Tuesday, December 20, 2011

City Anthem

In the month of November, Dainik Jagarn had organized an anthem
writing competition. The topic was my city anthem. Although my entry
could not make it to the top slot, here it is...





स्वच्छ, व्यवस्थित, हरा-भरा, सब शहरों से न्यारा
हाथ उठा आवाज़ लगा, जमशेदपुर सबसे प्यारा



दलमा की गर्वीली चोटियाँ, मेघों को भी रोकें
फूलों की खुशबु संग चलते, मादक पवन के झोंके



स्वर्ण-कणों की स्वर्णरेखा, जिसकी बहना खरकाई
कालीमाटी की धरती ने, भारत को राह दिखाई



भारत में उद्योग-क्रांति की, इसने जलाई ज्वाला
कितने लोग - कितनी पीढ़ियों, को है इसने पाला



फौलादी है जिगर हमारा, लेकिन फूलों जैसा दिल
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई, हमसब रहते हैं हिल-मिल



रहे साथ - आगे बढें, ना छूटे हाथ हमारा
हाथ उठा आवाज़ लगा, जमशेदपुर सबसे न्यारा

Wednesday, August 24, 2011

नास्तिक

उन्होंने पूछा
सुना कि तुम
नास्तिक हो?
सोच में मैं पड़ गया
उनसे बोला -
धर्म ने आपके
मुझे क्या दिया है ?
चंद मंदिर
चंद मस्जिद
चंद गिरिजा, गुरूद्वारे
चाहते हैं कि मैं
जियूं बस इनके सहारे ?

आज मैं आपको बताऊँ
एक सच्ची दास्ताँ
मिल गए यूँ ही अचानक
एक दिन मुझे भगवान
मैंने पूछा - आप कौन?
हंस कर कहा
अरे नादान
मैं भगवान!
मैंने पूछा -
आप तो राम जैसे नही?
कृष्ण - बुद्ध जैसे भी नही
ईशा की तरह भी नही
कुछ कहते हैं
आप हैं कैलाश पर
कुछ कहते
रहते हैं मक्का में?
मेरे संशय पर
वे मुस्कुराये
बोले -
"रहता हूँ मैं
तुम्हारे ही अन्दर
जिस रूप में चाहो
मुझे देख लो
मैंने बनाई
सारी सृष्टि
जब बनाया तुम्हे
खुद पर इतराया
डाल दिया तुम में
अंश अपना
सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना
मानव
आज लड़ता है
मेरे नाम पर!"

मैंने उनसे पूछा:
क्या आपने कभी
अपने भगवान को देखा है?
वे चुप रहे
मैं बोला -
मैंने देखा है.
अपने अन्दर के भगवान को
मैं हर सांस में
उन्हें महसूस करता हूँ.
धड़कते हैं वो, दिल बन कर
विचार बन, बहते हैं मन में
आँखें खोलता हूँ तो
रंग बन कर समा जाते हैं

हो सकता है

आपकी नज़र में

मैं नास्तिक हूँ

मगर

मैं नास्तिक ही अच्छा!











Saturday, April 2, 2011

यादें


एक था वट-वृक्ष हम थे खेले जिसकी छांव में
शान से रहते थे अपने बादलों के गाँव में.
आंधी हो, तूफ़ान हो, या धूप हो जितनी कड़ी,
हर समय हर बार ही, उसने की रक्षा मेरी.

काल-चक्र जो घूमता है, मौका देता है कहाँ?
एक दिन, यूँ ही अचानक, खो गया जाने कहाँ.
था जो कल तक मुझको अपनी छांव में रखे हुए,
देख पाया मैं उसे ना, छोड़ कर जाते हुए.

आत्मा हो गयी स्तब्ध, चेतना भी शुन्य सी,
हे विधाता! थी तुम्हारी, ये क्रूर इच्छा कैसी?
अंतस था मेरा विकल पर अश्रु तक फूटे नही,
कहता है ये दिल मेरा, आप हो मेरे पास ही.

आप थे कहते हमेशा, तू तो मेरा लाल है,
सिखलाया थोड़े दिनों में, आपने जो. कमाल है!
हार बैठा हो जो मन में, निश्चय उसकी हार है,
हर कोई अपने किये का, आप जिम्मेवार है.

