Wednesday, April 6, 2016

एक मुलाकात: पहाड़ों की रानी से (दार्जीलिंग)


   यूँ तो भारतवर्ष में उनतीस राज्य हैं और हर एक अपने आप में अनोखा-अनूठा है, पश्चिम बंगाल की बात ही निराली है. हो भी क्यों न? है कोई भारत का राज्य कि हिमालय जिसके सर का ताज हो और सागर जिसके पांव पखारता हो? गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिस धरती को पावन करती हों, और जिसने टैगोर और सुभाष जैसे पुत्र देश को दिए, वह धरती ख़ास तो होगी ही. अपनी तमाम भौगोलिक-सांस्कृतिक खूबियों के कारण ही पश्चिम-बंगाल पर्यटकों की पहली पसंद है.

   इस राज्य के उत्तर में स्थित है दार्जीलिंग. इसे आप पहाड़ों की रानी भी कह सकते हैं. दार्जीलिंग जिस के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है, वह है यहाँ की चाय. हिमालय पर्वत-श्रृंखला की तीसरी सबसे ऊँची चोटी “कंचनजंगा” के विहंगम दृश्यों के लिए भी दार्जीलिंग विख्यात है. मेरे जितने भी मित्र हैं, वे सभी कभी-न-कभी दार्जीलिंग की सैर का लुत्फ़ उठा चुके हैं. आखिर मैं कब तक पीछे रहता?

   जब बच्चों की परीक्षाएँ ख़त्म हुईं तो हमने भी सैर करने की ठानी. आनन-फानन में रेल की टिकटें ली गई. जिस तारीख की टिकटें मिलीं, उनमे स्कूल ने अचानक ही अपनी तिथियों में परिवर्तन कर रिपोर्ट-कार्ड देना तय कर दिया. इसे कहते हैं सर मुंडाते ही ओले पड़ना! खैर, टिकटें रद्द की गईं और नए सिरे से लीं गई. नियत समय पर हम जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि ट्रेन दो घंटे देर से आयेगी. हम इंतज़ार करते रहे और घंटा बीतते-बीतते ये पता चला कि ट्रेन अब चार घंटे देर से आयेगी. हमारे तो होश फाख्ता हो गए. हमें हावड़ा से दूसरी ट्रेन पकड़नी थी. तभी हमारे एक मित्र ने बताया कि एक दूसरी ट्रेन है जो हमारी ट्रेन से दो घंटे पहले जाती किन्तु वह भी चार घंटे देर से चल रही है. उसने कहा कि अगर तुम कोशिश करो तो शायद काउंटर से आरक्षित टिकट मिल जाये. अँधा क्या चाहे – दो आँख! काउंटर पर पहुंचे तो किस्मत ने हमारा साथ दिया और हम दूसरी ट्रेन पकड़ने में कामयाब रहे. सच पूछें तो जब मैं अपनी बर्थ पर लेटा था, तब भी मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी अड़चनों के बाद भी हम दार्जीलिंग जा रहे हैं.

Tea gardens in Dhumdangi, West Bengal
धुमडांगी के चाय बागान 
Pineapple cultivation
अन्नानास की खेती, पीछे चाय के बागान 
Crossing River Mahanda after Dhumdangi
महानंदा नदी को पार करते हुए.... 
   सुबह हुई तो देखा कि ट्रेन धुमडांगी स्टेशन से गुजर रही है. तेजी से पीछे छूटते चाय के बागानों ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया. अभी तो हम मैदानी इलाके में ही थे और अभी से चाय-बागानों के नज़ारे! जब आगाज़ ऐसा हो तो अंजाम कैसा होगा? बहरहाल, तीव्र गति से भागती ट्रेन की खिड़की से इन अद्भुत नजारों का आनंद लेने में हम इतने खो गए कि पता ही नहीं चला कि कब न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन आ गया.

अभी हम प्लेटफार्म से बाहर आ ही रहे थे कि एक सज्जन हमारे पीछे पड़ गए. कहने लगे कि गाड़ी भाड़े पर ले लो. हमने उन्हें टरकाया कि भई हम तो प्री-पेड काउंटर से ही गाड़ी लेंगे तो कहने लगे कि हम उनसे कम में आपको ले जायेंगे. मैंने पुछा – कितना लोगे? उन्होंने कहा – पंद्रह सौ. मैंने कहा – आठ सौ में दार्जीलिंग चलोगे? मैंने सोचा कि अब उनसे पीछा छूटा लेकिन उन्होंने हमारे हाथ से बैग ले लिया और बोले – चलेंगे न. आप हज़ार दे देना. मैंने फिर से कहा – आठ सौ में चलना हो तो बताओ. वे बोले – अच्छा आप नौ सौ दे देना. इस से कम में कोई नहीं जायेगा. मैंने कहा – गाड़ी कहाँ है? पहले गाड़ी दिखाओ तो बात बने. वे बोले – सर हमारी गाड़ी बाहर खड़ी है. आप चल कर देखें. अच्छा लगे तो चलना. उनका आत्मविश्वास देख मैंने सोचा कि चलो देख ही लिया जाये.

