Wednesday, February 20, 2008

एक बकवास कथा

एक इंसान था... अच्छा - भला, हमारे - आपके जैसा। उसके घर एक गौरैया ने घोसला बना लिया। इधर गौरैया के बच्चे हुए, उधर इंसान के घर भी किलकारियाँ गूंजी। दोनों ही बच्चों को बड़ा करने में लग गए।
वक्त के साथ गौरैया के बच्चों ने उड़ना सीख लिया। इंसान ने भी ऊँगली पकड़ कर अपने बच्चे को चलना सिखा दिया। और वक्त गुजरा ... गौरैया ने एक दिन अपने बच्चे को घोंसले से बाहर कर दिया। बच्चा कुछ दिनों तक तो घूम - घाम कर वापस आ जाता था। फिर एक दिन वो जो गया तो वापस नही लौटा।
इंसान बड़े जतन से अपने बच्चे को पालता रहा। उसके मन में अपने बच्चे की वो ही "ऊँगली थाम कर चलने वाले" की छवि बनी रही। लेकिन बच्चा तो अब दौड़ने लगा था। उसे पिता की ऊँगली अब अपने रफ़्तार में बाधक लगती। वो तो गौरैया के बच्चे की मानिंद उड़ना चाहता था।
बूढे पिता को पुत्र की तेज रफ़्तार से गुरेज होने लगा था तो बेटे को पिता की बातें "टोकना" लगने लगी थी। पर आख़िर सामंजस्य का ही नाम जीवन है। धीरे-धीरे दोनों को ही एक दूसरे की आदत हो गयी। पिता को शिकायत रहती की बेटा हमेशा दरवाजे की कुण्डी नही लगता, पुत्र का तर्क था "आपने कौन सा खजाना जमा किया है जो चोरी हो जाएगा?"।
इन सारी घटनाओं के दरम्यान जीवन अपनी रफ़्तार से बढ़ता रहा। गौरैया अब भी हर साल आती। पता नही यह उसकी कौन सी पीढ़ी थी। इंसान भी अब दादा बन चुका था। पतझर में सूखे पेड़ पर नई कोंपल की हरियाली से जो ताज़गी आती है, वो ही अब उसके चेहरे पर दीखती थी। काल-चक्र एक चक्कर पूरा कर चुका था। पुत्र अब पिता था ... अपने पिता की ही तरह। उसका पुत्र बिल्कुल उसकी तरह था। एक समय उसे इस बात का गर्व हुआ करता था। धीरे - धीरे उसकी रफ़्तार से उसे भी डर लगने लगा था।
आज पुत्र फिर देर से आया और चुपके से अपने कमरे में बंद हो गया। दरवाज़े की आवाज़ से उसकी नींद खुल चुकी थी। धीरे से उठ कर वो दरवाज़े के पास गया.... ये क्या। आज फिर दरवाजा खुला हुआ है। वो बुदबुदाने लगा। ये नई पीढ़ी .... जाने कब अपनी जिम्मेदारी समझेगी... उसने कुण्डी लगा दी। जब वो घूमा तो सामने अपने पिता की तस्वीर दिखी। उसकी आंखों के आगे वो दिन घूम गया ... वो देर से आया था ... और चुपके से बिस्तर में घुस गया था। उसके पिता ने इसी तरह बुदबुदाते हुआ कहा था "नालायक" और वो बुदबुदाया था "सठिया गए हैं"। उसकी आंखों में आंसू आ गए। बेटे के कमरे के सामने से गुजरते हुए उसने सुना "सठिया गए हैं" .... और वो रुक गया। आंसू पोंछा ..... और मुस्कुराने लगे।

Monday, February 18, 2008

सिंहो की नही टोलियाँ, साधू ना चले जमात!

