Tuesday, September 27, 2016

रोको मत जाने दो


1
मैं लगभग दौड़ते हुए रेलवे ओवर ब्रिज पर चढ़ा. तभी ट्रेन ने आवाज़ दी और धीरे से आगे बढ़ी. मैंने अपनी रफ़्तार बढाई पर तेजी से सरकती हुई साढ़े-छः बजे की सियालदह लोकल मेरे सामने से निकल गई. मैं खीज और हताशा में उसे जाते देखता रहा. मैंने सोचा – “अगली ट्रेन बीस मिनट बाद आने वाली थी. पता नहीं तब तक मैं क्या करूँगा.” मैंने अपने अगल-बगल का जायजा लिया. कंधे पर बैग लटकाए स्त्री-पुरुष अपने-अपने काम-धंधे पर जाने को तैयार हैं. चाय के ठेलों पर चाय-बन का नाश्ता करने वालों की लाइन लगी है. एक और ठेले पर ब्रेड-ऑमलेट मिल रहा है. इन दोनों के आस-पास कुछ आवारा कुत्ते खाना पाने की चाहत लिए घूम रहे हैं. स्टेशन के प्रवेश द्वार से जितने यात्री आ रहे हैं, उससे ज्यादा लोग पटरियों के किनारे-किनारे चल कर आ रहे हैं.

तभी घोषणा हुई कि हावड़ा जाने वाली लोकल दो नंबर प्लेटफार्म पर आने वाली है. प्लेटफार्म की सरगर्मी अचानक से बढ़ गई. जो बैठे थे, वे खड़े हो कर ट्रेन आने का इंतज़ार करने लगे. जो खड़े थे, वे ट्रेन की दिशा में झाँक रहे हैं. मेरे मन में विचार आया कि यहाँ बैठे रहने से अच्छा है कि क्यों न हावड़ा चला जाये. ट्रेन आने की देर थी कि मैं धक्का-मुक्की कर सामने के दरवाज़े से प्रवेश कर गया. मेरी किस्मत अच्छी है कि मुझे एक सीट मिल गई. मैंने सोचा – चलो अच्छा हुआ कि बैठने की व्यवस्था हो गई वरना तो घंटा भर खड़े-खड़े ही जाना पड़ता. इसी भीड़ से बचने के लिए मैं साढ़े-छः की लोकल लेता हूँ वरना तो मेरा ऑफिस साढ़े-नौ बजे खुलता है.

ट्रेन के खुलते ही ताज़ी हवा के झोंके ने भीड़ से राहत दी. मेरे अगल-बगल ज्यादातर खोमचेवाले हैं. उन्ही के बीच मेरे सामने की सीट पर एक कन्या बैठी है, सहमी सी, सकुचाई सी, अपने दोनों हाथों से अपने बैग को सीने से भींचे हुए, मानो उसका सारा खज़ाना उसी में हो. उसके घुंघराले बाल और मछली जैसी बड़ी-बड़ी आँखें उसके बंगाली होने की पुष्टि कर रही हैं. पर ये हिरनी-सी चंचल आँखें इतनी डरी हुई सी क्यों हैं? अचानक बगल से जब दूसरी ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुज़री तो मैं अपने ख्यालों से वर्तमान में आ गया. हावड़ा में हम साथ ही उतरे पर भीड़ ने उसे अपने में यूँ समेट लिया कि बस....

 

  

 

2

आज सात दिन हो गए जब से मैंने छः-चालीस की हावड़ा लोकल को ही अपना बना लिया है. इंजन से तीसरे डब्बे में ही हर दिन वो दिखाई दे जाती है. फिर हावड़ा उतरना, स्टीमर से घाट पार करना और फिर लोकल बस का सफ़र, यही सिलसिला चल रहा है. अरे, ये क्या? आज हावड़ा स्टेशन आने वाला है पर लगता है उसे उतरने की कोई जल्दी नहीं है. अच्छा है! आज बात करने का मौका मिलेगा.

प्लेटफार्म पर ट्रेन के रुकते ही यात्री उतर कर यूँ भागने लगे मानो किसी ने उन्हें ये कह रखा हो कि ट्रेन में बम है. हो सकता है मैं अतिशयोक्ति कर रहा होऊं पर अगर आपने कोलकाता की ओर आनेवाली किसी लोकल में सफ़र किया होगा तो इस बात को समझ जायेंगे. भीड़ ने मुझे भी ट्रेन से उतार दिया है. प्लेटफार्म पर मेरी आँखें उसे ही ढूंढ रही हैं. वो रही, वहाँ. धीमे निराश कदमों से निकास-द्वार की ओर बढती हुई. मैं उसके पीछे दौड़ा.

“आज भीड़ कुछ ज्यादा ही थी.”

उसने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा. मैंने अपना प्रश्न सुधारा –

“आपनी कोथाय जाबेन?”

उसकी आँखों में आँसू भर आये –

“कोथाय जाबो? अब जाने को कोई जगह नहीं.”

“क्यों? क्या हुआ?”

“मालिक ने नौकरी से निकाल दिया है. माँ-बाबा को कुछ नहीं बताया. हर दिन की तरह काम पर निकल आई.”

“आप चाय पियेंगी?”

इस एक प्रश्न ने मेरे लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए. उसका नाम मौनी है. बाबा डनलप की फैक्ट्री में काम करते थे. फैक्ट्री बंद हो जाने से बाबा की नौकरी चली गई. मजबूरी में गाँव जा कर खेती-बारी कर रहे हैं. स्कूल की पढाई ख़त्म कर मौनी एक प्राइवेट नौकरी कर रही थी, थी इसलिए कि अब वो भी नहीं रही. उसे डर है कि उसकी नौकरी जाने की बात सुन उसके बाबा को सदमा न लगे, इसलिए बताया नहीं.

इंसान जब मजबूर हो, तकलीफ में हो तो औरों से अपने तकलीफ की मान्यता चाहता है. ऐसे में मौनी को मेरा साथ किसी अपने के साथ की तरह महसूस हुआ. मैंने तय किया कि आज ऑफिस से छुट्टी ले लूँगा और दोनों मिल कर उसके लिए नौकरी ढूंढेंगे. मैंने परशुराम को फ़ोन लगाया –

“बॉस, आज मैं नहीं आ पाउँगा. मेरा सी एल चढ़ा दीजिएगा.”

“क्यों भई. क्या हुआ?” परशुराम ने अमरीश पुरी जैसी आवाज़ में पूछा. लंबी कद-काठी, रौबदार मूंछ और अमरीश पुरी जैसी आवाज़ के साथ-साथ वह “परशुराम” की तरह गुस्सैल भी है. मैंने झूठ बोलना मुनासिब नहीं समझा और उसे सारी बात बता दी.

“तो इसके लिए तुम्हे छुट्टी लेने की क्या जरूरत? उसे साथ लेते आओ. अगर वह एक छोटा सा इम्तिहान पास कर ले तो उसे यहीं रख लेंगे.”

बस तीन घंटे और मौनी एक अजनबी सहयात्री की जगह अब मेरी सहकर्मी थी, वो भी पिछले वेतन से तीन सौ की बढ़ोत्तरी के साथ! उसका दुःख दूर कर मुझे एक अजीब सा सुकून मिला. आज रात मैं अच्छी नींद ले सकूँगा, एक अच्छा काम जो किया था मैंने.

 

                                                

3

रात के ग्यारह बज रहे हैं और मैं अभी-अभी घर लौटा हूँ. वाह! आज का दिन भी क्या दिन था, मेरी ज़िन्दगी का यादगार दिन! आज से ठीक एक माह पहले १० मार्च को मैं मौनी से पहली बार मिला था – ट्रेन में. वैसे देखा जाए तो उसे मिलना नहीं कहते. मैंने बस उसे पहली बार देखा था. भीड़ में गुम हो जाने वाली किसी भी साधारण लड़की की तरह ही थी वो, पर कोई तो बात थी उसमें कि मैंने सियालदह लोकल छोड़ कर हावड़ा लोकल का दामन थाम लिया था.

गर्मी के दिन तो सबके लिए परेशानी भरे होते हैं पर ये कलकत्ता की गर्मी भी न, यहाँ गर्मी से ज्यादा उमस आपकी जान ले लेती है. मैंने पंखा चला दिया. खिड़की खोलते ही हवा से ज्यादा बाज़ार का शोर अंदर आने लगा. वैसे तो मुंबई के बारे में कहा जाता है कि ये शहर कभी नहीं सोता, लेकिन मैं कहता हूँ कि आप एक बार कोलकाता आ कर देखो, ये शहर भी नहीं सोता है. पसीने से तर शर्ट खूंटी पर टंगा फड़फड़ा रहा है, बिल्कुल मेरे विचारों की तरह. यादों के रेले, समुन्दर की लहरों की तरह, उठते हैं, एक दूसरे में उलझते हैं और किनारे आ कर दम तोड़ देते हैं. उनमें उलझा मैं, अपने आप में खोया हुआ, कभी मुस्कुराता हूँ, कभी गुम हो जाता हूँ.