सिक्किम ट्रेवल्स के श्री बिजय रॉय


वे आगे-आगे और हम पीछे-पीछे. वे सीधे सिक्किम ट्रेवल्स के ऑफिस में प्रवेश कर गए. वहाँ हमें बिजय रॉय मिले. अत्यंत ही वाक्-चतुर और मिलनसार. उन्होंने हमें इस बात के लिए तैयार कर लिया कि हम न्यू जलपाईगुड़ी से वापस न्यू जलपाईगुड़ी तक उनके वाहनों की सेवाएँ लेंगे. उन्होंने हमें बताया कि दार्जीलिंग में मुख्यतः तीन तरह के टूर चलते हैं – थ्री-पॉइंट, फाइव पॉइंट और सेवेन पॉइंट. इन तीनों के अलावा लौटते वक़्त वो हमें मिरिक के रास्ते घुमाते हुए लायेंगे. थोड़े मोल-भाव के बाद बात साढ़े-सात हज़ार पर तय हुई. कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के बाद हमें एक स्विफ्ट-डिजायर मिली. हमने अपना सामान उसमे डाला और चल पड़े.
Road bridge over Mahananda
महानंदा नदी पर सड़क-पुल 


coming out of Siliguri
सिलीगुड़ी से बाहर निकलते हुए 


Crossing the Chumta tea estate
चुमटा चाय बागान के बगल से गुजरते हुए, ध्यान दें कि
    हमारे दाहिनी ओर दार्जीलिंग हिमालयन रेल की पटरियां हैं.   

जब हम सिलीगुड़ी शहर से बाहर आये तो दो बातों ने मेरा ध्यान खींचा – पहली थी दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे की पटरियाँ जो सड़क के सामानांतर हमारी हमसफ़र बनी हुई थीं और दूसरी थी सड़क के किनारे साल के लम्बे पेड़ जिनकी सूखी पत्तियों ने ज़मीन को ढँक रखा था. साल एक पर्णपाती वृक्ष है जो पतझड़ में अपने पुराने पत्ते मिट्टी को उर्वर बनाने को त्याग देता है. जब हम आगे बढ़े तो गाड़ी एक बायाँ मोड़ लेकर जंगल जैसे क्षेत्र से जाने लगी. ये सुकना वन-क्षेत्र था. यहाँ भी साल के वृक्ष बहुतायत में थे. इस ओर प्रवेश करने के बाद टॉय-ट्रेन की पटरियों ने हमारा साथ छोड़ दिया. जंगलों से होता रास्ता आगे चल कर आर्मी क्षेत्र से गुज़रा. हरे-भरे चाय बागानों के बीच से गुज़रते हमें इसके सेना-क्षेत्र होने का एहसास तब होता जब कोई सैन्य-वाहन गुज़रता या रंगरूटों की कतारें नज़र आती. आज के भौतिकवादी दौर में जब निष्ठा बेहद कम कीमत में बिकाऊ है, कठिन परिस्थितियों में देश-सेवा का जज़्बा देख भारतीय सेना के प्रति मन सम्मान से भर गया.

हम आगे बढे तो एक चौराहा मिला. हमारे ड्राईवर ने बताया कि सीधा रास्ता मिरिक को जाता है, बायाँ सैन्य-क्षेत्र है और हम मुड़ेंगे दाहिने यानि कि कर्सियांग की ओर. ये सड़क रोहिणी रोड कहलाता है. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ने लगे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ तेज़ी से हमारी ओर आने लगे. मनमोहक नजारों और चाय के बागानों के बीच हमारी गाड़ी सरपट दौड़ी जा रही थी. अभी तक जो पतझड़ का सा नज़ारा हम देखते आ रहे थे, वह हरियाली में बदलने लगी थी. नई प्रजाति की वनस्पतियाँ अब दृष्टिगोचर होने लगी थी. ड्राईवर ने दूर पहाड़ों पर बसे बस्ती की ओर इशारा कर बताया कि वो कर्सियांग है. अत्यंत ऊंचाई पर बसे शहर को देख मैंने आकलन किया कि वह ज़रूर हमारी वर्तमान स्थिति से तीन-चार हज़ार फुट की ऊंचाई पर होगा और हमें वहाँ पहुँचने में तो अभी कई घंटे लगेंगे.
Welcome to Darjeeling
दार्जीलिंग में आपका स्वागत है 
मैं अभी अपनी उधेर-बुन में ही था कि एक विशालकाय द्वार ने दार्जीलिंग में हमारा स्वागत किया और शीघ्र ही हमारे सपाट रास्ते चढ़ाई में बदलने लगे. टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्तों पर सरपट भागती गाड़ियाँ कभी मनभावन लगती तो कभी डरावनी. दोपहर होने को थी और पेट में चूहे कूदने लगे थे. हमारे अनुरोध पर ड्राईवर ने रोहिणी स्थित मुस्कान होटल के सामने गाड़ी खड़ी कर दी. 


