बारिश जैसे ही थमी,
मैं तेज़ी से बाज़ार की ओर चल दिया. रास्ते में मैंने देखा कि भीड़ लगी है. मन में
उत्सुकता हुई कि देखूँ तो, आखिर बात क्या है. पास पहुँचते ही डमरू की डुगडुग के
साथ ही जोर की आवाज़ आई –
“जम्हूरे, साहब
लोगों को खेल दिखायेगा?”
“हाँ उस्ताद
दिखायेगा”
“क्या खेल
दिखायेगा?”
“रस्सी पर करतब
दिखायेगा उस्ताद”
“जम्हूरे, साहब लोग
खुश हुए तो पैसे देंगे”
“हाँ उस्ताद, पैसे
मिलेंगे तभी तो पेट चलेगा”
“तो साहब लोगों को
खुश करेगा जम्हूरे?”
“हाँ उस्ताद”
“और ये तेरा बन्दर
क्या बैठे-बैठे रोटियां तोड़ेगा?”
“ना उस्ताद, ये भी
खेल दिखायेगा. आखिर पापी पेट का सवाल है. क्यों रे मोहन (बन्दर)?”
जवाब में बन्दर
गुलाटियां मारता है, उस्ताद डमरू बजाता है और भीड़ तालियाँ बजाती है. मैं आगे बढ़
जाता हूँ. भूख के सामने जब शेर हंटर के आदेशों का पालन करने को मजबूर हो जाता है
तो ये तो बन्दर ही है. और जम्हूरे की क्या बात करूँ? सरकारें लाख कहती रहें कि “सब
पढ़ें, सब बढ़ें”, सारे जम्हूरे ये ही कहते हैं कि “माई-बाप, पापी पेट का सवाल है”. ऐसे
में “बाल-श्रम” और “पशु-क्रूरता” निषेध जैसी बातें मजाक लगने लगती हैं.
खैर, मैं आगे बढ़ा तो
एक पुराने परिचित मिल गए. कहने लगे कि आज-कल बड़े भागे-भागे फिरते हो. बात क्या है?
मैंने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं, बस काम थोड़ा बढ़ गया है और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ
भी, सो ज़रा मसरूफ़ हो गया हूँ. वे बोले कि आज कोई बहाना नहीं चलेगा. बड़े दिनों पर
मिले हो. एक कप चाय तो साथ में पी ही सकते हो. मैंने कहा कि क्यों नहीं किंतु आज
की चाय मेरी तरफ से. वे तुरंत राजी हो गए. मैंने चाय के साथ समोसे भी मँगवा लिए.
मेरे मित्र ने पहला कौर उठाया, आँखें बंद कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और मेरी तरफ
देख कर बोले – अन्नदाता सुखी भवः! मैं मुस्कुरा उठा. शायद मेरा मुस्कुराना उन्हें
अच्छा नहीं लगा था. उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मेरी ओर मुखातिब थी. मैं बोला –
“पता नहीं इस देश का
असली अन्नदाता कब सुखी होगा.”
“सही कहते हो. अभी
कल ही की बात है, शाम को मैं सब्जी लेने निकला. पत्नी की सख्त हिदायत थी कि टमाटर
ज़रूर ले आना. भाव पूछा तो टमाटर पचास रूपए किलो. मैं दाम सुन कर मायूस हो गया. घर
लौटते वक़्त मुझे एक व्यक्ति मिला. उसने बताया कि उसके पास करीब बीस किलो टमाटर बचे
हैं, यदि मैं पूरे लेना चाहूँ तो दो सौ रुपयों में वह उसे बेचने को तैयार है.
मैंने पुछा कि भाई इतना सस्ता? उसने कहा कि मैं किसान हूँ. इस उम्मीद में करीब सौ
किलो टमाटर ले आया था कि शहर में शायद ज्यादा कमाई हो जाए लेकिन मुझे मंडी में
घुसने ही नहीं दिया. दलालों ने कहा कि सारा टमाटर पाँच रूपए के भाव हमें बेच जाओ.
मैं क्या करता? गली-गली घूम कर दिन भर में अस्सी किलो तो बेच लिए पर अब अँधेरा हो
रहा है. इतने टमाटर वापस ले जाऊं तो पचास रूपए इसी का भाड़ा लग जायेगा. कल इसे वापस
लाने के और पचास रूपए लगेंगे, तो अब जो भी मिल जायेगा, वो दाम ले लूँगा.”
“फिर आपने क्या
किया?”
“मैंने उससे कहा कि
मेरे लिए दो किलो टमाटर तौल दे.”
“बाकी के टमाटरों का
क्या हुआ?”
“मैंने उससे कहा कि
बाकी के टमाटर मेरे घर पर रख दो. सुबह और सब्जियों के साथ आना और इन्हें ले जाना.