आपकी हर बात मैं, रखता हूँ सर-माथे पर,
आपने थामा मुझे है, टेढ़ी हो जितनी डगर.
मुझ पर, मेरे वंशजों के, सर पर आपका हाथ हो.
हे पिता! अगले जनम भी, आपका ही साथ हो.

२० वर्षों पूर्व साथ छोड़ गए पिता की पुण्यतिथि पर, मैं अपने शब्द-सुमन उन्हें अर्पित करता हूँ.


Friday, March 18, 2011

उम्मीद पर दुनिया कायम है!

आज सुबह-सुबह बाज़ार पहुंचा तो देखा कि रामजतन पानवाले की दुकान पर मटकू भईया "किरकिटिया चर्चा" में व्यस्त हैं. मुझे तो जैसे मौका मिल गया -
"क्या भईया? आप भी क्रिकेट में रस लेने लगे?"
"धुर बुरबक, हमरा चलता तs ई खेलवे को "राष्ट्रीय आपदा" घोषित कर देते!"
"अच्छा भईया, आपको क्या लगता है? इस बार वर्ल्ड कप भारत आएगा कि नही?"
भईया शुरू हो गए -
"एक धोबी के पास एक गधा था. धोबी उसको जी-भर के काम कराता, खाना भी नही देता और आना-कानी करने पर गधे की खूब पिटाई करता. अगल-बगल के गधों को अपने साथी की ये हालत देखी नही जाती थी. एक दिन मौका मिलने पर एक ने उससे पूछा - भाई, तुम्हारा मालिक तुम पर इतना ज़ुल्म करता है, फिर भी तुम चुप-चाप सहते हो. आखिर क्यों? भाग क्यों नही जाते?
पहला गधा दार्शनिक अंदाज़ में बोला - क्या बताऊँ दोस्त, बात तो तुम्हारी ठीक है पर मेरी एक मजबूरी है.
दूसरे ने पूछा - कैसी मजबूरी?
पहले ने कहा - मेरे मालिक की बेटी बहुत ही सुन्दर है. वो जब भी कोई बेवकूफी का काम करती है, मालिक कहता है कि अगर तू नही सुधरी तो तेरी शादी इस गधे से कर दूंगा."
भईया बोल कर यूँ गायब हो गए जैसे गधे के सर से सींग; और हम अपना सर खुजाते रहे.

Sunday, January 23, 2011

महंगाई डायन (लघुकथा)