Muskan Hotel in Rohini, Raju-the owner
मुस्कान होटल के मालिक श्री राजू 


The menu board of Muskan hotel


हम अन्दर गए तो एक हंसमुख शख्स ने हमें बैठने को कहा. हमने उन्हें बताया कि हम शाकाहारी खाना पसंद करेंगे. उन्होंने बताया कि यदि हम थोड़ा समय दें तो वे आलू पराठा और मोमो दे पाएंगे. सच कहूँ तो होटल की हालत देख मैंने बहुत उम्मीदें नहीं पाली थीं लेकिन कीमत और गुणवत्ता का मेल मुझे अत्यंत प्रफुल्लित कर गया.
Way to Kurseong 1
 जरा इन घुमावदार रास्तों को देखिये 


Way to Kurseong 2
इस जगह से दूर मैदानी क्षेत्र से गुजरती नदी की 
हल्की परछाई शायद आपको नज़र आ जाये 


Way to Kurseong 3
इन सुरम्य वादियों का क्या कहना 


Passing through the tea gardens of Kurseong
रोहिणी के चाय बागानों से गुजरते हुए 


तरोताज़ा होकर हम आगे बढ़े तो सीधी चढ़ाई और तीखे अंध-मोड़ों वाले रास्ते मानो हमारी जान सुखा देने को तैयार बैठे थे. चाय के बागानों के बीच से गुजरते हुए मैंने ध्यान दिया कि तीखी ढलान वाले पहाड़ों पर चाय के पौधे सीधे न लगा कर सीढ़ीनुमा खेती की तरह लगाये गए थे. शायद लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रख कर ऐसा किया गया होगा. सड़क के एक तरफ घाटी तो दूसरी तरफ पहाड़! घाटियों में चाय के बागान, हरी-भरी वादियों के बीच सर्प से रास्ते और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की श्रृंखलाएँ जो दूर कहीं धुंध में खो जा रही थीं. क्या लिखूँ, कितना लिखूँ? अद्भुत नज़ारा था. वर्णनातीत!
Approaching Kurseong
खूबसूरत कर्सियांग


Eagle's Craig view visible from the road
कर्सियांग का नज़ारा, बाईं ओर ऊपर ईगल्स क्रेग व्यू पॉइंट



Its raining in Kurseong
बूंदा-बांदी शुरू 


The beauty of Kurseong
खूबसूरत कर्सियांग

Organic Tea
कर्सियांग से आगे आर्गेनिक चाय के बागान 


बात की बात में कर्सियांग हमारे स्वागत को तैयार मिला. हमने ड्राईवर से अनुरोध किया कि ईगल व्यू पॉइंट दिखा दे लेकिन वह तैयार नहीं हुआ. सच कहूँ तो मुझे बुरा लगा, गुस्सा भी आया, लेकिन मैं भी जल्दी से जल्दी दार्जीलिंग पहुंचना चाहता था. ट्रेन की वजह से तो हमें देर हुई ही थी, सिक्किम ट्रेवल्स में भी हमने कोई एक घंटा गँवा दिया था. शैतान बादलों ने सूरज के साथ आँख-मिचौली शुरू कर दी थी. बीच-बीच में हल्की बूंदा-बांदी मौसम को ठंडा करने लगी थी. अब तक तो हम आराम से गाड़ी के शीशे नीचे किए हुए थे लेकिन मौसम ने हमें मजबूर कर दिया कि हम ठंड से अपना बचाव करें. ऊँचे-नीचे टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रास्तों से होते हुए हम घूम स्टेशन के सामने से गुज़रे. यहाँ चार रास्ते मिलते हैं. सीधा रास्ता दार्जीलिंग को जाता है, बायाँ वाला मिरिक की ओर और दाहिना रास्ता कलिम्पोंग ले जाता है. घूम के बारे में विस्तार से बताऊंगा लेकिन बाद में. अभी तो दार्जीलिंग पहुंचना है. 


Road repair work in progress, Darjeeling
सड़क पर मरम्मत का काम, ध्यान दें कि कर्सियांग से 
दार्जीलिंग हिमालयन रेल की पटरियाँ फिर हमारे साथ हो गईं 



Beautiful valleys of Darjeeling
दार्जीलिंग के खूबसूरत पहाड़  

मौसम अब ठीक होने लगा है लेकिन रास्ता कई जगहों पर टूटा-फूटा है और मरम्मत का काम चल रहा है. ड्राईवर ने बताया कि पर्यटकों की भीड़ बढ़ने से पहले हर साल रास्तों की मरम्मत की जाती है ताकि ये यातायात का दबाव झेल सकें. बहरहाल घड़ी की सुइयां दो बजाती, इससे पहले ही हम ऐलिस विला होटल के अपने कमरे में थे.

होटल के मालिक श्री धीरेन प्रधान ने पहुँचते ही हमारे कमरे का गीज़र ऑन करवा दिया. गरम-पानी से स्नान के बाद गर्म चाय की घूँट ने सफ़र की थकान मानो मिटा दी थी. चार बजते-बजते हम चौरास्ता घूमने को तैयार थे. हमने श्री प्रधान को जब अपनी इच्छा बताई तो उन्होंने होटल के सामने एक गली से जाने को कहा. ये गली दरअसल भूटिया-मार्केट था. करीब सौ मीटर की गली से जब हम निकले तो अपने आप को नाथमुल्ल्स की चाय भण्डार के सामने पाया.