तुम्हारा भाड़ा बच जायेगा.”
मैं सोचने लगा. भारत
किसानों का देश है. हमारी बहुसंख्य आबादी खेतिहर है, ग्रामीण है. बचपन की एक बात
बताता हूँ. गर्मी की छुट्टियों में एक रिश्तेदार के घर गया था. खेतों के बीच उनके
बड़े से घर के सामने कृषि-उपकरण रखे थे. एक ओर गायें बंधी थी. दृश्य बिलकुल किसी
भारतीय ग्रामीण घर की अवधारणा की प्रतिमूर्ति की तरह जान पड़ता था. घर के पिछवाड़े
आमों का छोटा सा बाग़ था. आम के कोई सात-आठ पेड़ होंगे. लीची और कटहल के भी पेड़ थे.
सुबह से शाम तक बस आम और आराम! उसी दरम्यान उनके पिताजी से मिलने कुछ लोग आये.
बातें चल रही थी. उसी बीच उन्होंने कहा –
उत्तम खेती, मध्यम
बाण
अधम चाकरी, भीख
निदान.
तब इसका मतलब समझ
नहीं आया था. बस शब्द अच्छे लगे और याद रह गए. बड़े दिनों बाद एक दिन मेरे दादाजी
के मुहँ से जब ये ही शब्द सुने तो उनसे मतलब पूछ बैठा. उसका सारांश यही था कि
मिटटी ने हमें पैदा किया, उसी ने हमें पाला और एक दिन उसी मिटटी में मिल जाना है. उसकी
व्याख्या उस दौर के भारतीय जनमानस की मनःस्थिति और मिटटी से उनके जुड़ाव को
भली-भांति रेखांकित करता है. अपनी मिटटी से जुड़ना क्या होता है, उसी दिन समझ आया.
आज का दौर
“मास्टर-शेफ़” का दौर है. पनीर-65 के सामने घी में छौंकी अरहर की दाल फीकी हो गयी है. घर आये
मेहमान को ग्रामीण गृहस्थ भोजन किये बिना जाने नहीं देता था; पर अब क्या गाँव,
क्या शहर, बस एक कप चाय – रिश्ते निभाए! अरे भाई, ये लोगों का दोष नहीं है. महँगाई
तो ज़ालिम होती ही है. बेचारे खिलाने वाले क्या करें? और खानेवाले? वे कहाँ कम हैं.
चावल-दाल-चोखा-भुजिया-अचार आज कल कौन खाता है? भई स्टेटस भी तो कोई चीज़ है! वो दिन
गए जब लोग-बाग एक मुट्ठी सतुआ और एक गाँठ प्याज भर से खुश हो लिया करते थे.
नमक-मिर्च अलग से मिल जाये तो सोने पे सुहागा. तब अगर कोई ना-नुकर करे तो मुहँ पे
ही कह देते थे – ये मुहँ और मसूर की दाल. अब तो दाल इतनी महँगी हो गयी है कि
खरीदने में ही लोगों की दाल न गले!
इसी बात पर मुझे
महाभारत का एक प्रसंग याद आता है. पांडव वनवास में थे. उनकी भार्या द्रौपदी को सूर्य-देव
से एक अक्षय-पात्र मिला था. इसकी विशेषता थी कि पात्र से तब तक भोजन निकलता रहता
था जब तक द्रौपदी इससे भोजन न कर ले. एक बार द्रौपदी ने खा लिया तो फिर अगले दिन
ही खाना मिलता था. तो हुआ यूँ कि एक बार दुर्वासा ऋषि अपने साठ हज़ार शिष्यों के
साथ पांडवों के आश्रम पहुंचे और भोजन की मांग कर दी. ऋषि दुर्वासा अपने क्रोधी
स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे. किंतु परेशानी यह थी कि द्रौपदी भोजन कर चुकी थी.
पांडवो के लिए आगे कुआँ पीछे खाई. ऐसे में उन्हें श्रीकृष्ण की याद आई. वे आये.
पात्र को देखा. पात्र में एक दाना चावल और साग का छोटा सा पत्ता चिपका था. फिर
क्या था! सभी ने मजे से भोजन किया.
किंतु क्या बात इतनी
सी थी? नहीं. ज़रा सोचें. हम रोजाना अपनी थाली में कितना अन्न छोड़ देते हैं. भले ही
कोई कम छोड़े, कोई ज्यादा, बर्बादी तो बर्बादी ही है. वैसे एक बात कहूँगा – यथा
राजा, तथा प्रजा. अभी कुछ दिनों पहले पढ़ा कि FCI के गोदाम में रखे हज़ारों मन अनाज देखरेख के अभाव
में सड़ गए. जाँच में पता चला कि ये अनाज वहाँ सालों पहले रखा गया था. जो लोग
कंप्यूटर प्रोग्रामिंग जानते हैं, वे दो शब्दों से भली-भांति परिचित होंगे – Queue और Stack. Queue वो जहाँ पहले आने वाला
पहले बाहर निकल जाये (FIFO) और Stack वो जहाँ सबसे अंत में आने वाला पहले बाहर निकल जाये (LIFO). गोदामों में जिस
तरीके से सामान रखा जाता है वह का नमूना Stack है. ऐसे में प्रबंधन की जिम्मेदारी बनती है कि
नियत समय से पहले पुराना अनाज वितरण हेतु बाहर निकल जाये.
