यूँ तो भारतवर्ष में
उनतीस राज्य हैं और हर एक अपने आप में अनोखा-अनूठा है, पश्चिम बंगाल की बात ही
निराली है. हो भी क्यों न? है कोई भारत का राज्य कि हिमालय जिसके सर का ताज हो और
सागर जिसके पांव पखारता हो? गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिस धरती को पावन
करती हों, और जिसने टैगोर और सुभाष जैसे पुत्र देश को दिए, वह धरती ख़ास तो होगी ही.
अपनी तमाम भौगोलिक-सांस्कृतिक खूबियों के कारण ही पश्चिम-बंगाल पर्यटकों की पहली
पसंद है.
इस राज्य के उत्तर
में स्थित है दार्जीलिंग. इसे आप पहाड़ों की रानी भी कह सकते हैं. दार्जीलिंग जिस
के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है, वह है यहाँ की चाय. हिमालय पर्वत-श्रृंखला की
तीसरी सबसे ऊँची चोटी “कंचनजंगा” के विहंगम दृश्यों के लिए भी दार्जीलिंग विख्यात
है. मेरे जितने भी मित्र हैं, वे सभी कभी-न-कभी दार्जीलिंग की सैर का लुत्फ़ उठा
चुके हैं. आखिर मैं कब तक पीछे रहता?
जब बच्चों की
परीक्षाएँ ख़त्म हुईं तो हमने भी सैर करने की ठानी. आनन-फानन में रेल की टिकटें ली
गई. जिस तारीख की टिकटें मिलीं, उनमे स्कूल ने अचानक ही अपनी तिथियों में परिवर्तन
कर रिपोर्ट-कार्ड देना तय कर दिया. इसे कहते हैं सर मुंडाते ही ओले पड़ना! खैर,
टिकटें रद्द की गईं और नए सिरे से लीं गई. नियत समय पर हम जब स्टेशन पहुंचे तो पता
चला कि ट्रेन दो घंटे देर से आयेगी. हम इंतज़ार करते रहे और घंटा बीतते-बीतते ये
पता चला कि ट्रेन अब चार घंटे देर से आयेगी. हमारे तो होश फाख्ता हो गए. हमें
हावड़ा से दूसरी ट्रेन पकड़नी थी. तभी हमारे एक मित्र ने बताया कि एक दूसरी ट्रेन है
जो हमारी ट्रेन से दो घंटे पहले जाती किन्तु वह भी चार घंटे देर से चल रही है.
उसने कहा कि अगर तुम कोशिश करो तो शायद काउंटर से आरक्षित टिकट मिल जाये. अँधा
क्या चाहे – दो आँख! काउंटर पर पहुंचे तो किस्मत ने हमारा साथ दिया और हम दूसरी
ट्रेन पकड़ने में कामयाब रहे. सच पूछें तो जब मैं अपनी बर्थ पर लेटा था, तब भी मुझे
यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी अड़चनों के बाद भी हम दार्जीलिंग जा रहे हैं.
धुमडांगी के चाय बागान
अन्नानास की खेती, पीछे चाय के बागान
महानंदा नदी को पार करते हुए....
सुबह हुई तो देखा कि
ट्रेन धुमडांगी स्टेशन से गुजर रही है. तेजी से पीछे छूटते चाय के बागानों ने मुझे
आश्चर्य में डाल दिया. अभी तो हम मैदानी इलाके में ही थे और अभी से चाय-बागानों के
नज़ारे! जब आगाज़ ऐसा हो तो अंजाम कैसा होगा? बहरहाल, तीव्र गति से भागती ट्रेन की
खिड़की से इन अद्भुत नजारों का आनंद लेने में हम इतने खो गए कि पता ही नहीं चला कि कब
न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन आ गया.
अभी हम प्लेटफार्म
से बाहर आ ही रहे थे कि एक सज्जन हमारे पीछे पड़ गए. कहने लगे कि गाड़ी भाड़े पर ले
लो. हमने उन्हें टरकाया कि भई हम तो प्री-पेड काउंटर से ही गाड़ी लेंगे तो कहने लगे
कि हम उनसे कम में आपको ले जायेंगे. मैंने पुछा – कितना लोगे? उन्होंने कहा –
पंद्रह सौ. मैंने कहा – आठ सौ में दार्जीलिंग चलोगे? मैंने सोचा कि अब उनसे पीछा छूटा
लेकिन उन्होंने हमारे हाथ से बैग ले लिया और बोले – चलेंगे न. आप हज़ार दे देना.
