Sunday, June 21, 2015

मेरे मन की बात


इस संसार मे इन्सान होने के भौतिक मायनों से बढ़कर हैं वे सूक्ष्म मायने जो हमारे मन मस्तिस्क को संचालित व नियंत्रित करते है. मानव चेतना दो अलग-अलग स्तरों पर संचालित होती है. एक मन और दूसरा बुद्धि. इनमें जब भावनाएँ जुड़ती हैं तो एक बहुआयामी आभासी संसार का निर्माण करती है. इसकी जटिल प्रक्रियाएँ व्यक्ति को कभी हँसाती है तो कभी रुलाती है. जिस प्रकार सागर में निर्बाध रूप से लहरों के उठने-गिरने का सिलसिला चलता रहता है उसी प्रकार मानव मन में विभिन्न भाव स्पंदित होते रहते है. उनमे कुछ अच्छे होते हैं, कुछ बुरे. कई बार भाव शब्दों का सहारा खोजते है तो कई बार जल-धारा में परिवर्तित हो अपने होने का प्रमाण दे जाते है. विचार – उद्गार – सम्वाद की त्रिवेणी ही तो मन की बात है. कभी लगता है कि मन की सारी बातें कह डालूँ. कभी लगता है कि क्या यह उचित है ? कहीं ऐसा न हो कि मूल मुद्दा पीछे छूट जाए. यह डर अकारण नहीं है. कवि रहीम ने भी कहा था –

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोए,   

सुन अठिलैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोए.

 

किन्तु फिर मन-ही-मन विचार किया कि -

वह नर ही क्या

जो पी न सके दावानल को,

झंझावातों को न झेल सके

उद्दात लहरों से न खेल सके

 

इसलिए मैने भी कमर कस लिया है. कुछ विचार हैं, विचारों के स्तर पर. कुछ मुद्दे है, रोज़मर्रा के. कुछ बाते कहूँगा. बिलकुल बुनियादी बातें. ऐसी बातें जिनसे आपका और हमारा रोज़ का सरोकार है. मेरे मन की बातें.

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