सुबह-सुबह जब सूरज
की पहली किरणें, बगैर दस्तक, झरोखे से दाखिल हो गईं तो हमारी आँखें खुली। हमने
ज़रा-सा पर्दे सरकाए तो अपने को मैसूर शहर की चहल-पहल के बीच पाया। काम पर जाते
लोग, सिटी-बस के रेले, सफाई-कर्मियों के झाड़ू से उड़ती धूल, चौराहे के किनारे जीप
लगा कर चौकसी करते पुलिसवाले; सब कुछ अपने जमशेदपुर जैसा ही तो था! सच कहूँ तो
मैसूर ऐसा पहला शहर मिला जिसका मिजाज़ अपनी लौहनगरी का सा है।
मैसूर में आज हमारा
दूसरा दिन है। कल की अविराम यात्रा की थकान मिट चुकी है और हम नए सिरे से नयी
जगहों से वाकिफ़ होने को तैयार हैं, पर पहले ज़रा नाश्ता तो हो जाये! सुबह-सुबह
दक्षिण-भारतीय और कॉन्टिनेंटल व्यंजनों से सजी बुफे-ब्रेकफास्ट की टेबल हमारा
इंतज़ार कर रही थी। हमने हरीश को कहा कि वह भी नाश्ता निपटा ले ताकि हमें निकलने
में देर नहीं हो।
तकरीबन नौ-सवा नौ
बजे हम मैसूर महल पहुंचे। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि टिकटों की बिक्री तकरीबन
घंटे भर बाद शुरू होगी। हरीश ने हमें सुझाव दिया कि क्यों न तब तक संत फिलोमेना
गिरिजाघर देख लिया जाये। हमें यह विचार अत्यंत पसंद आया। फिर क्या था – कुछ ही
मिनटों में हम गिरिजाघर के बाहर खड़े थे।
वहाँ जो ईमारत खड़ी थी, वह हैरतअंगेज तरीके
से जर्मनी के कोलोन कैथेड्रल से मेल खाती थी। हम अन्दर गए। वहाँ प्रार्थना सभा चल
रही थी। हमने भी कुछ समय वहाँ बिताया। फिर बाहर आ कर परिसर घूमने लगे। ये गिरिजाघर
काफी ऊँचा है और बहुत बड़े परिसर में फैला हुआ है। जब हम वापस आ रहे थे तो
मुख्य-द्वार पर खड़े फोटोग्राफर ने पूरे परिवार का फोटो खींचने में हमारी काफी मदद
की। बदले में हमने भी उससे एक-दो तस्वीरें खिंचवा लीं। उसने पाँच मिनट में ही उसकी
प्रिंट निकाल कर ला दी। अब बारी थी मैसूर पैलेस देखने की। सो हम वहाँ से चल दिए।
मैसूर पैलेस के
पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके हमने टिकट लिया और अन्दर चले गए। वहाँ एक जगह हमने
अपने जूते जमा किए। हमें पहले एक ऐसे कमरे से जाने को कहा गया जहाँ चीज़ें बिक्री
की जा रही थीं। ऐतिहासिक स्थल का ऐसा व्यवसायिक इस्तेमाल देख कर कोफ़्त तो बहुत हुई
पर हम कर भी क्या सकते थे। आगे जा कर हमने दरबार देखा और अंतःपुर देखा। राजा को
मिले अनगिनत भेंटें भी यहाँ प्रदर्शित की गयी हैं। राज-परिवार के अनेक सदस्यों के
चित्र भी प्रदर्शित थीं। इस महल के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब और
ज्यादा लिखना सूरज को दिया दिखाने समान होगा। बहरहाल हम यहाँ कोई डेढ़-पौने दो घंटे
का समय बिता चुके थे। हमें होटल जा कर चेक-आउट भी करना था। तो हमने बिना देर किए
होटल का रुख किया। अपना सामान समेट हमने वहीँ खाना खाया, चेक-आउट की रस्में पूरी
की और वापसी को निकल पड़े।
हमारा अगला पड़ाव था –
सैंड म्यूजियम! यहाँ टिकट ले कर हमने प्रवेश किया तो अंदर कलाकार की मेहनत देख कर
हैरान हुए बिना नहीं रह सके। हालाँकि जिन लोगों ने पुरी (ओडिशा) या आस-पास के सैंड-आर्टिस्ट
की कलाकृतियाँ देखी हैं, उनके मानकों पर ये कहीं से खड़ी नहीं उतरती पर फिर भी इन
अद्भुत कलाकृतियों को देखना एक अलग तरह की सुखद अनुभूति प्रदान करता है।
गणपति,
सूर्यदेव और वाडियार राजाओं की कलाकृतियाँ सराहनीय बनी हैं। सभी कलाकृतियों को देख
कर कलाकार की मौलिकता और कल्पनाशीलता की सहज अनुभूति होती है। यहाँ हमने कोई बीस