आस-पास का नज़ारा बड़ा ही गज़ब का था. हमारे सामने एक विशाल मैदान था जिसके किनारे लगे बेंचों पर अनगिनत लोग बैठ कर नजारों के साथ-साथ चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहे थे. बायीं ओर एक विशाल स्क्रीन पर कुछ दिखाया जा रहा था तो दायीं ओर कुछ लोग खच्चरों को लिए खड़े थे. हम कुछ देर वहाँ खड़े माहौल का आनंद लेते रहे और फिर महाकाल मंदिर की ओर बढ़ चले. मंदिर को जानेवाले रास्ते पर हमें एक वृक्ष दिखाई दिया जिसके फूल कमल के फूल की तरह के प्रतीत होते थे. हल्के गुलाबी रंग के फूलों को देख कर मन में ये ख़याल आया कि शायद ऐसा ही कोई फूल हिमालयों से उड़ कर द्रौपदी तक पहुँच गया होगा और फिर उसकी तलाश में महाबली भीम निकल पड़े थे. पूछ-ताछ करने पर पता चला कि स्थानीय लोग इसे “चाप” कहते हैं. बाद में ज्ञात हुआ कि सुंदर मोहक फूलों से लदे ये पेड़ दरअसल मैगनोलिया कहलाते हैं.
Entrance to Mahakal temple
महाकाल मंदिर का प्रवेश द्वार 



मैगनोलिया के फूल 


Prayer Wheels at Mahakal Temple, Darjeeling
महाकाल मंदिर स्थित प्रार्थना चक्र 


तकरीबन पंद्रह मिनट की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद हमें तोरणों से सजा महाकाल मंदिर का द्वार दिखाई दिया. धागों पर लटकती ये रंग-बिरंगी झंडियाँ दरअसल प्रार्थना लिखे पत्र थे जो श्रद्धालु अपने देव को अर्पित करते हैं. भूटानी-तिब्बती अंदाज़ वाला ये शिव-मंदिर अत्यंत शांत और मनोरम जगह पर स्थित है. इस ऊँची पहाड़ी से आप चारो ओर बसे दार्जीलिंग का अद्भुत दृश्य देख सकते हैं, या चाहें तो विशाल प्रार्थना चक्र घुमा कर देवों की आराधना कर सकते हैं. कुछ समय मंदिर परिसर में बिताने के बाद हम वापस लौट चले. नीचे भूटिया-मार्केट लगा था. सड़क किनारे दुकानों की कतारें थीं जिनमे भांति-भांति के गर्म कपड़े, खिलौने और सजावटी सामान बिक रहे थे. हम जिस भी दुकान के सामने से निकलते, दुकानदार हमारा ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते. वैसे तो सभी दुकानदार चाहते थे कि राहगीर उनकी दुकान पर आयें पर कुछ ऐसे राहगीर भी थे जिनसे सबने तौबा कर रखी थी. ये थे बन्दर! अगर आप भी कभी जाओ तो जरा सावधान रहना. वैसे तो ये कुछ नुक्सान नहीं पहुंचाते पर जब दस-बीस बंदरों का झुण्ड अचानक ही सड़क पर भागने लगे तो क्या होगा, इसकी सहज कल्पना ही की जा सकती है.

Tea at Nathmulls, Darjeeling
नाथमुल्स की चाय


अब शाम ढलने लगी थी. हमने आस-पास की गलियों का परिभ्रमण किया और चले आये नाथमुल्स. यहाँ हमने चाय की कई किस्में देखीं. हमें बताया गया कि चाय की पत्तियाँ साल में तीन बार तोड़ी जाती हैं. चाय का स्वाद इस बात पर निर्भर करता है कि वे कौन से बागान की हैं, उन्हें कब तोड़ा गया और उन्हें किस प्रक्रिया से गुजार कर पत्तियाँ बनाई गई हैं. यहाँ आकर हमें एहसास हुआ मानो हम “चाय के अवध”  में चले आये हों. नज़ाकत-नफ़ासत से भरपूर दार्जीलिंग की चाय अपने रंग से ज्यादा अपनी खुशबु और ताज़गी के लिए जानी जाती है. आपको बताते चलें कि दार्जीलिंग की चाय को हाल ही में geographical location tag मिला है. इससे विश्व-बाज़ार में न सिर्फ इसकी कीमतों में इजाफ़ा हुआ है बल्कि इसकी इज्ज़त भी बढ़ी है. अपनी प्रतिष्ठा बनाने-बढ़ाने के लिए चाय बागान के मालिक अब आर्गेनिक खेती का रुख कर रहे हैं. इस टैग का एक महत्व यह भी है कि अब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सिर्फ और सिर्फ वही चाय “दार्जीलिंग-चाय” के नाम पर बिक पायेगी जो दार्जीलिंग के बागानों से आई हों.

अब शाम के सात बजने को हैं. हम ठंड से अब थरथराने लगे हैं. शायद ये सही समय है कि अपने कमरे में वापस चला जाये. वापस लौटते समय हमने देखा कि भूटिया-मार्केट की अधिकांश दुकानें बंद हो चुकी हैं. कमरे में आ कर हमने रूम-हीटर ऑन कर दिया. रूम-हीटर ने कमरे में और भोजन ने हमारे अंदर गर्मी का संचार कर दिया. लंबी यात्रा की थकान ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है. कल की बात अब कल करेंगे.