आज पगार-दिवस था. हर नौकरी-पेशा को इस दिन संकट-मोचक श्री (लक्ष्मी) के दर्शन होते हैं. मौनी को भी आज पहली तनख्वाह मिली थी. “अमरीश पुरी” ने हम दोनों को आधे दिन की छुट्टी अपने दायित्व पर दे दी थी, इस हिदायत के साथ कि छुट्टी से एक घंटा पहले आ कर दस्तख़त कर देना तो पूरे दिन की हाज़िरी दे दूंगा. मैंने मन-ही-मन सोचा – ये अमरीश पुरी आज आलोक नाथ कैसे बन गया? पर मुझे क्या? वैसे भी, इंसान को अपने काम से काम रखना चाहिए.

एक बजे मैं और मौनी साथ निकले. हमारे ऑफिस के नीचे ही एक सड़क-छाप ढाबा है जहाँ हम सब खाना खाते हैं. आज हम दोनों आगे बढ़ कर एक रेस्त्रां में घुस गए. दाल-लुची खाते हुए मैंने मौनी से कहा –

“मौनी, बहुत दिनों से तुमसे एक बात कहना चाहता था.”

“हाँ, तो बोलो न.”

“मुझसे...” मैं ठिठका.

“मुझसे शादी करोगी?”

उसने कोई जवाब नहीं दिया. बस अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखती रही. मुझे लगा कि शायद मैंने कुछ गलत तो नहीं पूछ लिया. बैरा बिल लेकर आया तो उसने अपने हिस्से के पैसे देने के लिए पर्स का मुहँ नहीं खोला. मैंने इसे ही उसकी मौन स्वीकृति समझा. वहाँ से जब हम निकले तो उसने धीरे से मेरा हाथ थाम लिया. ये उसकी स्वीकृति की पूर्णता थी. हाथों में हाथें डाले हम बेवजह इधर-उधर घूमते रहे. जब थक गए तो पार्क की बेंच ने हमें सहारा दिया.

“मौनी...”

“हूँ....”

“एक बात कहूँ....”

“हूँ...”

“जब तुमने पैसे नहीं दिए, तभी मैं समझ गया कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो.”

“इसका क्या मतलब?”

“कुछ नहीं, बस ऐसे ही...”

“ऐसे ही, कैसे ही? तुम कहना क्या चाहते हो?” उसका स्वर तेज हो गया.

“अरे बाबा कुछ भी नहीं कहना चाहता हूँ.” मैंने हथियार डालते हुए कहा.

“तुम मर्दों को औरतों का फायदा उठाना खूब आता है. जरा सी मदद क्या कर दी कि समझने लगे कि औरत उनकी गुलाम हो गई.”

“अब इसमें फायदा उठाने की बात कहाँ से आ गई?”

“कैसे नहीं आई? अगर तुम मेरी मदद नहीं करते तो तुम्हारी हिम्मत थी मुझे शादी के लिए पूछने की? बोलो... चुप क्यों हो?”

“तुम गलत समझ रही हो...”

मैं जितना समझाता, बात उतनी बिगड़ती जाती. हार कर मैंने चुप रह जाना ही श्रेयस्कर समझा. मेरी चुप्पी ने उसकी बौखलाहट बढ़ा दी. अगल-बगल से गुजरने वाले अब हमें तमाशा समझने लगे थे. मेरा संयम भी अब जवाब देने लगा था. फिर भी मैंने बात तो सँभालने के लिए मजाक किया -

“तुम्हारे माँ-बाबा ने बेकार ही तुम्हारा नाम मौनी रखा. तुम्हारा नाम तो बक-बक रखना चाहिए था.”

“देखो... मेरे माँ-बाबा को बीच में लाया तो अच्छा नहीं होगा.”

इसके बाद तो जो तू-तू मैं-मैं का सिलसिला शुरू हुआ कि मेरी चीख और उसके आँसू पर जा कर थमा. वो जा चुकी थी और मैं दोनों हाथों से अपना सर पकड़े पार्क की बेंच पर बैठा अपने आँसू छिपाने की कोशिश कर रहा था. मेरी प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो चुकी थी.

मैं जी भर के रोया. मन हल्का हुआ तो अन्दर से आवाज़ आई – वो तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती. वो जाना चाहती है. उसे रोको मत, जाने दो.

मन फैसला कर चुका था. मैं उठा, हाथ-मुहँ धोये, मुस्कुराया और ऑफिस की ओर यूँ चल दिया मानो कुछ हुआ ही न हो. अन्दर घुसते ही परशुराम सर के अर्दली ने आकर खबर की कि साहब बुला रहे हैं. मन में कई तरह के विचार उमड़ने लगे. कहीं मौनी ने मेरी शिकायत तो नहीं कर दी. दुनिया भी बड़ी अजीब है, जिसकी मदद करो वही आपकी कब्र खोदने में लग जाता है. खैर, जब तीर कमान से निकल चुका हो तो पछता कर भी क्या फायदा?

अन्दर घुसते ही परशुराम सर ने बड़े प्यार से मुझे बिठाया और कहा –

“बेटा कुलंजन...”

“सर मेरा नाम मनोरंजन है, कुलंजन नहीं.” मैंने विरोध किया.

“इसलिए पूरी दुनिया का मनोरंजन कर आये?”

मैं समझ गया कि जरूर मौनी ने नमक-मिर्च लगा कर “अमरीश पुरी” से मेरी शिकायत की है. मुझे ऑफिस से निकाले जाने का उतना डर नहीं था जितना पुलिस-केस होने का था. मैं अन्दर ही अन्दर सिहर गया. हे भगवान! अब क्या होगा. फिर भी मैंने परशुराम सर को बीते एक महीने की सारी बातें तफ्सील से बता दीं. वे मुस्कुराये. फिर हँसे. फिर ठहाके लगाने लगे. उन्होंने अर्दली भेज मौनी को बुलाया. जब वो आई तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखें सूजी हुई सी लग रही थीं. उसके व्यवहार ने एक बात तो साफ़ कर दी थी – उसने मेरी शिकायत नहीं की थी. सर के सामने वो सर झुकाए खड़ी रही. उन्होंने उससे उपस्थिति-पुस्तिका पर हस्ताक्षर करवाए और कहा –

“मौनी बेटा, आज की तुम्हारी छुट्टी. घर जाओ, आराम करो.”

मौनी ने सर को देखा, मुझे देखा और केबिन से निकल गई. सर अब मुझसे मुखातिब थे.

“तेरी बहुत इज्ज़त करती है. शायद प्यार भी करती है. उसे रोको, मत जाने दो.”

मैं समझ चुका था कि मुझे क्या करना है. उसके माँ-बाबा का आशीर्वाद लेकर जब मैं रात की साढ़े-दस की लोकल पर सवार हुआ तो लगा कि रिश्तों के मायने बदल गए हैं. मुझ अनाथ को एक परिवार मिल गया था. नींद कह रही है कि जल्दी सो जाओ. कल एक नई सुबह आने वाली है.

 

  

Thursday, June 23, 2016

The better way

Keep looking for it
And never say "NAY",
Just remember there is
Always a better way.

Better than how you were
Doing it till now,
Observe it, and change it
You'll surely say "WOW!"

Monday, May 30, 2016

मातृभारती निबंध-लेखन प्रतियोगिता के परिणाम

मातृभारती द्वारा आयोजित निबंध-लेखन प्रतियोगिता के विजेताओं में शुमार होना मेरे लिए आप सभी पाठकों का आशीर्वाद है। अपना स्नेह यूँ ही बनाए रखेंगे, यही आकांक्षा है। 

Matrubharti Essay contest 2016 winners


 लेख प्रस्तुत है:

कहते हैं कि ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो सबसे अंत में अपनी सबसे खूबसूरत चीज़ बनाई – इंसान! उसने हमें न सिर्फ सुंदर शरीर दिया बल्कि विचारवान होने हेतु तर्क-शक्ति-संपन्न एक मष्तिष्क भी दिया. हमारी बुद्धि हमें शुष्क न बना दे इसलिए हमारे अन्दर भावनाओं का सागर, “हमारा मन” बनाया. आदमी आदमी इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर आदमियत है, इंसानियत है. इसके बिना मनुष्य और पशु में क्या भेद? प्रेम हमारे मौलिक और शाश्वत गुणों में से एक है. संत-कवि कबीरदास जी कहते हैं -

जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. यह सत्य है कि व्यक्ति से ही परिवार और समाज का निर्माण होता है, किन्तु यह भी एक अटल सत्य है कि परिवार और समाज ही वो कुम्हार हैं जो व्यक्ति रूपी घड़े को आकार देने का काम करते हैं. किसी भी व्यक्ति के विकास में पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक परिस्थितियों का जबरदस्त योगदान होता है. हम अपने जीवन-काल में अनेक रिश्तों का सानिद्ध्य प्राप्त करते हैं. उनमें से कुछ प्राकृतिक यानि ईश्वर-प्रदत्त होते हैं. एक व्यक्ति के रूप में हम उनका चुनाव नहीं कर सकते हैं. इनमे सर्वोपरि है माता-पिता का रिश्ता. कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपनी मनमर्जी से चुनते हैं. इनमे हमारे मित्र और हमारा जीवन-साथी अहम् हैं.