मैंने फिर से कहा – आठ सौ में चलना हो तो बताओ. वे बोले – अच्छा आप नौ सौ दे देना.
इस से कम में कोई नहीं जायेगा. मैंने कहा – गाड़ी कहाँ है? पहले गाड़ी दिखाओ तो बात
बने. वे बोले – सर हमारी गाड़ी बाहर खड़ी है. आप चल कर देखें. अच्छा लगे तो चलना.
उनका आत्मविश्वास देख मैंने सोचा कि चलो देख ही लिया जाये.
सिक्किम ट्रेवल्स के श्री बिजय रॉय
वे आगे-आगे और हम
पीछे-पीछे. वे सीधे सिक्किम ट्रेवल्स के ऑफिस में प्रवेश कर गए. वहाँ हमें बिजय
रॉय मिले. अत्यंत ही वाक्-चतुर और मिलनसार. उन्होंने हमें इस बात के लिए तैयार कर
लिया कि हम न्यू जलपाईगुड़ी से वापस न्यू जलपाईगुड़ी तक उनके वाहनों की सेवाएँ
लेंगे. उन्होंने हमें बताया कि दार्जीलिंग में मुख्यतः तीन तरह के टूर चलते हैं –
थ्री-पॉइंट, फाइव पॉइंट और सेवेन पॉइंट. इन तीनों के अलावा लौटते वक़्त वो हमें
मिरिक के रास्ते घुमाते हुए लायेंगे. थोड़े मोल-भाव के बाद बात साढ़े-सात हज़ार पर तय
हुई. कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के बाद हमें एक स्विफ्ट-डिजायर मिली. हमने अपना
सामान उसमे डाला और चल पड़े.
महानंदा नदी पर सड़क-पुल
सिलीगुड़ी से बाहर निकलते हुए
चुमटा चाय बागान के बगल से गुजरते हुए, ध्यान दें कि
हमारे दाहिनी ओर दार्जीलिंग हिमालयन रेल की पटरियां हैं.
जब हम सिलीगुड़ी शहर
से बाहर आये तो दो बातों ने मेरा ध्यान खींचा – पहली थी दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे
की पटरियाँ जो सड़क के सामानांतर हमारी हमसफ़र बनी हुई थीं और दूसरी थी सड़क के
किनारे साल के लम्बे पेड़ जिनकी सूखी पत्तियों ने ज़मीन को ढँक रखा था. साल एक
पर्णपाती वृक्ष है जो पतझड़ में अपने पुराने पत्ते मिट्टी को उर्वर बनाने को त्याग
देता है. जब हम आगे बढ़े तो गाड़ी एक बायाँ मोड़ लेकर जंगल जैसे क्षेत्र से जाने लगी.
ये सुकना वन-क्षेत्र था. यहाँ भी साल के वृक्ष बहुतायत में थे. इस ओर प्रवेश करने
के बाद टॉय-ट्रेन की पटरियों ने हमारा साथ छोड़ दिया. जंगलों से होता रास्ता आगे चल
कर आर्मी क्षेत्र से गुज़रा. हरे-भरे चाय बागानों के बीच से गुज़रते हमें इसके
सेना-क्षेत्र होने का एहसास तब होता जब कोई सैन्य-वाहन गुज़रता या रंगरूटों की
कतारें नज़र आती. आज के भौतिकवादी दौर में जब निष्ठा बेहद कम कीमत में बिकाऊ है,
कठिन परिस्थितियों में देश-सेवा का जज़्बा देख भारतीय सेना के प्रति मन सम्मान से
भर गया.