एक और छोटी सी खबर
पढ़ी – झारखण्ड में भूख से सबर की मौत. बताता चलूँ कि सबर एक लुप्तप्रायः आदिम
जनजाति है. अगले दिन खबर का असर देखने को मिला – प्रखंड पदाधिकारी ने सबर परिवार
को 10 किलो चावल दिया, उपायुक्त ने कहा कि किसी को भी भूख से मरने नहीं दिया
जायेगा, चिकित्सा पदाधिकारी का दावा कि मौत की वजह भूख नहीं, बीमारी थी. एक और खबर
आई – झारखण्ड में 67% किशोरियाँ अनीमिया की शिकार. इनमे शहरों में रहने वाली और
गरीबीरेखा से ऊपर की लडकियाँ भी शामिल हैं. एक और खबर – मध्याह्न भोजन की ख़राब
गुणवत्ता के कारण बच्चों ने खाना खाने से इनकार किया. ऐसी अनेक ख़बरें हैं जो मैं
पढ़ता रहता हूँ. आप हिंदुस्तान में जहाँ भी रहते हों, ऐसी ख़बरें कमोबेश आपके
निगाहों से होकर भी गुजरती होंगी.
सरकार की अनेक
योजनायें हैं कि गरीब को एक रूपए किलो अनाज और न जाने क्या-क्या. क्या सिर्फ
योजनायें काफी हैं? उचित गुणवत्ता और मात्रा की बात कोई नहीं करता. यहाँ एक और
सवाल प्रासंगिक है – सरकारी योजनायें मुफ्त क्यों? सिर्फ वोट के लिए? क्यों न
लाभुकों से साफ-सफाई जैसे आसान और जनोपयोगी कार्य कराये जायें? उन्हें भी संतोष
होगा कि वे मेहनत की कमाई खा रहे हैं, मुफ्तखोरी नहीं कर रहे और समाज (जिसका
अभिन्न अंग वे स्वयं हैं और कार्य का सीधा फायदा उन्हें ही होगा) को भी फायदा हो!
साथ ही हर योजना को घुन की तरह खोखला कर रहे दलालों पर भी लगाम लगेगा.
“मैं चलता हूँ. कभी
घर पर आओ. इत्मिनान से बैठ कर बातें करेंगे.”
मैं जैसे नींद से
जागा, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं. अब मैं भी चलता हूँ.” उनसे विदा लेकर मैं तेज़ क़दमों
से सब्जीमंडी आ गया. काले-काले बादल उमड़-घुमड़ रहे थे. कब बरस जायें, कोई ठिकाना
नहीं. सोचा कि जल्दी से दो-चार सब्जियाँ लेकर घर चलूँ, कि देखा कि सड़क पर हरा पानी
बहा चला आ रहा है. सब्ज़ीवाले ने आवाज़ लगाई – ओ भैया, जरा हटिये. ये वो रंगवाला
पानी था जिसे पटल (परवल) रंगने के लिए इस्तेमाल किया गया था. आगे देखा कि नेनुआ और
भिंडी भी हरे पानी में डुबकियाँ लगा रही है. बिचारा टमाटर तो तेल-पानी में तैर रहा
है. मंडी से निकला तो बदबूदार नाले के किनारे लगे ठेले पर क्या बच्चे, क्या जवान,
सभी पूरी-सब्ज़ी-जलेबी खाने में मगन हैं. मैगी पर तो आपने प्रतिबन्ध लगा दिया साहब,
इनका क्या करेंगे? क्या ऐसे लाखों खोमचेवाले हर दिन हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़
नहीं करते? इनपर कार्रवाई की बात आये तो गरीब-विरोधी का ठप्पा लगने का डर हो जाता
है.
पुरानी कहावत है –
जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन. क्या हम सही भोजन कर रहे हैं? क्या भोजन की
गुणवत्ता और मात्रा उचित है? क्या हमारा भोजन हमें उचित पोषण देने में सक्षम है?
क्या भोज्य-पदार्थों की खरीद-बिक्री पूरी तरह से आर्थिक गतिविधि है या देश का
भविष्य इस पर निर्भर है? अनेक प्रश्न हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. मैंने अपने मन
की बात कही. अब फैसला आपके हाथ छोड़ता हूँ.
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