#Darjeeling #DarjeelingTea #MahakalTemple #NewJalpaigudi

Wednesday, March 23, 2016

आई होली रे

आया है फाग, संग रंग रास राग 
धूम मचने दो आज, आई होली रे । 

गली में हुड़दंग, बाजे ढोल और मृदंग 
आज फड़के अंग-अंग, आई होली रे ।

उड़ते गुलाल, लाल-हरे-पीले गाल 
छोड़ो मन के मलाल, आई होली रे ।

पूए और पकवान, साथ खुशबु वाले पान 
आज हो सबका मान, आई होली रे ।

शिकवे-गिले भूल, खींच फेंको दिल के शूल 
होली का है यही मूल, आई होली रे ।

Saturday, March 5, 2016

अलविदा मैसूर


   सुबह-सुबह जब सूरज की पहली किरणें, बगैर दस्तक, झरोखे से दाखिल हो गईं तो हमारी आँखें खुली। हमने ज़रा-सा पर्दे सरकाए तो अपने को मैसूर शहर की चहल-पहल के बीच पाया। काम पर जाते लोग, सिटी-बस के रेले, सफाई-कर्मियों के झाड़ू से उड़ती धूल, चौराहे के किनारे जीप लगा कर चौकसी करते पुलिसवाले; सब कुछ अपने जमशेदपुर जैसा ही तो था! सच कहूँ तो मैसूर ऐसा पहला शहर मिला जिसका मिजाज़ अपनी लौहनगरी का सा है।

   मैसूर में आज हमारा दूसरा दिन है। कल की अविराम यात्रा की थकान मिट चुकी है और हम नए सिरे से नयी जगहों से वाकिफ़ होने को तैयार हैं, पर पहले ज़रा नाश्ता तो हो जाये! सुबह-सुबह दक्षिण-भारतीय और कॉन्टिनेंटल व्यंजनों से सजी बुफे-ब्रेकफास्ट की टेबल हमारा इंतज़ार कर रही थी। हमने हरीश को कहा कि वह भी नाश्ता निपटा ले ताकि हमें निकलने में देर नहीं हो।

   तकरीबन नौ-सवा नौ बजे हम मैसूर महल पहुंचे। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि टिकटों की बिक्री तकरीबन घंटे भर बाद शुरू होगी। हरीश ने हमें सुझाव दिया कि क्यों न तब तक संत फिलोमेना गिरिजाघर देख लिया जाये। हमें यह विचार अत्यंत पसंद आया। फिर क्या था – कुछ ही मिनटों में हम गिरिजाघर के बाहर खड़े थे।
St. Philomena Church mysuru

St. Philomena Church mysuru
   वहाँ जो ईमारत खड़ी थी, वह हैरतअंगेज तरीके से जर्मनी के कोलोन कैथेड्रल से मेल खाती थी। हम अन्दर गए। वहाँ प्रार्थना सभा चल रही थी। हमने भी कुछ समय वहाँ बिताया। फिर बाहर आ कर परिसर घूमने लगे। ये गिरिजाघर काफी ऊँचा है और बहुत बड़े परिसर में फैला हुआ है। जब हम वापस आ रहे थे तो मुख्य-द्वार पर खड़े फोटोग्राफर ने पूरे परिवार का फोटो खींचने में हमारी काफी मदद की। बदले में हमने भी उससे एक-दो तस्वीरें खिंचवा लीं। उसने पाँच मिनट में ही उसकी प्रिंट निकाल कर ला दी। अब बारी थी मैसूर पैलेस देखने की। सो हम वहाँ से चल दिए।


Mysore Wadiyar Palace

   मैसूर पैलेस के पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके हमने टिकट लिया और अन्दर चले गए। वहाँ एक जगह हमने अपने जूते जमा किए। हमें पहले एक ऐसे कमरे से जाने को कहा गया जहाँ चीज़ें बिक्री की जा रही थीं। ऐतिहासिक स्थल का ऐसा व्यवसायिक इस्तेमाल देख कर कोफ़्त तो बहुत हुई पर हम कर भी क्या सकते थे। आगे जा कर हमने दरबार देखा और अंतःपुर देखा। राजा को मिले अनगिनत भेंटें भी यहाँ प्रदर्शित की गयी हैं। राज-परिवार के अनेक सदस्यों के चित्र भी प्रदर्शित थीं। इस महल के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब और ज्यादा लिखना सूरज को दिया दिखाने समान होगा। बहरहाल हम यहाँ कोई डेढ़-पौने दो घंटे का समय बिता चुके थे। हमें होटल जा कर चेक-आउट भी करना था। तो हमने बिना देर किए होटल का रुख किया। अपना सामान समेट हमने वहीँ खाना खाया, चेक-आउट की रस्में पूरी की और वापसी को निकल पड़े।


Sand Museum Mysuru
   हमारा अगला पड़ाव था – सैंड म्यूजियम! यहाँ टिकट ले कर हमने प्रवेश किया तो अंदर कलाकार की मेहनत देख कर हैरान हुए बिना नहीं रह सके। हालाँकि जिन लोगों ने पुरी (ओडिशा) या आस-पास के सैंड-आर्टिस्ट की कलाकृतियाँ देखी हैं, उनके मानकों पर ये कहीं से खड़ी नहीं उतरती पर फिर भी इन अद्भुत कलाकृतियों को देखना एक अलग तरह की सुखद अनुभूति प्रदान करता है।
Ganpati at Sand Museum Mysuru

Sun on his chariot at Sand Museum Mysuru
   गणपति, सूर्यदेव और वाडियार राजाओं की कलाकृतियाँ सराहनीय बनी हैं। सभी कलाकृतियों को देख कर कलाकार की मौलिकता और कल्पनाशीलता की सहज अनुभूति होती है। यहाँ हमने कोई बीस मिनट बिताए और अगले पड़ाव की ओर बढ़ चले।


