस हज़ार रूपए थे। एक पत्र भी था। अमर ने उसे खोला। वह एक नियुक्ति पत्र था - अमर के नाम। अमर को पंद्रह हज़ार की नौकरी का प्रस्ताव दिया गया था।
"ये क्या है?"
“मना मत करना दोस्त। भूल हो गई जो तुम्हारी हालत नहीं समझ पाया। मेरी कंपनी में जगह खाली थी। मालिक बड़ी ही मुश्किल से माना। जितना हो सका, लाया हूँ। आगे तुम्हारी मर्जी।” वो अजनबी, जो शायद बच्चे का पिता था, हाथ जोड़, उम्मीद लगाए अमर को देख रहा था।
अमर निःशब्द था। एक पिता भले ही ऊपर से सख्त हो पर संतान के लिए वो कहाँ तक झुक जाता है, ये अमर को आज समझ आया। इंसान का सर्वोच्च धर्म इंसानियत है। जिसमे इंसानियत नहीं, वह इंसान नहीं। अमर ने लिफाफा उन्हें वापस कर दिया।
“इसकी जरूरत नहीं। आप थोड़ी देर इंतज़ार करें। मैं अभी आपके साथ चलता हूँ।”
“हमें आपकी परेशानियों की जानकारी हुई तो हम खुद को रोक नहीं पाए। ये खून की कीमत नहीं है, भाई का प्यार है। मना मत करिए। अपनी हैसियत कम ही सही, मगर वक़्त पर अपने भाई के साथ खड़ा नहीं हो पाया तो क्या फायदा?”
सच भी है। आपदा है। लोग अवसर तलाशेंगे। कुछ लोग लूट का, कुछ इंसानियत का। कुछ विरले होंगे जो हाथ थामेंगे, सहारा बनेंगे। उनकी बदौलत इस बात पर विश्वास बना रहेगा कि दुनिया अभी ख़त्म नहीं होगी।