विश्व के लगभग सभी संस्कृतियों में विवाह का बड़ा महत्व है. यूँ तो कहा जाता है कि विवाह दो दिलों का मेल है किन्तु सत्य यही है कि विवाह एक सामाजिक संस्था है. ये दो दिलों से ज्यादा दो परिवारों का मेल है. आप चाहें तो ये भी कह सकते हैं कि विवाह मूलतः स्त्री-पुरुष के बीच एक मैत्री-संधि है. विवाह की संस्था वह नींव का पत्थर है जिस पर परिवार और समाज नाम की संस्थाएँ खड़ी हैं. विवाह की संस्था अगर सफलतापूर्वक संचालित हुई तो परिवार और समाज अपने-आप ही प्रगति करेंगें, ये अवधारणा विवाह-संबंधों को व्यक्तिगत संबंध नहीं रहने देती. परिवार और समाज का भरपूर, या यों कहें कि कभी-कभी आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप व्यक्तिगत संबंधों में उदासीनता लाता है. स्थिति बिगड़े तो बात हाथ से निकल जाती है. इसका एक दूसरा पहलू भी है. पारिवारिक और सामाजिक बंदिशों के कारण अक्सर युगल छोटी-मोटी बातों को विस्तार नहीं देते. कई बार रिश्तों को थामे रखने में इसका बड़ा योगदान होता है. अक्सर स्त्री-मुक्ति के पक्षधर ये तर्क देते हैं कि तमाम वर्जनाओं का खामियाजा अगर किसी को उठाना पड़ता है तो वे स्त्रियाँ हैं. अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि उनके तर्कों में काफ़ी वजन है.

अब सवाल ये उठता है कि क्या विवाह नाम की संस्था वक़्त के साथ अपना औचित्य खोती जा रही है? क्या परिवार और समाज के नाम पर व्यक्ति को अपनी खुशियाँ कुर्बान कर देनी चाहिए? क्या व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अपने जीवन जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए? तमाम तरह की नैतिकताओं का बोझ ढोती विवाह की संस्था आधुनिक युग में अपनी बेड़ियाँ तोड़ने को आतुर दीखती है. “कन्यादान” को लैंगिक भेद-भाव से जोड़ कर देखा जा रहा है. आधुनिक युवा पश्चिमी सभ्यता की तर्ज़ पर विवाह-पूर्व समन्वय को तरजीह देता दीख रहा है. प्राचीन भारतीय संस्कृति के पक्षधर “स्वयंवर” प्रथा की वकालत करते हुए ये बताने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को अपने “वर” के वरण का अधिकार होना चाहिए. एक अहम् सवाल जो बार-बार उठाया जाता है, वह यह है कि - प्रेम-विवाह या वैवाहिक प्रेम?

प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर विश्व की हर भाषा में बहुत कुछ लिखा जा चुका है किन्तु प्रेम खुद ऐसी भाषा है जो आँखों से कही और मन से पढ़ी जाती है. प्रेम ऐसा शब्द है जिसकी व्याख्या असंभव है. हाँ, एक बात है जिससे सब इत्तेफ़ाक रखते हैं -
प्रेम-पियाला जो पिए, सीस दक्षिणा देय ।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।।
और
ये इश्क़ नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है ।

प्रेम में पड़े व्यक्ति को पागल कहा जाता है. कहते हैं कि प्रेम में इतनी ताक़त है कि काल को मोड़ दे. हम सबने सावित्री की कहानी पढ़ी है. उनके प्रेम में इतनी शक्ति थी कि यमराज को भी हार मान लेना पड़ा. प्रेम वह अद्भुत एहसास है जो व्यक्ति में जीवन जीने की चाहत पैदा करता है. किन्तु क्या यह आवश्यक है कि विवाह के लिए प्रेम होना ही चाहिए? क्या विवाहोपरांत प्रेम असंभव है?

यहाँ पर आवश्यक हो जाता है कि हम स्त्री और पुरुष के कुछ मूल मानविक गुणों की बात करें. नारी-मन संबंधों में स्थायित्व खोजता है, स्थिरता चाहता है. इसके उलट पुरुष अधिकतर लक्ष्य-प्रेरित होते हैं. एक के बाद एक जीवन-लक्ष्यों का पीछा करते-करते वे थोड़े रूखे हो जाते हैं. प्रकृति ने स्त्रियों को माता बनाने का सौभाग्य दिया. वे जीवन धारण कर सकती हैं, उसका पालन-पोषण कर सकती हैं. इन सबके साथ प्रकृति ने उन्हें एक और शक्ति प्रदान की है. स्त्रियों में यह नैसर्गिक क्षमता होती है कि वे अपने भावी जीवन-साथी का आकलन अपने प्रेमी से ज्यादा अपने बच्चों के सफल और सक्षम पिता के रूप में करती हैं. अगर नैसर्गिक चयन के सिद्धांत के हिसाब से चलें तो साथी के चयन का विशेषाधिकार स्त्रियों के पास है.

अब यहाँ दो बातें आती हैं – चुनाव का अधिकार और चुनाव कर सकने की योग्यता. वर्तमान परिपेक्ष्य में भारतीय समाज विवाह योग्य लड़के-लड़कियों को सहचर चुनने का अधिकार नहीं देता है. अधिसंख्य मामलों में परिवार और समाज अपनी मान्यताओं और वर्जनाओं के हिसाब से वैवाहिक संबंध तय करता है. आज के युवा इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन मानते हैं. प्रेम विवाह अभी भी भारतीय समाज में एक वर्जित विषय है. हालाँकि हाल के दिनों में इसमें बढ़ोत्तरी हुई है पर अब भी इसे पूर्ण-स्वीकृति नहीं है. देश के कई हिस्सों में हालात यहाँ तक ख़राब हैं कि प्रेम-विवाह करने वाले युगलों की हत्या तक कर दी जाती है.

मान लिया जाए कि आपको विवाह हेतु साथी का चयन करने का अधिकार मिल जाये तो क्या आप तब तक इंतज़ार करेंगे जब तक आपको स्वमेव प्यार नहीं हो जाता? या फिर आप प्यार करने का प्रयत्न करेंगे? जब आपको यकीन हो जाएगा कि प्यार हो गया है, तब आप विवाह करेंगे? यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि प्रेम उपजा नहीं, उसे प्रयत्न कर उपजाया गया है. इस प्रतिपादित प्रेम पर आश्रित विवाह क्या आदर्श-विवाह कहलायेगा?

यहाँ मैं दो और ताकतों की बात करना चाहूँगा जो विवाह-पूर्व प्रेम को प्रभावित करती हैं. प्रथम है व्यक्ति पर समकक्षों का मानसिक दबाव. आज-कल प्रेम एक फैशन बन गया है. अपने समकक्षों में सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ाने, उनके बीच अपनी सामाजिक हैसियत ऊँचा रखने की चाहत लोगों को प्रतिपादित प्रेम की ओर धकेल रही है. दूसरी है बाज़ार की ताक़त. यह प्रेम की नित नई परिभाषाओं, प्रेरणाओं और प्रयोजनों को लेकर हमारे सामने उपस्थित होता रहता है. ये बताता है कि अगर आप अपनी प्रेमिका को फलां बाइक या कार पर “लॉन्ग ड्राइव” पर नहीं लेकर गए या फिर उसे फलां आइसक्रीम या चॉकलेट नहीं खिलाई या फिर फलाने ब्रांड की सोने या हीरे के जेवर नहीं दिए तो आपका प्रेम प्रेम है ही नहीं. ऐसा नहीं है कि बाज़ार सिर्फ प्रेम को अपना लक्ष्य बनाता है. वैवाहिक-प्रेम भी उसकी पहुँच में है. वह बताता है कि “जो बीबी से करे प्यार, वह फलां ब्रांड से कैसे करे इनकार?”.

हम सबने उन अंधों की कहानी सुनी और पढ़ी है जो ये जानना चाहते थे कि हाथी कैसा होता है. जिसने पैर छुए, उसने बताया कि हाथी खंभे जैसा होता है. जिसने कान छुए, उसने बताया कि हाथी सूप जैसा होता है और जिसने उसकी पूँछ पकड़ी, उसने बताया कि हाथी रस्सी जैसा होता है. अपनी-अपनी जगह वे सभी सही थे लेकिन समग्रता में देखें तो सभी गलत थे.

प्रेम के बाद विवाह या विवाह के बाद प्रेम, ये बहस बेमानी है. सितार के तारों को ज्यादा कस दें तो वो टूट जाता है और ढीला छोड़ दें तो उससे आवाज़ नहीं आती. अगर मधुर संगीत चाहिए तो तारों का समुचित कसा होना अति-आवश्यक होता है. विवाह एक प्रतिज्ञा है जो आप साथी से नहीं बल्कि खुद से करते हैं. आप कहते हैं कि चाहे कुछ हो जाए, मैं इसका साथ निभाऊंगा. क्या यही प्रेम नहीं? सही समन्वय, सम्यक व्यवहार रहे तो ये मायने नहीं रखता कि आपने प्रेम करके विवाह किया या विवाहोपरांत प्रेम किया. प्रेम करना इंसान की पहचान है. जब तक निष्काम, निश्छल प्रेम है, हर संबंध मधुर है और ये धरती ही आपके लिए स्वर्ग है.