Daria Daulat Bag Mysore

   तकरीबन पंद्रह मिनट के रास्ते पर आया – “दरिया दौलत बाग”। बाग़-बगीचों से घिरा ये छोटा सा लकड़ी का महल टीपू-सुल्तान का ग्रीष्म-कालीन आवास था। हमने इसके बागीचों का आनंद लिया किन्तु महल में कुछ मरम्मत-कार्य चल रहे होने की वजह से हम अन्दर नहीं जा सके। यहाँ आधे घंटे का समय बिता कर हम “गुम्बज़” पहुंचे।
Gumbaz, Mysore
   यह टीपू के पिता की समाधि है जहाँ बाद में खुद टीपू और उनकी माता को दफनाया गया। इस की स्थापत्य कला अनोखी है और हरियाली से घिरे इस जगह को देख कर लगा कि चिर-निद्रा में लीन परिवार को इतना सुकून तो मिलना ही चाहिए। आधा घंटा बिता कर जब हम वहाँ से बाहर निकले तो फुटपाथी दुकानदारों और घोड़े की सवारी कराने वालों ने हमें घेर लिया। बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा कर हम गाड़ी में बैठ पाए। यहाँ से चले तो दस मिनटों में हम संगम किनारे थे। हमें बताया गया कि यह तीन नदियों – कावेरी, लोकपावनी और हेमावती का संगम है। यहाँ मेले का सा माहौल था। लोग-बाग संगम में उतर कर पवित्र स्नान कर रहे थे। कहीं पूजा-पाठ चल रहा था तो कुछ परिवार मानो पिकनिक मनाने आये थे। यहाँ का भक्तिमय माहौल अत्यंत शांति प्रदान करनेवाला था।

   यहाँ से चले तो बीस-पच्चीस मिनट में कर्नल बैली की काल कोठरी पहुँच गए। रास्ते में हमने वह जगह भी देखी जहाँ टीपू-सुल्तान मृत पाए गए थे। फिर हम श्री रंगनाथस्वामी मंदिर के सामने थे। शाम के चार बजने वाले थे किन्तु मंदिर अभी बंद था। हमें बताया गया कि मंदिर खुलने में आधा-पौन घंटा समय लगेगा। हमने देवों को बाहर से ही प्रणाम किया और बृंदावन गार्डन की ओर प्रस्थान कर गए।


Brindaban Gardens, Mysore


Brindaban Gardens, Mysore

   जब हम बृंदावन गार्डन पहुंचे, हमारी घड़ी ने बताया कि साढ़े-चार बज रहे हैं। इस बागीचे की क्या तारीफ करूँ? जब तक आप इसे देखे नहीं, घूमे नहीं, इसकी सुन्दरता समझ नहीं आएगी। यहाँ पर क्या नहीं है – करीने से बना बागीचा जिसमें भांति-भांति के पुष्प पल्लवित हो रहे हैं, बड़ा सा तालाब जिसमें नौकायन की व्यवस्था है, मन को हरते झरने-फव्वारे और मछली-घर। हाँ, यदि आप घूमते-घूमते थक जाएँ तो चाय-नाश्ते की भी भरपूर व्यवस्था है। घबराइए नहीं, बस घूमते जाइये! एक और बात – जब ऐसी सुन्दर जगह घूमने जाएँ तो कैमरे की आँखों के बजाए अपनी आँखों का इस्तेमाल करें और तस्वीरों को कार्ड पर नहीं, दिल में संरक्षित करें। जब उन तस्वीरों को ज़ेहन में लायेंगे तो फूलों के चटख रंगों के साथ-साथ उसकी खुशबू भी आपके अंतर्मन को अपने आगोश में ले लेगी।

   एक और बात – जमशेदपुर के जुबिली पार्क देख चुके लोगों को दोनों में हैरतअंगेज़ समानता दिखती है और हो भी क्यों न? जुबिली पार्क आखिर बृंदावन गार्डन की तर्ज़ पर ही बनाया गया है। इस मनोरम स्थल को घूमते-घूमते कब तीन घंटे निकल गए, पता ही नहीं चला। वक़्त हो रहा था कि हम आगे प्रस्थान करें। राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरपट भागते वाहनों के बीच हम भी आँखें बंद किए कन्नड़ गानों की धुन को आत्मसात किए जा रहे थे।
Maddur Wada, Mysore
   रास्ते में हमने मद्दुर वड़े और कॉफ़ी का आनंद लिया। इधर घड़ी ने दस बजाए और उधर हमारा गंतव्य आ गया। हमने हरीश को विदा किया और इस आनंददायक सफ़र के सुखद पलों को पुनः जीने में लग गए।


इस यात्रा-वृतांत को इ-बुक के रूप में भी पढ़ सकते हैं: http://matrubharti.com/book/5313/

Wednesday, February 17, 2016

मैसूर में पहला दिन

भारत का इतिहास राजा, रानी, विशाल साम्राज्य, धोखा, युद्ध, हत्याएँ और न जाने कैसी-कैसी बातों से भरा पड़ा है। इन्हें पढ़ते वक़्त यूँ लगता है मानो हम इतिहास नहीं पढ़ रहे अपितु कल्पनालोक में विचरण कर रहे हैं। जब इन साम्राज्यों के ऐतिहासिक साक्ष्यों से सामना होता है तो यूँ लगता है कि कल्पनाएँ भी छोटी पड़ गईं। आज ऐसी ही एक यात्रा का वृतांत लेकर उपस्थित हूँ।
कुछ दिनों पूर्व जब बेंगलुरु (पहले इसे बैंगलोर कहते थे) जाना हुआ तो मन में इच्छा जगी कि मैसूर घूम लिया जाये। हमने तय किया कि हम एक गाड़ी लेकर सड़क मार्ग से मैसूर घूमने जायेंगे। हमने एक निजी एजेंसी से संपर्क किया और उन्होंने अगली सुबह छह बजे गाड़ी लेकर हरीश को भेज दिया। हमने बिना समय व्यर्थ किये अपना सामान लिया और चल पड़े। आठ बजते-बजते हमें भूख सताने लगी। तब हम कनकपुरा इलाके से गुज़र रहे थे।
Srinivasa Sagar Restaurant Kanakpura