हम आगे बढे तो एक
चौराहा मिला. हमारे ड्राईवर ने बताया कि सीधा रास्ता मिरिक को जाता है, बायाँ
सैन्य-क्षेत्र है और हम मुड़ेंगे दाहिने यानि कि कर्सियांग की ओर. ये सड़क रोहिणी
रोड कहलाता है. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ने लगे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ तेज़ी से हमारी ओर आने
लगे. मनमोहक नजारों और चाय के बागानों के बीच हमारी गाड़ी सरपट दौड़ी जा रही थी. अभी
तक जो पतझड़ का सा नज़ारा हम देखते आ रहे थे, वह हरियाली में बदलने लगी थी. नई प्रजाति
की वनस्पतियाँ अब दृष्टिगोचर होने लगी थी. ड्राईवर ने दूर पहाड़ों पर बसे बस्ती की
ओर इशारा कर बताया कि वो कर्सियांग है. अत्यंत ऊंचाई पर बसे शहर को देख मैंने आकलन
किया कि वह ज़रूर हमारी वर्तमान स्थिति से तीन-चार हज़ार फुट की ऊंचाई पर होगा और हमें
वहाँ पहुँचने में तो अभी कई घंटे लगेंगे.
दार्जीलिंग में आपका स्वागत है
मैं अभी अपनी उधेर-बुन में ही था कि एक
विशालकाय द्वार ने दार्जीलिंग में हमारा स्वागत किया और शीघ्र ही हमारे सपाट
रास्ते चढ़ाई में बदलने लगे. टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्तों पर सरपट भागती गाड़ियाँ कभी
मनभावन लगती तो कभी डरावनी. दोपहर होने को थी और पेट में चूहे कूदने लगे थे. हमारे
अनुरोध पर ड्राईवर ने रोहिणी स्थित मुस्कान होटल के सामने गाड़ी खड़ी कर दी.
हम अन्दर गए तो एक हंसमुख शख्स ने हमें बैठने को कहा. हमने उन्हें बताया कि हम शाकाहारी खाना पसंद करेंगे. उन्होंने बताया कि यदि हम थोड़ा समय दें तो वे आलू पराठा और मोमो दे पाएंगे. सच कहूँ तो होटल की हालत देख मैंने बहुत उम्मीदें नहीं पाली थीं लेकिन कीमत और गुणवत्ता का मेल मुझे अत्यंत प्रफुल्लित कर गया.
मुस्कान होटल के मालिक श्री राजू
हम अन्दर गए तो एक हंसमुख शख्स ने हमें बैठने को कहा. हमने उन्हें बताया कि हम शाकाहारी खाना पसंद करेंगे. उन्होंने बताया कि यदि हम थोड़ा समय दें तो वे आलू पराठा और मोमो दे पाएंगे. सच कहूँ तो होटल की हालत देख मैंने बहुत उम्मीदें नहीं पाली थीं लेकिन कीमत और गुणवत्ता का मेल मुझे अत्यंत प्रफुल्लित कर गया.
जरा इन घुमावदार रास्तों को देखिये
इस जगह से दूर मैदानी क्षेत्र से गुजरती नदी की
हल्की परछाई शायद आपको नज़र आ जाये
इन सुरम्य वादियों का क्या कहना
रोहिणी के चाय बागानों से गुजरते हुए
तरोताज़ा होकर हम आगे
बढ़े तो सीधी चढ़ाई और तीखे अंध-मोड़ों वाले रास्ते मानो हमारी जान सुखा देने को
तैयार बैठे थे. चाय के बागानों के बीच से गुजरते हुए मैंने ध्यान दिया कि तीखी
ढलान वाले पहाड़ों पर चाय के पौधे सीधे न लगा कर सीढ़ीनुमा खेती की तरह लगाये गए थे.
शायद लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रख कर ऐसा किया गया होगा. सड़क के एक तरफ घाटी
तो दूसरी तरफ पहाड़! घाटियों में चाय के बागान, हरी-भरी वादियों के बीच सर्प से
रास्ते और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की श्रृंखलाएँ जो दूर कहीं धुंध में खो जा रही थीं.
क्या लिखूँ, कितना लिखूँ? अद्भुत नज़ारा था. वर्णनातीत!