आप सबों का पुनः धन्यवाद। 



Thursday, May 12, 2016

गोधूलि की बेला आई

भुवन भास्कर अपने रथ पर
बढे जा रहे पश्चिम पथ पर।
नभ में कैसी लाली छाई!
गोधूलि की बेला आई ।।

पंछी लौट रहे वृक्षों पर
करते कलरव समवेत स्वर।
कोयल ने भी कूक सुनाई!
गोधूलि की बेला आई ।।

गायों को दे सानी-पानी
चौपालों पर चले कहानी।
गाँव में कैसी रौनक छाई!
गोधूलि की बेला आई ।।

गृहणी हर कमरे में जाकर
घर के सारे दीप जला कर।
कहे कि बच्चों करो पढ़ाई!
गोधूलि की बेला आई ।।

Friday, April 29, 2016

हिमालयन बर्ड के साथ दार्जीलिंग में हमारा आखिरी दिन

  
आज दार्जीलिंग में हमारा तीसरा दिन है. हमारे यात्रा-कार्यक्रम में अब तीन चीज़ें शेष हैं – थ्री पॉइंट टूर, रॉक गार्डन और गंगा-माया पार्क तथा दार्जीलिंग का गौरव – हिमालयन रेल की सवारी! टाइगर-हिल जाने वाले पर्यटक परंपरागत तौर पर अल-सुबह पहुँच, वहाँ से कंचनजंगा की चोटियों को भुवन-भास्कर की प्रथम किरणों से सुनहरा होता देखने का अलौकिक सुख पाते हैं. चूँकि ठंड भी ज्यादा थी और धुंध भी, तो हमने यह तय किया कि हम नाश्ते के बाद टाइगर-हिल चलेंगे. हमारे कहे अनुसार संजोक अपनी सूमो के साथ साढ़े-आठ बजे से पहले ही हाज़िर था. हमें देखते ही उसने सुप्रभात कहा. मैंने महसूस किया कि वह कल की अपेक्षा आज थोड़ा खुश है.
Darjeeling Driver Sanjok
हमारा ड्राइवर संजोक

टाइगर-हिल की ओर जाने का रास्ता “घुम” होकर जाता है. जब हम वहाँ से आगे बढे तो बहुत तेज़ी से आबादी कम होने लगी और रास्ते की चढ़ाई सीधी होने लगी. घने जंगलों में टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर शायद हम अकेले ही जा रहे थे. इतने में मुझे एक औरत एक छोटी बच्ची के साथ जाती दिखाई दी. मैंने संजोक से पुछा – क्या इधर भी लोग रहते हैं? उसने मुझे बताया कि आगे एक मंदिर है. जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है, वो देवी का दर्शन करने पैदल ही आते हैं. इतने में मुझे उस बच्ची के पिता दिखाई दिए जो आगे निकल गए थे और हमारी गाड़ी की आवाज़ सुन, एक किनारे खड़े हो अपने परिवार को आता देख रहे थे. टाइगर-हिल व्यू-पॉइंट से कुछ पहले हमें एक मंदिर दिखाई दिया. यहाँ कुछ गाड़ियाँ खड़ी थी. कुछ लोग मंदिर में थे.

Temple at Tiger Hill, Darjeeling
टाइगर-हिल पर स्थित मंदिर

Ticket counter at Tiger Hill, Darjeeling
टाइगर-हिल  का टिकट काउंटर


आगे एक बैरियर था जहाँ से हमें टिकट लेना था. यहाँ प्रति व्यक्ति टिकट की दर दस रूपए थी. हमें गाड़ी के साथ आगे जाने दिया गया. हम मोड़ से आगे बढे तो देखा कि वहाँ एक व्यू-टावर था जिसे तोड़ दिया गया था. वहाँ एक सज्जन मिले जो साफ-सफाई में लगे थे. उन्होंने बताया कि यहाँ नया टावर बनेगा. चूँकि अब टावर नहीं था, अतः नीचे से देखने के टिकट के तौर पर दस रूपए लगे. असमान नीला तो था लेकिन पूरी तरह साफ़ नहीं था. कंचनजंगा की चोटियाँ नीले आकाश में हल्की परछाई की तरह नज़र आ रही थी. हमने काफी कोशिशें कीं कि उसकी छवि कैमरे में कैद कर लें लेकिन असफल रहे.
Gorkha Football stadium from Tiger Hill
टाइगर-हिल से दिखाई देता गोरखा स्टेडियम

The dismantled observatory at Tiger Hill, Darjeeling
टाइगर-हिल का टूटा ऑब्जर्वेटरी

भले ही हम कंचनजंगा के वृहद् रूप में दर्शन न कर सके हों पर टाइगर-हिल से दार्जीलिंग शहर का नज़ारा अद्भुत था. गोरखा फुटबॉल स्टेडियम तो यहाँ से साफ़ नज़र आ रहा था. दायें देखो या बाएँ, हर ओर सिर्फ और सिर्फ हरियाली. आसमान को छूते करीब-करीब निर्जन से इस वन-प्रदेश के शिखर पर खड़ा होना ही अपने-आप में एक आध्यात्मिक अनुभव था.  

The entrance to Ghum Monastery, Darjeeling
डनगौन सामतेन चोलिंग मोनेस्ट्री या घूम मोनेस्ट्री का द्वार

The building of the Ghum Monastery, Darjeeling
घूम मोनेस्ट्री का भवन


हमारा अगला पड़ाव था – घूम मोनेस्ट्री. घुम रेलवे स्टेशन से थोड़ा ही आगे जाने पर मुख्य सड़क पर ही स्थित है - डनगौन सामतेन चोलिंग मोनेस्ट्री. इसे ही स्थानीय लोग घुम मोनेस्ट्री कहते हैं. इस मठ की मुख्य ईमारत सड़क के तल से थोड़ा नीचे है. सीढियाँ उतर कर जब हम नीचे पहुंचे तो देखा कि वहाँ गहरे मैरून रंग के वस्त्र धारण किए कुछ बच्चे खेल रहे हैं. हमने उनसे बात करने की कोशिश की लेकिन वे न तो हिंदी, न अंग्रेजी और न ही बांग्ला समझते थे. मेरे हर सवाल के जवाब में वो एक-दूसरे को देखते और हंसने लगते. फिर उनमें से एक ने चिल्ला कर एक नौजवान को बुलाया. मैंने उससे भी बात करने की कोशिश की लेकिन नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात! हार कर हमने तय किया कि हमलोग खुद ही मंदिर के अंदर-बाहर घूम लेते हैं.



अगर हम हौले से इतिहास की ओर देखें तो पाते हैं कि धार्मिक स्थल दरअसल ज्ञान का केंद्र हुआ करते थे. हिन्दू मंदिरों में अनेक प्राचीन पांडुलिपियाँ हैं जो समकालीन इतिहास और साहित्य अपने अंदर समेटे हुए हैं. ठीक इसी प्रकार बौद्ध-मठों में ज्ञान का अकूत भण्डार छिपा है. ज्ञान का ये खज़ाना सिर्फ किताबों या पांडुलिपियों की शक्ल में नहीं होता है. कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कूट-चिन्हों के सहारे दर्ज रहते हैं. पूजा और जीवन जीने में काम आने वाली अनेक विधियाँ श्रुति रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती हैं. इसी प्रकार इस मंदिर में भी ज्ञान के अनेक आयामों का समावेश है. चूँकि हम संवाद कायम कर पाने में असफल रहे थे, यहाँ उपलब्ध किताबों और अन्य दस्तावेजों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिल सकी. हाँ, इतना तो हम समझ ही गए थे कि यहाँ कई विद्यार्थी धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. आस-पास उनके रहने और खाने की व्यवस्था थी. इसे सीधे शब्दों में कहें तो वहाँ एक हॉस्टल था. मंदिर के अन्दर बुद्ध की स्वर्णिम-प्रतिमा थी. मंदिर की आतंरिक दीवारों पर भित्ति-चित्र बने थे. अंग्रेजी में इसे mural कहते हैं. इन चित्रों में अनेक धार्मिक प्रकरण उद्धृत थे. अंतःस्थल में माहौल अत्यंत शांत और मन को सुकून देनेवाला था. हम अपने स्तर से चीज़ों की व्याख्या-विवेचना करते वहाँ से निकल आये. बाहर आकर यह महसूस हुआ कि कितना ही अच्छा होता यदि मठ की ओर से किसी ज्ञानी व्यक्ति को वहाँ की जानकारी देने हेतु नियुक्त कर दिया जाता.