अचानक हमारी नज़र एक रेस्तरां पर पड़ी। हमने गाड़ी रुकवाई और श्रीनिवास सागर के अन्दर गए। हालाँकि रेस्तरां मध्यम स्तर का लग रहा था किंतु वहाँ की इडली और उपमा लाजवाब थे। हमने चलते समय मेनेजर मंजुनाथ जी का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने जब ये सुना कि उनका रेस्तरां हमें बहुत पसंद आया है तो वे फूले नहीं समाए।
यहाँ से चलने के तकरीबन सवा घंटे के बाद हम “शिवनासमुद्रा जलप्रपात” पहुँचे। जंगल के बीच के अत्यंत मनोहारी रास्तों से गुजरते हुए जब हम वहाँ पहुँचे तो देखा कि भीड़ ज्यादा नहीं थी। प्रपात की आवाज़ हम सुन पा रहे थे। इस आवाज़ ने हमारे अन्दर एक नव उत्साह का संचार कर दिया था। जब हम प्रपात के निकट पहुंचे तो थोड़ी मायूसी हाथ लगी।
Shivanasamudra falls
Shivanasamudra falls landing



हमने देखा कि प्रपात की एक ही धारा बह रही है। हम सिर्फ ये अंदाज़ा ही लगा सकते थे कि यदि इस प्रपात की एकल धारा का गर्जन ऐसा है तो जब पूरा प्रपात अपने उफ़ान पर होता होगा तो कितना निर्मल और कितना निर्मम दीखता होगा! खैर, हमें अब प्यास लग आई थी। 
Coconut seller at Shivanasamudra falls

ऐसे में नारियल-पानी से बेहतर और क्या हो सकता था? नारियल विक्रेता ने हमें बताया कि जनवरी से जुलाई तक प्रपात में ज्यादा पानी नहीं होता है। पेप्सी-कोला की दुकान खाली थी और उसके पास खरीदारों की भीड़ लगी थी, इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न नज़र आया। घड़ी की ओर देखा तो साढ़े-दस बजने को थे। हमने तलाकाडू की ओर प्रस्थान किया।

चालीस-पैंतालीस मिनट की यात्रा और कई जगहों पर पूछ-ताछ करने के बाद हमारी गाड़ी मुख्य मंदिर के द्वार के सामने थी। हमने अपनी पादुकायें वहीँ एक लड़के के पास जमा कर दी और अन्दर गए। अन्दर जो देखा, उससे हम अचंभित हुए बिना नहीं रह सके। पत्थर को तराश कर की गयी अद्वितीय कारीगरी ने मानो हमारे कदम रोक लिए हों। शिव-मंदिर के मुख्य द्वार के दोनों ओर जिन गण की मूर्तियाँ थीं, उनके पेट इस प्रकार तराशे गए थे मानो वे नंदी का मुख हों।
Asur dwarpal at Talakadu

Deva dwarpal at Talakadu
मंदिर के कोने में पाँच फण वाले नाग विराजमान थे।
Five hooded snake with rings

Ganesha riding the mouse
एक ही पत्थर से तराशी गईं कड़ियाँ जिनमे मंदिर के घंटे लटकाए जाते थे, कलाकारी का अद्भुत नमूना थे। मंदिर परिसर में अनेक शिव-लिंग और नंदी की अनेक मनभावन प्रतिमाएँ थीं।
तकरीबन आधा घंटा मंदिर परिसर में बिता कर हम नदी किनारे आ गए। नदी का तट देख गंगा नदी की याद आ गयी। पतित-पावनी गंगा के किनारे सफ़ेद रेत का नज़ारा जिसने आत्मसात कर रखा हो, वो इस भावना को भली-भांति समझ जायेगा।
Talakadu beach
नदी के किनारे अनेक भोजशालायें थीं जिनमे  नाना प्रकार के व्यंजन उपलब्ध थे। हमें देख सभी में होड़ सी लग गयी कि कौन ज्यादा प्रभावशाली तरीके का इस्तेमाल कर संभावित ग्राहक को अपना वास्तविक ग्राहक बनाने में कामयाब होता है। नदी किनारे बैठने की अच्छी व्यवस्था थी। कई लोग परिवार सहित वहाँ वनभोज का आनंद उठा रहे थे तो अन्य कई नदी में नौका-विहार का आनंद ले रहे थे।
यहाँ आ कर एक अविश्वसनीय कथा के बारे में पता चला। यह कथा मैसूर के वाडियार राजवंश के पुत्रहीन होने के श्राप और उस श्राप के तलाकाडू से संबंध के बारे में है। वापस आने पर जब मैंने थोड़ी पड़ताल की तो एक लेख सामने आया। आप सब भी इसे पढ़े। अच्छा लगेगा।
अब सूरज सर पर था। हमने इन अद्भुत नजारों को अलविदा कहा और सोमनाथपुर की ओर निकल चले। तकरीबन पौन घंटे की यात्रा के बाद हम सोमनाथपुर के केशव मंदिर प्रांगण के द्वार पर थे।
Keshav temple, Somnathpura
माना जाता है कि तेरहवीं शताब्दी में होयसला राजा नरसिंह तृतीय के सेनापति सोमनाथ दंडनायक ने यहाँ “विद्यानिधि प्रसन्न सोमनाथपुर” की स्थापना की और भगवान विष्णु को समर्पित “केशव मंदिर” बनवाया था। पूर्व दिशा में भव्य मुख्य-द्वार “नवरंग मंडप” है। हमने जब मुख्य मंदिर में प्रवेश किया तो अन्दर काफी अँधेरा था। तेज़ धूप से आने के कारण हमें वहाँ के माहौल में ढ़लने में कुछ मिनट लगे। तीन गर्भ-गृहों वाले इस मंदिर में विष्णु, वेणुगोपाल और जनार्दन स्थापित हैं।
Keshav temple, Somnathpura

