Sunday, June 29, 2008

दोनों हाथ उलीचिये ......

'खट' की आवाज़ से मेरा ध्यान दरवाज़े की ओर गया तो देखा कि मटकू भइया खड़े हैं।
"भइया प्रणाम। आईए ना..." मैंने आग्रह किया।
"क्या बात है... काफी परेशान दिख रहे हो?"
"हाँ भइया.... इन्फ्लेशन ११% के पार चला गया। घर के लिए क़र्ज़ लिया था। वो अब भारी पड़ने लगा है। रिज़र्व बैंक की हाल की घोषणा के बाद तो लगता है कि ये और भी भारी हो जाएगा।"
"फिर क्या सोचा? कुछ पैसवा बचा है तो क़र्ज़ चुका दो।"
"हाँ भइया। सोचा तो है। फिर सोचता हूँ कि बैंक ज़मा पैसा पर भी तो ज्यादा ब्याज देगा! इसी उधेर-बुन में हूँ कि लोन चुका दूँ या पैसा फिक्स कर दूँ! आप क्या सलाह देते हैं?" मैंने उनके विचार जानने चाहे। हमेशा मुफ्त की सलाह देने वाले मटकू भइया पहले तो सोच में पड़े... फिर दार्शनिक अंदाज़ में बोले...
"देख बबुआ, हम ता ठहरे पुरान (पुरानी) बुद्धी वाले। फिर भी हम ऐ गो पुरान बात दोहरा देते हैं ...

ज्यों जल बाढै नाव में, घर में बाढै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।

कम कहे पर ज्यादा समझना! अब चलता हूँ।" मटकू भइया तो चल दिए पर उनकी बातें अभी तक मेरे दिलो-दिमाग में गूँज रही हैं।

Saturday, June 7, 2008

शौर्य

जब भी शौर्य की बात करें तो ज़ेहन में पहली तस्वीर क्या उभरती है? शायद वर्दी में किसी जवान की। किंतु जो सीमा पर नही हैं, क्या वे शौर्य-विहीन हैं? देश-दुनिया को चलाये रखने के लिए जो लोग अपनी खुशियाँ, इच्छायें और रिश्ते दावं पर लगाते हैं, क्या उन्हें सलाम करना भी हमारे लिए ज़रूरी नही? उन्ही लोगों को समर्पित मेरा ये प्रयास...

अब तक था अप्राप्य, अछूता
उस मंजिल की ओर बढें
आओ हम सब मिलकर
शौर्य की नई परिभाषा गढ़ें

धरती के सीने को चीरता
जैसे हो बलराम का हल
जीवन-स्त्रोत से ओत-प्रोत
है किसान का आत्मबल
रह जाए न कोई भूखा
कृषक की ये साध सधे
आओ हम सब मिलकर
शौर्य की नई परिभाषा गढ़ें

चीर कर अम्बर का सीना
ऊपर बढ़ता भवन विशाल
हाड़-तोड़ मेहनत हैं करते
मजदूरों का शौर्य कमाल
धरती के साए से उठकर
स्वर्ग की सीढ़ी चढें
आओ हम सब मिलकर
शौर्य की नई परिभाषा गढ़ें

आते-जाते हमने देखा
रेल-सड़क का फैला जाल
धमनी में ज्यूँ रक्त है बहता
ड्राईवर सदा ही चलता रहता
पलक न झपके मंजिल तक,
उसके हैं हर कदम सधे
आओ हम सब मिलकर
शौर्य की नई परिभाषा गढ़ें

Monday, June 2, 2008

जय जवान, जय किसान

शाम को बाज़ार निकला तो रास्ते में मटकू भइया मिल गए। नाम से इनको कोई भइया टाइप चीज़ समझने की गफलत मत पालियेगा। जब पैदा हुए तो नामकरण किया गया - पद्मलोचन। नाम के अनुरूप बड़े-बड़े नयन। प्यार से किसी ने कहा, "बचवा की आंखें बड़ी मटकती हैं"। बस, फिर क्या था, पद्मलोचन हो गए मटकू बबुआ। जब बड़े हुए तो हो गए मटकू भइया।
"भइया प्रणाम, कैसे हैं?"
"क्या रहेंगे बबुआ, ई कमर तोड़ महंगाई में नौकरी वाला भी ससुरा बी पी एल हो गया है। सोचो कि गरीबों का क्या होगा?"
"बी पी एल क्या?" मैं ज़रा अनजान बन गया। भइया को मेरी नादानी पर गुस्सा करने का मौका मिला, "ऐतनो नही बुझाता है क्या रे तुमको? बी पी एल माने गरीबी रेखा के नीचे वाला लोग, हिन्दी में कहेंगे लाल कार्डधारी। अब त समझिए गया होगा।"
" जी - जी"
"कहाँ जा रहा है?"
" जी, ज़रा सोचा कि कुछ सब्जियां ले लूँ। "
" थैला भर के पैसा लाया है न? पहले पॉकेट में पैसा लाते थे और थैला में सब्जी ले जाते थे। अब त ज़माना ही उल्टा हो गया है!"
"आप कहते हैं की चावल-दाल-सब्जी का भाव बढ़ गया है। फिर किसान क्यों खुदकुशी कर रहे हैं ?" मैंने मटकू भइया को छेड़ा।
"तुम लोग को बुझायेगा... अरे तुमको का लगता है... सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया त किसानों के जिंदगी का ग्राफ ऊपर चला गया? फसल ज्यादा हो या कम, किसान दोनों तरफ़ से मरता है। कम हुआ तो क़र्ज़ चुकाने लायक भी पैसा नही आता है... ज्यादा हुआ तो फसल का दाम कम मिलता है। अब त किसानों सब चालाक हो गया है। अनाज-सब्जी छोड़ के सूरजमुखी, एलो-वेरा और गेंदा लगाने लगा है। आख़िर पैसा किसको अच्छा नही लगता है?"
"अच्छा भइया, जय जवान-जय किसान... ... ..."
"अरे तुम क्या बोलेगा," मेरी मुहं की बात मुहं में ही रह गयी। "जवान भी अब नौकरी से तौबा कर रहा है। पैसा तो पहले भी ज्यादा नही था लेकिन इज्ज़त खूब था। अब त उसी का इज्ज़त है जिसके पास पैसा है। तभी तो तेज़ विद्यार्थी फौज के बदले ऑफिस का काम पसंद करता है। आराम का आराम... और पैसा भी दुनिया भर का।"
"आपकी बात में तो दम है" मैंने कहा।
".... तुम्हारे चक्कर में मेरा भी काम गड़बड़ हो जाएगा। तुम जाओ सब्जी-मंडी... मैं चला अपने रस्ते..."