मिनट बिताए और अगले पड़ाव की ओर बढ़ चले।
तकरीबन पंद्रह मिनट
के रास्ते पर आया – “दरिया दौलत बाग”। बाग़-बगीचों से घिरा ये छोटा सा लकड़ी का महल
टीपू-सुल्तान का ग्रीष्म-कालीन आवास था। हमने इसके बागीचों का आनंद लिया किन्तु
महल में कुछ मरम्मत-कार्य चल रहे होने की वजह से हम अन्दर नहीं जा सके। यहाँ आधे
घंटे का समय बिता कर हम “गुम्बज़” पहुंचे।
यह टीपू के पिता की समाधि है जहाँ बाद
में खुद टीपू और उनकी माता को दफनाया गया। इस की स्थापत्य कला अनोखी है और हरियाली
से घिरे इस जगह को देख कर लगा कि चिर-निद्रा में लीन परिवार को इतना सुकून तो
मिलना ही चाहिए। आधा घंटा बिता कर जब हम वहाँ से बाहर निकले तो फुटपाथी दुकानदारों
और घोड़े की सवारी कराने वालों ने हमें घेर लिया। बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा कर
हम गाड़ी में बैठ पाए। यहाँ से चले तो दस मिनटों में हम संगम किनारे थे। हमें बताया
गया कि यह तीन नदियों – कावेरी, लोकपावनी और हेमावती का संगम है। यहाँ मेले का सा
माहौल था। लोग-बाग संगम में उतर कर पवित्र स्नान कर रहे थे। कहीं पूजा-पाठ चल रहा
था तो कुछ परिवार मानो पिकनिक मनाने आये थे। यहाँ का भक्तिमय माहौल अत्यंत शांति
प्रदान करनेवाला था।
यहाँ से चले तो
बीस-पच्चीस मिनट में कर्नल बैली की काल कोठरी पहुँच गए। रास्ते में हमने वह जगह भी
देखी जहाँ टीपू-सुल्तान मृत पाए गए थे। फिर हम श्री रंगनाथस्वामी मंदिर के सामने
थे। शाम के चार बजने वाले थे किन्तु मंदिर अभी बंद था। हमें बताया गया कि मंदिर
खुलने में आधा-पौन घंटा समय लगेगा। हमने देवों को बाहर से ही प्रणाम किया और
बृंदावन गार्डन की ओर प्रस्थान कर गए।
जब हम बृंदावन गार्डन पहुंचे, हमारी घड़ी ने बताया कि साढ़े-चार बज रहे हैं। इस
बागीचे की क्या तारीफ करूँ? जब तक आप इसे देखे नहीं, घूमे नहीं, इसकी सुन्दरता समझ
नहीं आएगी। यहाँ पर क्या नहीं है – करीने से बना बागीचा जिसमें भांति-भांति के
पुष्प पल्लवित हो रहे हैं, बड़ा सा तालाब जिसमें नौकायन की व्यवस्था है, मन को हरते
झरने-फव्वारे और मछली-घर। हाँ, यदि आप घूमते-घूमते थक जाएँ तो चाय-नाश्ते की भी
भरपूर व्यवस्था है। घबराइए नहीं, बस घूमते जाइये! एक और बात – जब ऐसी सुन्दर जगह
घूमने जाएँ तो कैमरे की आँखों के बजाए अपनी आँखों का इस्तेमाल करें और तस्वीरों को
कार्ड पर नहीं, दिल में संरक्षित करें। जब उन तस्वीरों को ज़ेहन में लायेंगे तो
फूलों के चटख रंगों के साथ-साथ उसकी खुशबू भी आपके अंतर्मन को अपने आगोश में ले
लेगी।
एक और बात – जमशेदपुर के जुबिली पार्क देख चुके लोगों को दोनों में हैरतअंगेज़
समानता दिखती है और हो भी क्यों न? जुबिली पार्क आखिर बृंदावन गार्डन की तर्ज़ पर
ही बनाया गया है। इस मनोरम स्थल को घूमते-घूमते कब तीन घंटे निकल गए, पता ही नहीं
चला। वक़्त हो रहा था कि हम आगे प्रस्थान करें। राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरपट भागते
वाहनों के बीच हम भी आँखें बंद किए कन्नड़ गानों की धुन को आत्मसात किए जा रहे थे।
रास्ते में हमने मद्दुर वड़े और कॉफ़ी का आनंद लिया। इधर घड़ी ने दस बजाए और उधर
हमारा गंतव्य आ गया। हमने हरीश को विदा किया और इस आनंददायक सफ़र के सुखद पलों को
पुनः जीने में लग गए।
इस यात्रा-वृतांत को इ-बुक के रूप में भी पढ़ सकते हैं: http://matrubharti.com/book/5313/
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