Keshav temple, Somnathpura

Keshav temple, Somnathpura
अनेक स्तंभों वाले सार्वजनिक कक्ष में की गयी मूर्तिकारी और नक्काशी उस समय के कलाकारों की अद्भुत क्षमता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
Keshav temple, Somnathpura

Keshav temple, Somnathpura

मुख्य मंदिर के चारों ओर चौंसठ गर्भ-गृह बने हैं। हमें बताया गया कि इन में अन्यान्य देवी-देवताओं का पूजन होता था। गर्भ-गृहों के सामने गलियारे के स्तंभों की कारीगरी ने हमें अचंभित कर दिया। वहाँ कई खंडित मूर्तियाँ भी थीं। तकरीबन एक घंटे का समय बिता कर हम मैसूर की ओर बढ़ चले।
आधे घंटे में हम अपने होटल के सामने थे। सफ़र के थकान और भूख ने अगले तीन घंटे हमें व्यस्त रखा। थोड़े तरो-ताज़ा होने के बाद हम चामुंडेश्वरी देवी के दर्शनों को चल दिए। माना जाता है कि यहीं पर आदि-शक्ति ने महिस-असुर का वध किया था। कालांतर में ऋषि मार्कंडेय ने यहाँ अष्ट-भुज महिस-मर्दिनी के मंदिर की स्थापना की।
Chamundeshwari Temple

Mahisasur at chamundi hill
होयसला, विजयनगर और मैसूर के शासकों की इस पवित्र मंदिर में अटूट आस्था थी और उन्होंने समय-समय पर परिसर का विस्तार और जीर्णोद्धार कराया। मुख्य द्वार पर सात तलोंवाले गोपुर की सुन्दरता और भव्यता मनमोहक है। इस क्षेत्र में प्रवेश मात्र से मन को इतनी शांति मिली कि एक घंटा कब बीता, पता ही नहीं चला। पहाड़ी के शिखर से मैसूर शहर के पीछे सुदूर क्षितिज के पीछे अस्ताचल सूर्य की लालिमा मन्त्र-मुग्ध करने वाली थी। कुछ देर रुक कर हमने इसका आनंद लिया और फिर लौट चले।
Nandi at chamundi hill
लौटते वक़्त हम पंद्रह मिनट के लिए नंदी के मंदिर भी रुके। नंदी की सोलह फ़ीट ऊँची  और चौबीस फ़ीट लम्बी विशाल पाषाण प्रतिमा की भव्यता देखते ही बनती है। हमें बताया गया कि यह प्रतिमा कोई तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पुरानी है! यहाँ हमने देखा कि अनेक श्रद्धालु मूर्ति पर सिक्के चिपका रहे हैं। ये हमें कुछ अजीब तो लगा किंतु आस्था के समक्ष तर्क का क्या काम?
घड़ी ने बताया कि शाम के पौने सात बज चले हैं। यूँ तो सूरज ढ़ल चुका था किंतु उसका प्रकाश अब भी हमारे साथ था। हमें शहर लौटने में बमुश्किल पंद्रह मिनट लगे और इन पंद्रह मिनटों में अँधेरे ने शहर को अपनी आगोश में ले लिया था। जगमगाते प्रकाश-स्तंभ और आती-जाती गाड़ियों की लाल-सफ़ेद रौशनी से सराबोर ये सड़कें, दिन-रात के अनंत चक्र-गति में न जाने कितने यायावरी सपनों को उनकी मंजिलों तक पहुँचाती होंगी। यूँ तो हमारा विचार था कि मैसूर पैलेस में होनेवाली प्रकाश-व्यवस्था का आनंद लिया जाए किंतु वहाँ पहुँच कर ज्ञात हुआ कि कुछ तकनीकी कारणों से ये बंद है और इसे पुनः शुरू होने में तकरीबन महीना भर लगेगा। हमारा मन निराशा से भर गया। तकरीबन घंटे भर मैसूर के बाज़ारों-दूकानों का जायज़ा लेने के बाद हम विश्रामगृह लौट आये।

रात्रि के भोजन के पश्चात बस बिस्तर पर गिरने की देर थी कि.... अच्छा! आप सबको भी शुभ-रात्रि। शेष भाग बाद में। 


इस यात्रा-वृतांत को इ-बुक के रूप में भी पढ़ सकते हैं: http://matrubharti.com/book/5313/