खूबसूरत कर्सियांग
कर्सियांग का नज़ारा, बाईं ओर ऊपर ईगल्स क्रेग व्यू पॉइंट
बूंदा-बांदी शुरू
खूबसूरत कर्सियांग
कर्सियांग से आगे आर्गेनिक चाय के बागान
बात की बात में
कर्सियांग हमारे स्वागत को तैयार मिला. हमने ड्राईवर से अनुरोध किया कि ईगल व्यू
पॉइंट दिखा दे लेकिन वह तैयार नहीं हुआ. सच कहूँ तो मुझे बुरा लगा, गुस्सा भी आया,
लेकिन मैं भी जल्दी से जल्दी दार्जीलिंग पहुंचना चाहता था. ट्रेन की वजह से तो
हमें देर हुई ही थी, सिक्किम ट्रेवल्स में भी हमने कोई एक घंटा गँवा दिया था. शैतान
बादलों ने सूरज के साथ आँख-मिचौली शुरू कर दी थी. बीच-बीच में हल्की बूंदा-बांदी
मौसम को ठंडा करने लगी थी. अब तक तो हम आराम से गाड़ी के शीशे नीचे किए हुए थे
लेकिन मौसम ने हमें मजबूर कर दिया कि हम ठंड से अपना बचाव करें. ऊँचे-नीचे
टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रास्तों से होते हुए हम घूम स्टेशन के सामने से गुज़रे. यहाँ चार
रास्ते मिलते हैं. सीधा रास्ता दार्जीलिंग को जाता है, बायाँ वाला मिरिक की ओर और
दाहिना रास्ता कलिम्पोंग ले जाता है. घूम के बारे में विस्तार से बताऊंगा लेकिन
बाद में. अभी तो दार्जीलिंग पहुंचना है.
मौसम अब ठीक होने लगा है लेकिन रास्ता कई जगहों पर टूटा-फूटा है और मरम्मत का काम चल रहा है. ड्राईवर ने बताया कि पर्यटकों की भीड़ बढ़ने से पहले हर साल रास्तों की मरम्मत की जाती है ताकि ये यातायात का दबाव झेल सकें. बहरहाल घड़ी की सुइयां दो बजाती, इससे पहले ही हम ऐलिस विला होटल के अपने कमरे में थे.
सड़क पर मरम्मत का काम, ध्यान दें कि कर्सियांग से
दार्जीलिंग हिमालयन रेल की पटरियाँ फिर हमारे साथ हो गईं
दार्जीलिंग के खूबसूरत पहाड़
मौसम अब ठीक होने लगा है लेकिन रास्ता कई जगहों पर टूटा-फूटा है और मरम्मत का काम चल रहा है. ड्राईवर ने बताया कि पर्यटकों की भीड़ बढ़ने से पहले हर साल रास्तों की मरम्मत की जाती है ताकि ये यातायात का दबाव झेल सकें. बहरहाल घड़ी की सुइयां दो बजाती, इससे पहले ही हम ऐलिस विला होटल के अपने कमरे में थे.
होटल के मालिक श्री
धीरेन प्रधान ने पहुँचते ही हमारे कमरे का गीज़र ऑन करवा दिया. गरम-पानी से स्नान
के बाद गर्म चाय की घूँट ने सफ़र की थकान मानो मिटा दी थी. चार बजते-बजते हम
चौरास्ता घूमने को तैयार थे. हमने श्री प्रधान को जब अपनी इच्छा बताई तो उन्होंने
होटल के सामने एक गली से जाने को कहा. ये गली दरअसल भूटिया-मार्केट था. करीब सौ
मीटर की गली से जब हम निकले तो अपने आप को नाथमुल्ल्स की चाय भण्डार के सामने
पाया.
आस-पास का नज़ारा बड़ा
ही गज़ब का था. हमारे सामने एक विशाल मैदान था जिसके किनारे लगे बेंचों पर अनगिनत
लोग बैठ कर नजारों के साथ-साथ चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहे थे. बायीं ओर एक विशाल
स्क्रीन पर कुछ दिखाया जा रहा था तो दायीं ओर कुछ लोग खच्चरों को लिए खड़े थे. हम
कुछ देर वहाँ खड़े माहौल का आनंद लेते रहे और फिर महाकाल मंदिर की ओर बढ़ चले. मंदिर
को जानेवाले रास्ते पर हमें एक वृक्ष दिखाई दिया जिसके फूल कमल के फूल की तरह के
प्रतीत होते थे. हल्के गुलाबी रंग के फूलों को देख कर मन में ये ख़याल आया कि शायद
ऐसा ही कोई फूल हिमालयों से उड़ कर द्रौपदी तक पहुँच गया होगा और फिर उसकी तलाश में
महाबली भीम निकल पड़े थे. पूछ-ताछ करने पर पता चला कि स्थानीय लोग इसे “चाप” कहते
हैं. बाद में ज्ञात हुआ कि सुंदर मोहक फूलों से लदे ये पेड़ दरअसल मैगनोलिया कहलाते
हैं.