संक्रांति के बाद आज पहली बार बाज़ार आया था। टुसू के बाद की शांति ख़त्म होने लगी थी। सुबह-सुबह की ठण्ड में जीवन अपनी भाग-दौड़ में लगा था। सब्जियों से लदी ऑटो को रास्ता देने के लिए एक किनारे हुआ तो पकते गुड़ की खुशबू ने रोक लिया। मैं खड़ा होकर अपने आस-पास की हलचल देखने लगा. आते-जाते लोगों के बीच से निगाहें उन हाथों पर रुक गयी जो मुढ़ी-गुड़ के 'लाई' बना रही थी। खड़े होकर मैंने मुहं से सांस छोड़ी। हवा में धुंध की एक चादर सी बन गयी। मैं मुस्कुराया। मुझे एक बच्चे जैसा मज़ा आया।
एक हाथ पॉकेट में डाले, दूसरे हाथ में थैला हिलाता मैं एक दुकान के सामने था।
"कैमोन आछो काकी?"
"भालो...."
आवाज़ ने शब्दों का साथ नही दिया।
"की चाई?"
"फूल कितने का?" मैं अब अपनी औकात पर आ गया था क्योंकि बांग्ला में मेरे हाथ जरा तंग हैं।
"आपसे क्या दाम करेगा बाबू? २० में बेच रहा है, आपको १९ में दे देगा..."
"और बैंगन? अरे हाँ... मूली कितने की है?"
काकी अनमने ढंग से सब्जी के टोकरे इधर उधर करती रही।
"कोई दिक्कत ....?" मेरे अन्दर का बच्चा काफुर हो चूका था।
"क्या बोलेगा बाबू, रमना गुस्सा है. एई लेके मन नई लगता है।"
"रमना... कौन?"
"मेरा लड़का, बाबू. कंपनी भीतरे ठीकादारी में काम करता है. आपको क्या चाहिए बाबू?"
"एक फूलगोभी, आधा किलो बैंगन और आधा किलो मूली दे दो।"
"गोभी का डंठल और मूली का पत्ता तोड़ के रख लेगा बाबू?"
"हाँ..हाँ. गोभी के डंठल और मूली के पत्ते तोड़ कर रख लेना।"
"ठीक है बाबू...." और उसने सारा सामान मेरे थैले में डाल दिया। मैंने पैसे दिए और घूमा कि एक युवक मुझे लगभग धकियाता दुकान की किनारे वाली गली में घुसा।
मैं बुरा-सा मुहं बना कर आगे बढ़ गया। मेरे पीछे का कोलाहल बढ़ते-बढ़ते शोर और फिर झगडे का रूप ले चुका था। जी में आया कि देखूं, आखिर हो क्या रहा है; किन्तु मुझ जैसा लेखक-टाईप आदमी ऐसी स्थितियों से बच कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझता हैं। घूमते-घूमते अब मैं सब्जी-मंडी के दूसरी ओर हैंडपंप तक आ गया था। लोगों की लम्बी कतार के बीच काकी भी अपनी बाल्टी लिए दीख गयी।
मैं मुस्कुराया, "आपकी दुकान के पास क्या हल्ला-हंगामा हो रहा था?"
काकी कतार से बाहर आ गयी थी, "बाबू, आप ही बताओ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा?"
"पर हुआ क्या?"
"पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था। उसका खर्चा बच जाता था। जबसे सब्जी महंगा हुआ है, हम अपने-ही गोभी का डंठल और सूखा साग खा रहा है, उसको कहाँ से देगा? उसको दे देगा तो महाजन का कर्जा कौन तोड़ेगा?" काकी की आँखें भर आयी थी। आँखों में दिल का दर्द छलक आया। मैं खामोश हो गया। कुछ समझ नही आया तो मैं आगे बढ़ गया. पास के सैलून से गाने की आवाज़ आ रही थी, "सखी सैयां तो खूब ही कमात है, महंगाई डायन खाय जात है".

Thursday, January 6, 2011

हैप्पी न्यू इयर

नए साल की पहली सुबह मैं बाज़ार की ओर निकला तो सामने से मंद-मंद मुस्काते, झूमती चाल से आते मटकू भईया दिख गए!
हाथ जोड़ कर हमने कहा - "भईया प्रणाम. हैप्पी न्यू इयर!"
अचानक भईया ने हमें गले से लगाया और बोले, "तुम्हे भी नया साल मुबारक. वैसे इस नए साल में कुछ भी नया नही होगा."
मैंने व्यंग के तीर छोड़े, "आप इतने निराशावादी क्यों बन जाते हैं?"
"तुम्ही बताओ -

जब होगा नया साल
नेता नहीं करेंगे घोटाले?
पुलिसवाला नही खायेगा माल?
बाबू नही रहेंगे बैठे-ठाले?

हत्याएं नही करेंगे माओवादी?
बराबरी का समाज होगा?
बेलगाम नही होंगे अपराधी?
क्या कानून का राज होगा?

ठण्ड से कांपते हाथों को
अलाव की गर्मी मिलेगी?
भूख से ठिठुरी अंतरियों को
भोजन की नरमी मिलेगी?

यूँ तो चचा "ग़ालिब" कह गए
दिल बहलाने को ये ख़याल अच्छा है.
होगी नयी सुबह, कई साल नए
गर दिल में अरमान सच्चा है."

मैं मुस्कुरा दिया तो भईया भी मुस्कुराने लगे. बोले,"कई राष्ट्रवादियों को लगता है कि हमें अंग्रेजी कैलेंडर छोड़ कर हिंदी कैलेंडर अपनाना चाहिए."
"आपको क्या लगता है?" मैंने सवाल दागा.
"मुझे ये लगता है कि ईसाई कैलेंडर अगर ईसा-मसीह के जन्म से शुरू होता है तो क्रिसमस १ जनवरी को क्यों नही मनाते हैं, २५ दिसंबर को क्यों मनाते हैं?"
मुझे हैरान-परेशान कर भईया फिर चले गए थे....