सुबह के दस बजने को हैं और अब हम बतासे लूप के टिकट-काउंटर पर खड़े हैं. ये दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे का एक लूप है जहाँ ट्रेन को तीव्र रैखिक चढ़ाई चढ़ने के बजाय एक गोलाकार चक्कर घुमाकर उसे तेज़ी से ऊंचाई प्रदान की जाती है. 1881 में अपनी स्थापना के बाद से ही पहाड़ों की तीव्र-चढ़ाई रेलों के लिए एक समस्या थी. 1890 में इस लूप को डिजाईन कर इस समस्या का समाधान किया गया. फिर 1995 में यहाँ के बहादुर शहीद सैनिकों के सम्मान में यहाँ एक “युद्ध-स्मारक” की स्थापना की गई. स्मारक के अन्दर प्रवेश के लिए प्रति-व्यक्ति पंद्रह रूपए के टिकट का प्रावधान है. अंदर प्रवेश करते ही एक पुलिया है जिसके नीचे से दार्जीलिंग से आ रही ट्रेन गुजरकर सामने के पुल से होती घुम स्टेशन को रवाना हो जाती है. आज ये बात हमें भले ही अति-साधारण लगे लेकिन इस विचार को अमलीजामा पहनाने में तब के अभियंताओं-तकनिशियनों को कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे, हमें ये अवश्य ही सोचना चाहिए.

जब हम पुलिया से अंदर गए तो हमारा साक्षात्कार करीने से की गई बागवानी पर गया. लूप की गोलाई के केंद्र में “युद्ध-स्मारक” स्थित है. ये त्रिभुजाकार स्तंभ ऊपर की ओर बढ़ते हुए पतला होता जाता है. इसके शीर्ष पर एक पिरामिडनुमा आकृति है. इसके बगल में उलटी बंदूक पकड़े एक सिपाही अपने शहीद साथियों की याद में सर झुकाए खड़ा है. राष्ट्र के लिए हँसते-हँसते मौत से खेल जाने वाले वीरों को हर आने-जाने वाला अपनी श्रधांजलि दे रहा था. सीढ़ियों के पास शान से फहराता तिरंगा वीरता-अमन-प्रगति का संदेश दे रहा था. मुझे ऐसा लग रहा था मानो वे वीर सिपाही स्वयं अपने हाथों से वहाँ तिरंगा लगा ये कह रहे हों –

कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

हम रेल की पटरियों के किनारे-किनारे लूप का चक्कर लगा कर नजारों का आनंद लेने लगे. यहाँ घूमते-घूमते अगर आप थक जाएँ तो बैठने के लिए अनेक बेंच हैं. लूप के एक किनारे हमें दो दूरबीन वाले मिले. तीस रूपए प्रति-व्यक्ति की दर से वे वहाँ से दार्जीलिंग शहर का नज़ारा दिखाते हैं. वैसे तो वहाँ से दूरबीन से देखने लायक कुछ ख़ास नहीं था फिर भी हमने इस का आनंद लिया. अगर दिन साफ़ होता तो दूरबीन से शायद हम कंचनजंगा को और पास से देखने का लुत्फ़ उठा पाते, पर ऐसा था नहीं. बहरहाल, तस्वीरें लेते-लेते कब पैंतीस-चालीस मिनट बीत गए, हमें पता ही नहीं चला. थ्री-पॉइंट टूर के तीनों स्थल का हम भ्रमण कर चुके थे. अब बारी थी रॉक-गार्डन चलने की.

लूप से जब हम चले तो ड्राईवर ने एक बायाँ मोड़ लिया. उसके बाद तो जैसे हमारी साँसे ऊपर-की-ऊपर और नीचे-की-नीचे रह गईं. रास्ता एक अनवरत ढलान था जो कहीं तीस डिग्री तो कहीं-कहीं पैंतीस-चालीस डिग्री तक का था. बस्तियों के बीच के संकरे रास्तों से गुजरते हुए हम जल्दी ही खुले में आ गए. अब हमारे चारों ओर चाय के बागान थे पर सड़क की ढ़लान अब भी डरावनी ही थी. चारों ओर दूर तक फैली पहाड़ों की श्रृंखलाएँ दूर नीले गगन में कहीं खो सी जा रही थीं. गहरी घाटियों में जहाँ-तहां कुछ घर दिख रहे थे. शायद वहाँ कोई बस्ती होगी. हम बड़ी तेज़ी से नीचे उतर रहे थे. कुछ ही मिनटों में हमें रॉक-गार्डन का प्रपात नज़र आने लगा. इसके बाद चाय के बागान ख़त्म हो गए और घने जंगलों से हमारा सामना हुआ. हमें बतासे-लूप से रॉक-गार्डन आने में कोई बीस मिनट लगे होंगे.   


जब हमने रॉक-गार्डन में प्रवेश किया, तब सुबह के ग्यारह बज रहे थे. चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा ये बागीचा दरअसल एक पहाड़ी झरने के इर्द-गिर्द विकसित किया गया है. प्रवेश-शुल्क दे कर हम जैसे ही अन्दर घुसे, कल-कल ध्वनि से नीचे उतरते झरने ने हमारा स्वागत किया. यहाँ काफी भीड़ जमा थी, अन्दर जानेवालों की भी और वापस लौटने वालों की भी. हमने आगे बढ़ जाना ही मुनासिब समझा. कदम-दर-कदम चट्टानों के दरम्यां की गई बागवानी और कलाकारी हमारे कदमों को मानो थाम ले रही थी. चलते-चलते हम प्रथम तल तक आ पहुंचे. यहाँ काफी बड़ा चबूतरा बना था जहाँ बैठने का इन्तजाम था. यहाँ कुछ फोटोग्राफर्स भी थे जो पर्यटकों को पारंपरिक पोशाकों में तस्वीरें खिंचवाने के लिए प्रेरित कर रहे थे. यहाँ से दो रास्ते थे, दाहिना रास्ता झरने की दिशा में ऊपर ले जा रहा था जबकि बायाँ रास्ता पत्थरों और चट्टानों के मध्य स्थित तीन तलों वाले बगीचे की ओर ले जा रहा था. हमने झरने की ओर जाना तय किया.

झरने के किनारे-किनारे कभी दायें तो कभी बायें जाते रास्तों और पुलों से होते हुए हम अनेक तल चढ़ते हुए काफी ऊपर तक आ गए. जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते, लोगों की संख्या कम होती जाती. आखिरी पड़ाव तक तो सिर्फ हम लोग ही पहुंचे. ऊपर से नीचे देखने पर लोग चींटियों के तरह नज़र आ रहे थे. हमने कुछ तस्वीरें खींची और उतर गए. अब बारी थी दूसरी ओर जाने की. अजब-गजब चट्टानी कलाकृतियों के बीच करीने से सजाया गया उपवन नयनाभिराम दृश्य पेश कर रहा था. ये एक ऐसी जगह है जहाँ आपके पैर कहेंगे – “अब और नहीं” किन्तु दिल कहेगा – “बस अगला तल देख लेते हैं”. अगर थक जाएँ तो भी परवाह नहीं. यहाँ कदम-कदम पर पर्यटकों के विश्राम के लिए बैठने की व्यवस्था है. हाँ, एक बात का ध्यान अवश्य रखें – पीने का पानी साथ जरूर रखें. एक बार आप अन्दर गए तो फिर कुछ नहीं मिलेगा. हम यहाँ काफी समय भी बिता चुके थे और दो अलग-अलग रास्तों की चढ़ाई ने हमें थका भी दिया था. हम बाहर आ गए. हमें भूख भी लग आई थी, तो पास के ही एक होटल से हमने गरमा-गर्म मोमो खाया. यहाँ हमें पता चला कि गंगा-माया पार्क और नीचे है और रास्ते में कुछ काम चल रहा है. अभी पौने-एक बज रहा था और हमें एक-बीस की टॉय-ट्रेन में भी जाना था. तो हम वापस चल दिए. एक बात तो मैं समझ ही गया, अगर रॉक-गार्डन और गंगा-माया पार्क अच्छे से घूमना हो तो आपको कम से कम चार घंटों का समय लेकर चलना चाहिए.

जब हम दार्जीलिंग स्टेशन पहुंचे तो देखा कि 52548 जॉय राइड प्लेटफार्म पर लगी थी. हमने उसके ड्राईवर से बात की. उन्होंने बताया कि ये इंजन अंग्रेज़ ले कर आये थे. तब से अब तक ये अपनी सेवाएँ दे रही है. उन्होंने हमें इंजन का बायलर दिखाया. ये छोटा था. उन्होंने बताया कि बायलर छोटा होने की वजह से हमें बीच में रुक कर पानी भरना होता है. ट्रेन के खुलने का समय हो चला था. कोच अटेंडेंट ने घोषणा की कि यात्री अपनी सीट पर बैठ जाएँ. आज की ट्रेन में सिर्फ एक डब्बा जोड़ा गया था क्योंकि यात्रियों की संख्या कम थी. हम जा कर अपनी सीट पर बैठ गए. थोड़ी देर में कोयले के इंजन ने अपनी जानी-पहचानी आवाज़ में तेज़ सीटी दी. फिर धुएं और भाप की महक और गर्मी के एहसास ने हमें अपने बचपन में पहुंचा दिया. तब अधिकांश ट्रेने भाप के इंजन से चला करती थी. ट्रेन की खुली खिड़की से देखने का मतलब होता था इंजन के धुएं के संग उड़ते कोयले के बारीक कणों का प्रकोपभाजन बनना. आपके कपड़े काले पड़ जाते थे और तेज़ हवा और कोयले के कण बालों की तो ऐसी की तैसी कर देते थे.