बचपन में पढ़ा था - अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता। साधारणतया यह बात सत्य है, किंतु इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने सारे नियमों को ग़लत साबित किया।
हमारे दशरथ मांझी भी उन्ही में से एक थे। ऐसी ही हैं खुशबु। और ऐसे ही हैं राघव महतो।
अब आप जरूर पूछेंगे "दशरथ मांझी कौन?" "खुशबु कौन?" "राघव कौन?"
यह कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने कभी व्यवस्था का रोना नही रोया। श्रीकृष्ण के प्रिय अर्जुन की तरह कर्मभूमि में जम गए। और जामे तो कुछ यों कि कहना पड़ा
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नही हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों
दशरथ मांझी: गया जिले के, पहाड़ से ठन गयी। लगन ऐसी लगी कि पहाड़ को काट कर ३०० फीट का रास्ता बना दिया। वो भी अकेले, बिना किसी मदद के।
खुशबु: मुज्ज़फ्फरपुर के रामलीला गाछी की, छोटी सी उम्र में बड़ा कारनामा। जिस जगह मूलभूत सुविधाएं भी नही, सहेलियों साथ मिल अपने इलाके की घटनाओं और खबरों को संकलित कर बनाया "अप्पन समाचार " ।
राघव: वैशाली जिले के, ट्रान्जिस्टर रेडियो बनाते बनाते ट्रांस्मित्टर बनाया और शुरू हो गया: राघव का FM .
इन लोगों में एक बात एक थी. इन्हें व्यवस्था से शिकायत कम और अपने ऊपर भरोसा ज्यादा था. समाज की दिशा-दशा बदलने वाले इन पार्थ को पार्थसारथी की जरूरत है. जरूरत है ऐसे लोगों की जो प्रतिभाओं को पहचान दिला सकें, उनका पोषण कर सकें.

Friday, February 15, 2008

प्रेम ना हाट बिकाय

वैलेंटाइन डे आया और चला भी गया। अखबार में समर्थन और विरोध के स्वरों के बीच प्यार करने वाले (?) हाथ में हाथ थामे अखबारों की सुर्खियाँ बने नज़र आए। साथ ही नज़र आए तथाकथित भारतीय संस्कृति के पहरुए, हाथों में लाठी-डंडा लिए। कभी पार्क में किसी को निशाना बनाया तो कभी दुकानों में तोड़-फोड़ की।

ये सब कुछ देख कर मुझे कबीर की याद आयी.... प्रेम ना खेतों ऊपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।

अखबारों में अलग - अलग किस्म के एक्सपर्ट्स अपनी-अपनी रायशुमारी में व्यस्त दिखे। किसी ने कहा की लाल गुलाब फलां शास्त्र की नज़र में दुःख का कारण है, खासकर काँटों वाले गुलाब, इसलिए पीले गुलाब भेंट करने चाहिए! किसी ने कहा की यदि आप फलां ब्रांड की परफ्यूम या chocolate अपने साथी को भेंट नही करते तो यकीन जानिए कि आप प्यार के लायक ही नही।

कुछ वैज्ञानिक विचार धारा के बुद्धिजीवियों ने दिल, दिमाग और होर्मोनेस को प्यार के बुखार के लिए जिम्मेदार बताया। कुछ ने श्रृंगार रस में प्यार को खोजा, तो कुछ ने शिव और मदन की गाथा ही सुना डाली।

कुल मिला कर ये ही हुआ कि मेरी छोटी सी बुद्धि में बड़ी-बड़ी बातें नही आयी। आयी तो बस एक कथा कि याद आयी... एक हाथी था.... आगे तो आप समझ ही गए होंगे!

Wednesday, February 6, 2008

Life is a handful of sand!

When I left school and entered life, things were not as they usually seem. When I joined Tata Steel, time started flying! I was, in a sense, sitting in a roller-coaster. Life was fast, full of twists and turns; ups and down and the most miserable part for me was: I had no control over it!

Sometimes, I feel that life is a handful of sand, the more you clench on it, the faster it flows out.

Sunday, February 3, 2008

So, I've become a blogger!

After being a spectator for a decade, I've finally jumped into the blogging stream! Future will decide the twists and turns of my journey...