महाकाल मंदिर का प्रवेश द्वार
मैगनोलिया के फूल
महाकाल मंदिर स्थित प्रार्थना चक्र
तकरीबन पंद्रह मिनट
की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद हमें तोरणों से सजा महाकाल मंदिर का द्वार दिखाई दिया.
धागों पर लटकती ये रंग-बिरंगी झंडियाँ दरअसल प्रार्थना लिखे पत्र थे जो श्रद्धालु
अपने देव को अर्पित करते हैं. भूटानी-तिब्बती अंदाज़ वाला ये शिव-मंदिर अत्यंत शांत
और मनोरम जगह पर स्थित है. इस ऊँची पहाड़ी से आप चारो ओर बसे दार्जीलिंग का अद्भुत
दृश्य देख सकते हैं, या चाहें तो विशाल प्रार्थना चक्र घुमा कर देवों की आराधना कर
सकते हैं. कुछ समय मंदिर परिसर में बिताने के बाद हम वापस लौट चले. नीचे
भूटिया-मार्केट लगा था. सड़क किनारे दुकानों की कतारें थीं जिनमे भांति-भांति के
गर्म कपड़े, खिलौने और सजावटी सामान बिक रहे थे. हम जिस भी दुकान के सामने से
निकलते, दुकानदार हमारा ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते. वैसे तो सभी दुकानदार
चाहते थे कि राहगीर उनकी दुकान पर आयें पर कुछ ऐसे राहगीर भी थे जिनसे सबने तौबा
कर रखी थी. ये थे बन्दर! अगर आप भी कभी जाओ तो जरा सावधान रहना. वैसे तो ये कुछ
नुक्सान नहीं पहुंचाते पर जब दस-बीस बंदरों का झुण्ड अचानक ही सड़क पर भागने लगे तो
क्या होगा, इसकी सहज कल्पना ही की जा सकती है.
नाथमुल्स की चाय
अब शाम ढलने लगी थी.
हमने आस-पास की गलियों का परिभ्रमण किया और चले आये नाथमुल्स. यहाँ हमने चाय की कई
किस्में देखीं. हमें बताया गया कि चाय की पत्तियाँ साल में तीन बार तोड़ी जाती हैं.
चाय का स्वाद इस बात पर निर्भर करता है कि वे कौन से बागान की हैं, उन्हें कब तोड़ा
गया और उन्हें किस प्रक्रिया से गुजार कर पत्तियाँ बनाई गई हैं. यहाँ आकर हमें
एहसास हुआ मानो हम “चाय के अवध” में चले
आये हों. नज़ाकत-नफ़ासत से भरपूर दार्जीलिंग की चाय अपने रंग से ज्यादा अपनी खुशबु
और ताज़गी के लिए जानी जाती है. आपको बताते चलें कि दार्जीलिंग की चाय को हाल ही
में geographical location
tag मिला है. इससे विश्व-बाज़ार में न सिर्फ इसकी
कीमतों में इजाफ़ा हुआ है बल्कि इसकी इज्ज़त भी बढ़ी है. अपनी प्रतिष्ठा बनाने-बढ़ाने
के लिए चाय बागान के मालिक अब आर्गेनिक खेती का रुख कर रहे हैं. इस टैग का एक
महत्व यह भी है कि अब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सिर्फ और सिर्फ वही चाय “दार्जीलिंग-चाय”
के नाम पर बिक पायेगी जो दार्जीलिंग के बागानों से आई हों.
अब शाम के सात बजने
को हैं. हम ठंड से अब थरथराने लगे हैं. शायद ये सही समय है कि अपने कमरे में वापस
चला जाये. वापस लौटते समय हमने देखा कि भूटिया-मार्केट की अधिकांश दुकानें बंद हो
चुकी हैं. कमरे में आ कर हमने रूम-हीटर ऑन कर दिया. रूम-हीटर ने कमरे में और भोजन ने
हमारे अंदर गर्मी का संचार कर दिया. लंबी यात्रा की थकान ने अपना रंग दिखाना शुरू
कर दिया है. कल की बात अब कल करेंगे.
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