ट्रेन ने धीरे से प्लेटफार्म का दामन छोड़ दिया और सफ़र पर आगे बढ़ चली. सड़क के किनारे-किनारे वाहनों संग दौड़ती ट्रेन राह चलते पर्यटकों के लिए कौतूहल का विषय थी. कई लोग अपने मोबाइल-फ़ोन से ट्रेन की तस्वीरें उतार रहे थे. जब-जब ट्रेन सड़क के दायें से बायें या बायें से दायें आती, सड़क पर चलते वाहन उसके लिए रुक जाते. मकानों, बाजारों और वाहनों की कतारों के बीच से होती ये टॉय ट्रेन छुक-छुक करती चली जा रही थी और हम नजारों का आनंद लेने में व्यस्त थे. आधे घंटे में हमारी ट्रेन बतासे-लूप पर थी. यहाँ पर हम दस मिनट के लिए रुकने वाले थे. अभी हम पहुंचे ही थे और ट्रेन के साथ तस्वीरें लेना शुरू ही किया था कि पीछे से आने वाली डीजल जॉय-राइड ट्रेन आ पहुंची. लगता है कि उसमे ज्यादा पर्यटकों ने टिकट लिया होगा तभी तो उसमे दो डिब्बे लगे थे. उसमे बैठे तमाम यात्री उतर कर हमारी ट्रेन के पास आ तस्वीरें लेने में लग गए. इस अफरातफरी में दस मिनट कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला.







हम यहाँ से चले तो सवा-दो बजे घुम स्टेशन पहुँच गए. आप कई जगहों पर लिखा पाएँगे कि घुम विश्व का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन है पर ये हकीकत नहीं है. हाँ, ये भारत का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन ज़रूर है. यहाँ एक रेल संग्रहालय है और एक छोटा सा पार्क है. संग्रहालय में दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे के इतिहास का गवाह रही कुछ वस्तुएँ और ढ़ेरों जानकारी है. यहाँ दस मिनट बिता कर हम पार्क गए. यहाँ कंचनजंगा का एक प्रतिरूप बना है जहाँ बच्चे अपनी तस्वीरें खिंचवा रहे थे. वैसे कुछ लोगों के लिए बचपन उम्र की मोहताज़ नहीं होती. उनका तो दिल बच्चा होता है! आधे घंटे के ठहराव के बाद जब हम यहाँ से चले तो इस बार बीच में गाड़ी कहीं नहीं रुकी. सिर्फ चालीस मिनटों की यात्रा में हम दार्जीलिंग स्टेशन पर थे.

यहाँ से हम सीधे होटल पहुंचे. दार्जीलिंग ऐसी जगह है कि आप जितना भी घूमो, आपका मन नहीं भरेगा. हम भी कोई अपवाद तो थे नहीं. सो, हम भी निकल पड़े चौरास्ता और मॉल रोड की सैर पर. आज की सैर का एक विशेष प्रयोजन ये भी था कि हम अपने प्रियजनों के लिए यहाँ से कोई निशानी ले लें. तो सैर-सपाटा और खरीदारी करते शाम के छः बज गए. ठंड बढ़ने लगी थी और हमारी खरीदारी पूरी हो चुकी थी. लिहाजा हम वापस चल दिए.


वापस आ कर याद आया कि कल सुबह-सुबह हमें न्यू-जलपाईगुड़ी के लिए निकल जाना है. मैं श्री प्रधान के पास गया और उनसे अनुरोध किया कि हमारा बिल बना दें ताकि सुबह हमें देर न हो. उन्होंने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया. मैंने पैसे चुकाए और उनका धन्यवाद किया. अब समय था कि हम अपना सामान समेट वापसी की तैयारी करें.
#Darjeeling #JoyRide #Kanchenjanga #TigerHill #Ghum


Wednesday, April 20, 2016

शहर की सैर : दार्जीलिंग में हमारा दूसरा दिन

सुबह के सात बजे हैं और ये दार्जीलिंग में हमारे दूसरे दिन की शुरुआत है. यूँ तो हमें आठ बजे तैयार रहने को कहा गया था किन्तु मैंने ड्राईवर को नौ बजे आने को कहा था. मुझे लगा था कि लंबी यात्रा की थकान से उबरने में थोड़ा समय तो लगेगा ही. आठ बजते-बजते नाश्ता भी तैयार हो गया. साढ़े-आठ बजे तक हम निकल पड़ने को तैयार थे. मैंने ड्राईवर को फ़ोन लगाने की कोशिश की मगर असफल रहा. घड़ी की सुइयाँ तेज़ी से नौ बजने की ओर बढ़ रही थी और न तो ड्राईवर का अता-पता था, न ही कोई फ़ोन लग रहा था. हार कर मैंने श्री बिजय रॉय को फ़ोन लगाया. हर दस मिनट में “बस पंद्रह मिनट में गाड़ी पहुँच जाएगी” के आश्वासन मिलते रहे. हमारा उत्साह अब खीज में बदलने लगा था. अपनी खीज निकालने के लिए “सेल्फी” से अच्छा और क्या हो सकता था?

Entrance to Alice Villa

Guest area of Alice Villa


दस बजने में कोई दस मिनट बचे होंगे कि संजोक (ड्राईवर) अपनी टाटा सूमो और कुछ बहाने लेकर हाज़िर हुआ. हमारा समय तो बर्बाद हो ही चुका था लेकिन हम अपना मूड ख़राब नहीं करना चाहते थे. मैंने सिक्किम ट्रेवल्स द्वारा दिए गए यात्रा-कार्यक्रम की प्रति निकाली और संजोक को बता दिया कि हमें इसमें लिखे सारे जगह एक-एक कर देखने हैं. मैंने आपको पहले ही बताया था कि दार्जीलिंग के टूर-ऑपरेटर तीन तरह के टूर कराते हैं –
“सेवेन पॉइंट टूर” जिसमे शामिल है – हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान और चिड़ियाघर, रंगीत-घाटी रोपवे, तेनजिंग और गोम्बू रॉक, चाय बागान, तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र, लेबोंग रेस कोर्स और अंत में गोरखा फुटबॉल स्टेडियम.  
“फाइव पॉइंट टूर” जिसमे शामिल है – जापानी मंदिर और शांति-स्तूप, लाल-कोठी, धीरधाम मंदिर, आभा आर्ट गैलरी और बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम.
“थ्री पॉइंट टूर” जिसमे शामिल है – टाइगर हिल, बतासिया लूप और घूम मोनेस्ट्री.
इन तीनों के अलावा हमारे करार में रॉक गार्डन और गंगा-माया पार्क भी शामिल थे.

तो संजोक यानि कि ड्राईवर ने कहा कि शुरुआत ज़ू से करते हैं. कोई दस मिनट में हम पद्मजा नायडू हिमालयन जूलॉजिकल पार्क के दरवाज़े पर थे. टिकटें चालीस रूपए प्रति व्यक्ति के दर से थीं और कैमरे के लिए दस रूपए अतिरिक्त लगे. हमने अन्दर जाने का टिकट लिया तो पता चला कि इसी टिकट पर हम हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट और संग्रहालय भी घूमेंगे .


Map of the Darjeeling zoo at its entrance
ज़ू के प्रवेशद्वार पर लगा मानचित्र


Map of zoo as in official website
चिड़ियाघर का आधिकारिक मानचित्र (ज़ू के वेबसाइट पर उपलब्ध) 


In the Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling


Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
अलसाया भालू 

Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
काला तेंदुआ (जंगल-बुक के बगीरा की याद आई?)

Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
खूबसूरत पुष्प 

Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling


Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling


Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
आराम फरमाता क्लाउडेड तेंदुआ 


Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
शाही चाल से टहलता तेंदुआ 



Padmaja Naidu Zoological Park, Darjeeling
शर्मीले याक 

अन्दर घुसते ही हमारा सामना धूप में अलसाये पड़े भालू से हुआ. पर्यटक उसे देख उत्साहित थे और हर कोई उसके साथ अपनी सेल्फी लेने को उतावला दिख रहा था और भालू भाई साहब इन सबसे बेपरवाह गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे. हम आगे बढ़ते रहे और एक-एक कर हमारा सामना हिमालयन भेड़िया, तेंदुआ, काला तेंदुआ, याक और बाघ जैसे जाने कितने ही जानवरों से हुआ. यूँ तो ज़ू यानि चिड़ियाघर लगभग हर बड़े शहर में पाए जाते हैं पर इस ज़ू की ख़ासियत मुझे ये लगी कि यहाँ हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले जानवर थे जो अमूमन और चिड़ियाघरों में नहीं पाए जाते. रास्ते में इस क्षेत्र की अनेक फूलों-वनस्पतियों की अनेक नई और रंग-बिरंगी किस्में देखने को मिली. आप कदम-दर-कदम बढ़ते जाते हैं और नए-नए अनुभव आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा बनते जाते हैं.

