साल दो हजार बीस। क्या साल है (विस्मय)! क्या साल है (घृणा)? पूरी दुनिया को उलट-पलट कर रख दिया। कई चेहरों से मुखौटे उतर गए। कई रिश्ते बेनकाब हो गए। सभ्यता और शिक्षा (डिग्री) के आवरण में छुपे भेड़िये खुल कर सामने आ गए।
अब जब धीरे-धीरे ताले खुल रहे हैं, लोग मिल रहे हैं, मुझे भी किसी की याद आ रही है। कौन? अरे भई, अपने मटकू भईया! याद आया? बिल्कुल आ गया होगा! उन्हें भला कौन भूल सकता है? तो चलिए, आज उनसे मिल आया जाए। वैसे एक बात तो तय है - आज मुझे जबर्दस्त डांट मिलने वाली है, फिर भी...
लो भई, आ गए हमलोग। तो क्या कहते हैं आपलोग? घंटी बजा दी जाए?
टिंग-टांग
दरवाजा खुलते ही भईया के दर्शन होते हैं।
"भईया प्रणाम।"
भईया अवाक खड़े हैं। शायद उन्हें सहसा यह विश्वास करना कठिन हो रहा है कि सामने मैं ही खड़ा हूँ।
"भईया प्रणाम।" मैंने फिर से हाथ जोड़े।
"अरे तुम! एतना दिन बाद! दिन क्या? साल बोलो, साल! हम त सोचे कि कहीं तुम भी राजनीति में त नहीं चला गया। लेकिन चुनावी मौसम में भी तुमरा दर्शन नहीं हुआ त लगा कि घर-परिवार में व्यस्त होगा। अंदर आओ।"
मैं वाकई कई सालों बाद आया था। थोड़ा डर रहा था। लेकिन भईया अब भी वैसे के वैसे ही थे - मस्तमौला, बेपरवाह, अक्खड़!
"बैठो, अब अपने घर में भी बैठने के लिए तुम्हें कहना होगा?" भईया पुराने रूप में थे।
"और भईया, बिहार चुनाव है। कोई वैक्सीन दे रहा है, कोई बेरोजगारी भत्ता और कोई प्रवासी मजदूरों का मुद्दा उछाल रहा है। कोई "उनके" पंद्रह साल बनाम "हमारे" पंद्रह साल का हिसाब दे रहा है। आप क्या दे रहे हैं?" मैंने बैठते हुए कहा।
"अरे हम क्या देंगे? इ बिहार की गौरवशाली भूमि है। रामायण काल से ही इसकी गौरवगाथा शुरू हुई। मगध के महा-शक्तिशाली साम्राज्य हों, बुद्ध - महावीर हों, बिहार ने एक से बढ़कर एक सपूत पैदा किए।"
"भईया बात तो आपकी सही है। लेकिन आज बिहार की ऐसी हालत क्यों है?"
"बात तो तुम सौ टका सही कह रहे हो। ईसा पूर्व जिस राज्य का परचम तक्षशिला से बंगाल तक फहराता था, उसका ई हाल कईसे हुआ?"
"कैसे हुआ भईया?" मैंने भी कुरेदा।
"जानते हो, इस बार नवरात में सोचे कि सुबह सुबह डाभ पिया जाए। पेट ठंडा रहता है। त बग्गले का एगो फल वाला को बोले कि पहुँचा दो। उ मान गया। दू दिन त ठीक डाभ दिया। तेसर दिन एक ठो छोटका वाला घुसा दिया। हम कुछ न बोले त पंचवा दिन और खराब दिया। छठा दिन से हम लेना बंद कर दिए। " भईया अब आवेशित हो रहे थे। मुझे हँसी आ गई।
"भईया, वो तो निपट अवसरवादी निकला। उसने तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही काट दिया।"
"सही समझे हो। कभी शांति से बैठना तो इसके विराट स्वरूप पर भी विचार करना।"
मैं अब भी सोच में हूँ....
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