Himalayan Mountaineering Institute, Darjeeling
हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान


आगे बढे तो सामने लिखा था – May (you) climb from peak to peak.  ये हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान का प्रथम दर्शन था. आगे इस संस्थान का भवन था जहाँ इसका कार्यालय और कक्षाएँ थीं. यहाँ देश भर के पर्वतारोही प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु आते हैं. यहाँ के प्रशिक्षु रॉक क्लाइम्बिंग के अभ्यास के लिए निकट ही स्थित तेनजिंग और गोम्बू चट्टानों पर जाते हैं. इनके बारे में बाद में बताऊंगा. अभी तो सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हैं और चलते हैं संग्रहालय! दो तलों वाले इस संग्रहालय को देखने के बाद आपको हिमालय की विशालता, भव्यता, ताकत और कठोरता का अनुभव होता है. हमें ये एहसास भी होता है कि इंसान प्रकृति के सामने कितना तुच्छ, कितना बौना है. साथ ही ये विश्वास भी जगता है कि वह नर ही है कि जिसकी जिद्द और साहस के आगे हिमालय भी झुक जाता है. सच ही तो है –
मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है |

Himalayan Mountaineering Institute, Darjeeling
तेनज़िंग स्मारक 

जब हम बाहर आये तो 29 मई 1953 को एवरेस्ट पर तेनजिंग नोर्गे शेरपा के फतह की याद में बने स्मारक को देखा. इस स्मारक का लोकार्पण श्री तेनजिंग के साथ एवरेस्ट पर कदम रखने वाले सर एडमंड हिलेरी द्वारा किया 1997 में किया गया. यह निश्चित ही एक महान पर्वतारोही की अपने अनन्य सहयोगी को परम श्रद्धांजलि है.


Bengal Natural History Museum
बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम की नई इमारत

अब लौट चलने की बारी थी. रास्ते में हमने देखा कि इस चिड़ियाघर के अन्दर ही बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम की एक नई इमारत तैयार है. पूछने पर पता चला कि बेहतर रख-रखाव के लिए इसे बाहर से अन्दर लाया जा रहा है. चुनाव बाद इसका उद्घाटन होना तय है. दार्जीलिंग आने वाले पर्यटकों के लिए ये अच्छी खबर है. एक टिकट लो और चार पॉइंट्स का मज़ा लो! आपको बताते चलें कि इंटरनेट पर जानकारी हासिल करने के क्रम में मुझे ये पता चला था कि नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में रख-रखाव की समस्या के कारण उसे बंद कर दिया गया है पर यहाँ के टूर-ऑपरेटर बंद पड़े पॉइंट्स की भी बखूबी गिनती करवा देते हैं! बहरहाल, बाकी के जानवरों को देख कर बाहर आते-आते बारह-सवा बारह बज गए. हम अपने अगले पॉइंट यानि कि रंगीत-घाटी रोपवे की ओर चल दिए.
St. Joseph's School - Yaariyan fame - Darjeeling
संत जोसेफ्स स्कूल

महज दस मिनटों में हम रोपवे के पास थे. ड्राईवर ने सड़क के दूसरी ओर इशारा करके बताया कि ये जो शानदार ईमारत आप देख रहे हैं, ये संत जोसेफ्स स्कूल है जहाँ हाल ही में “यारियाँ” फिल्म की शूटिंग हुई है. बॉलीवुड सदा से ही दार्जीलिंग का दीवाना रहा है. आपको सुपरस्टार राजेश खन्ना का वो गाना तो याद ही होगा – “मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू”, या फिर देव आनंद साहब की फिल्म “जब प्यार किसी से होता है” का गाना “जिया ओ”, या फिर “परिणीता” का “ये हवाएँ”. इन सभी में दार्जीलिंग के प्रसिद्ध हिमालयन रेल की झलक देखने को मिलती है. इनके अलावा “मेरा नाम जोकर” का वो हिस्सा तो आपको याद ही होगा जिसमे ऋषि कपूर एक विद्यार्थी हैं या फिर शाहरुख़ खान अभिनीत “मैं हूँ ना” का कॉलेज आपको याद है? “बर्फी” तो आपको बखूबी याद होगी, क्यों? है न?


The Ticket Counter of Darjeeling Ropeway
रोपवे का टिकट काउंटर

अब समय था कि हम अपने और रोपवे के बीच की इन चंद सीढ़ियों के फासले मिटा दें. हमने बस कुछ सीढियाँ चढ़ीं और हम टिकट काउंटर के सामने थे. यहाँ टिकटों की कीमत डेढ़ सौ रूपए प्रति व्यक्ति थीं. यूँ तो रोपवे दस बजे ही खुल जाता है और हमने सोचा था कि ग्यारह बजे तक यहाँ पहुँच जायेंगे लेकिन आपको तो पता ही है कि हमारा एक घंटा कैसे बर्बाद हुआ. हाँ, आपको बता दें कि तीन साल से कम उम्र के बच्चों के लिए मुफ्त यात्रा का प्रावधान है और तीन से सात साल के बच्चे आधी कीमत दे कर इसका आनंद उठा सकते हैं. हर महीने की उन्नीस तारीख को ये बंद रहता है. जब हम पहुंचे तो हमारे आगे बमुश्किल दस लोग थे. हमें अपनी बारी आने का ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा.

Cable car passing over a tea garden in Darjeeling
चाय बागानों के ऊपर से गुजरती केबल कार

केबल कार में बैठ, ऊँचे पेड़ों, घरों और घाटियों के ऊपर से नीचे देखना एक अद्भुत नज़ारा था. आबादी विरल हुई तो चाय के बागान शुरू हो गए. कुछ हरे-भरे थे तो कुछ में पौधों की छंटाई हुई थी. कुछ जगहों पर औरतें चाय की पत्तियाँ तोड़ रही थीं. दूर तक वादियों का खूबसूरत नज़ारा मंत्रमुग्ध करने वाला था. दूर घाटियों में छिपी रंगीत नदी के जल की चांदनी रेखा यदा-कदा अपनी झलक दिखला रही थी. हमारी केबल-कार शनैः शनैः नीचे की ओर जा रही थी. हमें पहले ही कहा गया था कि नीचे जा कर उतर जाएँ ताकि वहाँ से लोग वापसी कर सकें. नीचे पहुँच कर हमने देखा कि सिर्फ दो लोग ही कतार में हैं. चूँकि हमें देर हो चुकी थी तो हमने अनुरोध किया कि हमें बिना उतरे वापस जाने दिया जाए. वैसे अगर आप उतर जाएँ तो गरमा-गर्म चाय और मोमो का आनंद ले सकते हैं. आप चाहें तो यहाँ भाड़े पर उपलब्ध पारंपरिक परिधानों में अपनी तस्वीर चाय-बागानों में खिंचवा सकते हैं. पर हमने बिना उतरे वापसी का फैसला किया था. वापसी में अभी हमने आधा रास्ता ही तय किया होगा कि बादल घिर आये और बारिश होने लगी. इसी बीच शायद बिजली चले जाने की वजह से हमारी केबल-कार बीच रास्ते में ही रुक गई लेकिन शायद जेनेरेटर चला कर उसे फिर से चलायमान किया गया. जब हम उतरे तो डेढ़ बजने को थे. बारिश अभी भी हो रही थी. बिना भीगे गाड़ी तक पहुँचना असंभव लग रहा था. तो हमने वहीँ बैठ कर गर्मागर्म मैगी, मोमो और चाय का आनंद लिया. अब तक वर्षा रानी को भी हम पर दया आ गई थी तो उन्होंने हमें गाड़ी तक जाने की इजाज़त दे दी.

यहाँ से जब हम आगे बढे तो रास्ते में संजोक ने दूर स्थित तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र दिखाया. उसने यह भी बताया कि अभी रास्ते की मरम्मत चल रही है, तो जा पाना संभव नहीं होगा. सच पूछें तो हमें भी वहाँ जाने में खासी दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि हमारे पास समय कम था.
हम यहाँ से आगे बढ़े तो रास्ते के बायीं ओर तेनजिंग रॉक और दाहिनी ओर गोम्बू रॉक आया.

Tenzing rock in darjeeling
तेनज़िंग रॉक, दार्जीलिंग

तेनजिंग रॉक सड़क की ओर से कोई बीस फुट के आस-पास ऊँचा होगा जबकि दूसरी ओर वो काफी गहरा है. यहाँ कुशल पर्वतारोही भी प्रशिक्षण लेते हैं तो पर्यटकों को भी मौका मिलता है. माउंट एवेरेस्ट पर सबसे पहले कदम रखनेवाले श्री तेनजिंग नोर्गे के नाम पर इसे तेनजिंग रॉक का नाम दिया गया है. चट्टानी हौसलों वाले इन्सान को एक राष्ट्र इससे बेहतर क्या सम्मान दे सकता था? जब हम आगे बढे तो संजोक (ड्राईवर) ने बताया कि अब हम चाय-बागान देखने चलेंगे.  

A view of Rangeet Valley Tea estate
रंगीत-घाटी चाय बागान का विहंगम दृश्य

A view of Rangeet Valley Tea estate
रंगीत-घाटी चाय बागान का विहंगम दृश्य

Photographer Gautam, Darjeeling
फोटोग्राफर गौतम


कुछ ही मिनटों में हम रंगीत-घाटी चाय बागान में थे. ये बागान काफी तीखी ढ़लान पर स्थित है. नीचे जाने की बात सोच कर भी रोंगटे खड़े हो जाएँ! वहाँ हमारी मुलाकात गौतम और उनके साथियों से हुई. वे पर्यटकों के लिए पारंपरिक पोशाक उपलब्ध कराते हैं और तस्वीरें भी उतारते हैं. पोशाकों का किराया पचास रूपए प्रति व्यक्ति और तस्वीरें भी पचास की, प्रिंट और फोटोग्राफर की सेवाओं के साथ! उनके साथ हम पूरी सतर्कता से नीचे उतरे. वे हमें एक ऐसी जगह तक ले गए जहाँ तस्वीरें अच्छी आती. गौतम ने न सिर्फ हमारी अच्छी तस्वीरें खींची बल्कि हमें भी हमारे कैमरे का इस्तेमाल करने में सहयोग किया. करीब पचास मिनट बिता कर हम जब चलने को हुए तो संजोक ने दूर एक मैदान सा दिखा कर कहा – वही लेबोंग रेस कोर्स है. 
Lebong Race Course as seen from the tea garden
चाय बागान से दीखता लेबोंग रेस-कोर्स 

ये आर्मी-क्षेत्र में आता है और यहाँ नहीं जा सकते. पहले ये रेस-कोर्स था पर अब परेड-ग्राउंड की तरह इस्तेमाल होता है. मैंने उसको पुछा कि भई, तुम्हारे आधे से ज्यादा पॉइंट्स तो “नहीं-जा-सकने” वाले हैं. फिर इनको सूची में क्यों जोड़ रखा है? उसने कहा कि मैंने थोड़े ही जोड़ रखा है, वो तो ट्रेवल कंपनी ने जोड़ रखा है. मैं तो ड्राईवर हूँ. जहाँ-जहाँ जाना संभव होगा, लेता चलूँगा! मैंने पुछा कि अब कौन सी जगह दिखाओगे तो उसने कहा - गोरखा फुटबॉल स्टेडियम.

Gorkha Football Stadium, Darjeeling
गोरखा फुटबॉल स्टेडियम, दार्जीलिंग

आड़े-टेढ़े-संकरे रास्तों से आगे बढ़ते हम लेबोंग टैक्सी-स्टैंड आ गए. संजोक ने गाड़ी एक किनारे लगा दी और नीचे की ओर इशारा किया – “यही गोरखा फुटबॉल स्टेडियम है जहाँ कभी वाईचुंग भुटिया खेल का अभ्यास करते थे”. ये क्रीडांगन किसी भी शहर में पाए जाने वाले आम क्रीडांगन की ही तरह था. कुछ युवा अब भी वहाँ खेल रहे थे. कुछ तस्वीरें खींच, हम वापस चल दिए.  


अब हम शहर के दूसरे छोर की ओर जा रहे थे. तकरीबन आधे घंटे की ड्राइव के बाद हम जापानी मंदिर के सामने थे. शहर की हलचल से दूर एकांत में बने इस मंदिर में उस समय प्रार्थना चल रही थी. हम भी चुप-चाप कतार में बैठ गए. हमारे सामने डफ जैसा एक वाद्ययंत्र रखा था जिसे बजाने के लिए एक लकड़ी पड़ी थी. हम वज्रासन में बैठ उसे बजाने लगे. मंत्रोच्चारों के बीच लय में बजता यंत्र एक अलग ही माहौल बना रहा था. कुछ देर तक वहाँ बैठने से हमें काफी शांति मिली. फिर हमने प्रसाद लिया और धीरे से वहाँ से उतर आए. मैंने देखा कि वहाँ अनेक पर्यटक थे किन्तु बहुत कम लोग मंदिर के अन्दर जा रहे थे. यदि आप जाएँ तो दस मिनट अन्दर ज़रूर बिताएँ. हमें तो बहुत शांति मिली. यकीन मानिये, आपको भी अच्छा लगेगा.


The Japanese Temple, Darjeeling
जापानी मंदिर, दार्जीलिंग


Darjeeling Peace Pagoda
दार्जीलिंग का शांति-स्तूप

Darjeeling Peace Pagoda


इसी परिसर में आगे शांति-स्तूप या पीस पैगोडा है. तेईस मीटर के व्यास वाले इस स्तूप की ऊंचाई साढ़े अट्ठाईस मीटर है. इसका उद्घाटन 1992 में हुआ था. आसमान को छूता दुग्ध-धवल स्तूप और ऊपर चढ़ने को दोनों ओर से सुंदर सीढियाँ, तिस पर भगवान् बुद्ध की स्वर्णिम प्रतिमा के तो कहने ही क्या? अप्रतिम हरियाली के बीच अवस्थित सफ़ेद रंग की ये संरचना अपने आकार और रंग के माध्यम से शांति का अपना संदेश बगैर किसी दिक्कत आप तक पहुंचा देती है.

हिन्दू धर्म में पूजा-पाठ के दौरान घंटियों का इस्तेमाल किया जाता है. किसी भी हिन्दू मंदिर में आपको अलग-अलग आकार के घंटे टंगे मिलेंगे. इसाई भी अपने गिरिजाघरों में बड़े-बड़े घंटे लगवाते हैं. बौद्ध धर्म में इनके स्तूपों का आकार किसी बड़े घंटे के जैसा होता है. है न एक अद्भुत समानता! यहाँ आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बौद्ध धर्म में स्तूपों के निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है. इनमे सबसे प्रसिद्ध है सारनाथ और साँची के स्तूप. आठवीं सदी में बना इंडोनेशिया स्थित बोरोबुदुर स्तूप को यूनेस्को ने दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध स्मारक माना है. दुनिया भर में नव-निर्मित स्तूपों की संख्या कोई अस्सी के आस-पास है. हिंदुस्तान में ये राजगीर (बिहार), धौलागिरी (ओडिशा), इन्द्रप्रस्थ पार्क (दिल्ली), दार्जीलिंग (पश्चिम बंगाल),  वैशाली (बिहार), वर्धा (महाराष्ट्र), और लद्दाख (जम्मू और काश्मीर) में हैं.

गिरी-विलास जहाँ “लाल-कोठी” नाम के एक चर्चित बांग्ला फिल्म की शूटिंग हुई थी जिसके बाद इसे लोग लाल-कोठी के नाम से ही बुलाने लगे. यहाँ अभी दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल का कार्यालय है. ये जगह पर्यटकों के लिए खुली नहीं है. मेरे दिमाग में फिर से वही सवाल कौंधा - “नहीं-जा-सकने” वाले पॉइंट्स की सूची बनाने का क्या मतलब? जो लोग शांति-स्तूप देखने आयेंगे, वे इसे पार करके ही तो जायेंगे. फिर मुझे संजोक का उत्तर याद आ गया और मैं चुप ही रहा.


Ava Art Gallery, Darjeeling
आभा आर्ट गैलरी

हम यहाँ से निकले तो आभा आर्ट गैलरी गए. यहाँ आभा देवी द्वारा कपड़े पर कढ़ाई कर बनाई गई कारीगरी के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं. सुई-धागे का इतना बारीक काम कि आप अचंभित रह जायेंगे. कलाकार की कल्पना-शक्ति और कला की बारीकियों की उसकी समझ और पकड़ काबिले-तारीफ है. यहाँ आपको सिर्फ दो रूपए का टिकट लेना है और मुश्किल से पंद्रह मिनट में आप इसे घूम लेंगे. मेरी तो यही राय है कि अपने पंद्रह मिनट यहाँ ज़रूर बितायें.

Dhirdham temple, Darjeeling
धीरधाम मंदिर

Dhirdham temple, Darjeeling
धीरधाम मंदिर से दीखता दार्जीलिंग शहर का मनमोहक नज़ारा

यहाँ से निकले तो समय था अपनी सूची के आखिरी पायदान पर स्थित धीर-धाम मंदिर की. ड्राईवर ने हमसे कहा कि यहाँ कोई पर्यटक नहीं जाता पर हमने कहा कि भई तुम पहले ही दो जगहों (लेबोंग रेस-कोर्स और तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र) के लिए इनकार कर चुके हो, अब और नहीं. ये मंदिर दार्जीलिंग रेलवे स्टेशन के बिल्कुल बगल में है. जब हम यहाँ पहुंचे तो साढ़े-चार बज रहे थे पर मंदिर अब भी बंद ही था. हमने चारों ओर घूम कर माहौल का जायजा लिया. इस जगह से दार्जीलिंग शहर का अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है. हमने यहाँ पंद्रह मिनट बिताए. अगर मंदिर खुला होता तो शायद हम थोड़ा और समय बिता पाते.

View from Dhirdham temple, Darjeeling
धीरधाम मंदिर से दीखता दार्जीलिंग शहर का मनमोहक नज़ारा


Dhirdham temple, Darjeeling
धीरधाम मंदिर के बंद कपाट


अब पाँच बजने को हैं. लगातार घूम कर हम थक चुके हैं. तो अब समय है कि इस पर विराम लगा दिया जाए. वो अंग्रेजी में कहते हैं न – let us call it a day now. तो यहाँ से हम सीधे होटल पहुंचे. इसके बाद गर्म चाय के साथ दिन भर खींचे गए फोटो का विश्लेषण शुरू हुआ. आज इतना ही. कल की यात्रा का विस्तृत विवरण लेकर बाद में हाज़िर होता हूँ.

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