आज दार्जीलिंग में
हमारा तीसरा दिन है. हमारे यात्रा-कार्यक्रम में अब तीन चीज़ें शेष हैं – थ्री
पॉइंट टूर, रॉक गार्डन और गंगा-माया पार्क तथा दार्जीलिंग का गौरव – हिमालयन रेल
की सवारी! टाइगर-हिल जाने वाले पर्यटक परंपरागत तौर पर अल-सुबह पहुँच, वहाँ से
कंचनजंगा की चोटियों को भुवन-भास्कर की प्रथम किरणों से सुनहरा होता देखने का
अलौकिक सुख पाते हैं. चूँकि ठंड भी ज्यादा थी और धुंध भी, तो हमने यह तय किया कि
हम नाश्ते के बाद टाइगर-हिल चलेंगे. हमारे कहे अनुसार संजोक अपनी सूमो के साथ
साढ़े-आठ बजे से पहले ही हाज़िर था. हमें देखते ही उसने सुप्रभात कहा. मैंने महसूस
किया कि वह कल की अपेक्षा आज थोड़ा खुश है.
हमारा ड्राइवर संजोक
टाइगर-हिल की ओर जाने
का रास्ता “घुम” होकर जाता है. जब हम वहाँ से आगे बढे तो बहुत तेज़ी से आबादी कम
होने लगी और रास्ते की चढ़ाई सीधी होने लगी. घने जंगलों में टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर
शायद हम अकेले ही जा रहे थे. इतने में मुझे एक औरत एक छोटी बच्ची के साथ जाती
दिखाई दी. मैंने संजोक से पुछा – क्या इधर भी लोग रहते हैं? उसने मुझे बताया कि
आगे एक मंदिर है. जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है, वो देवी का दर्शन करने पैदल ही आते
हैं. इतने में मुझे उस बच्ची के पिता दिखाई दिए जो आगे निकल गए थे और हमारी गाड़ी
की आवाज़ सुन, एक किनारे खड़े हो अपने परिवार को आता देख रहे थे. टाइगर-हिल
व्यू-पॉइंट से कुछ पहले हमें एक मंदिर दिखाई दिया. यहाँ कुछ गाड़ियाँ खड़ी थी. कुछ
लोग मंदिर में थे.
टाइगर-हिल पर स्थित मंदिर
टाइगर-हिल का टिकट काउंटर
आगे एक बैरियर था
जहाँ से हमें टिकट लेना था. यहाँ प्रति व्यक्ति टिकट की दर दस रूपए थी. हमें गाड़ी
के साथ आगे जाने दिया गया. हम मोड़ से आगे बढे तो देखा कि वहाँ एक व्यू-टावर था
जिसे तोड़ दिया गया था. वहाँ एक सज्जन मिले जो साफ-सफाई में लगे थे. उन्होंने बताया
कि यहाँ नया टावर बनेगा. चूँकि अब टावर नहीं था, अतः नीचे से देखने के टिकट के तौर
पर दस रूपए लगे. असमान नीला तो था लेकिन पूरी तरह साफ़ नहीं था. कंचनजंगा की
चोटियाँ नीले आकाश में हल्की परछाई की तरह नज़र आ रही थी. हमने काफी कोशिशें कीं कि
उसकी छवि कैमरे में कैद कर लें लेकिन असफल रहे.
टाइगर-हिल से दिखाई देता गोरखा स्टेडियम
टाइगर-हिल का टूटा ऑब्जर्वेटरी
भले ही हम कंचनजंगा के वृहद् रूप
में दर्शन न कर सके हों पर टाइगर-हिल से दार्जीलिंग शहर का नज़ारा अद्भुत था. गोरखा
फुटबॉल स्टेडियम तो यहाँ से साफ़ नज़र आ रहा था. दायें देखो या बाएँ, हर ओर सिर्फ और
सिर्फ हरियाली. आसमान को छूते करीब-करीब निर्जन से इस वन-प्रदेश के शिखर पर खड़ा
होना ही अपने-आप में एक आध्यात्मिक अनुभव था.
डनगौन सामतेन चोलिंग मोनेस्ट्री या घूम मोनेस्ट्री का द्वार
घूम मोनेस्ट्री का भवन
हमारा अगला पड़ाव था –
घूम मोनेस्ट्री. घुम रेलवे स्टेशन से थोड़ा ही आगे जाने पर मुख्य सड़क पर ही स्थित
है - डनगौन सामतेन चोलिंग मोनेस्ट्री. इसे ही स्थानीय लोग घुम मोनेस्ट्री कहते
हैं. इस मठ की मुख्य ईमारत सड़क के तल से थोड़ा नीचे है. सीढियाँ उतर कर जब हम नीचे
पहुंचे तो देखा कि वहाँ गहरे मैरून रंग के वस्त्र धारण किए कुछ बच्चे खेल रहे हैं.
हमने उनसे बात करने की कोशिश की लेकिन वे न तो हिंदी, न अंग्रेजी और न ही बांग्ला
समझते थे. मेरे हर सवाल के जवाब में वो एक-दूसरे को देखते और हंसने लगते. फिर
उनमें से एक ने चिल्ला कर एक नौजवान को बुलाया. मैंने उससे भी बात करने की कोशिश
की लेकिन नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात! हार कर हमने तय किया कि हमलोग खुद ही मंदिर के
अंदर-बाहर घूम लेते हैं.
अगर हम हौले से
इतिहास की ओर देखें तो पाते हैं कि धार्मिक स्थल दरअसल ज्ञान का केंद्र हुआ करते
थे. हिन्दू मंदिरों में अनेक प्राचीन पांडुलिपियाँ हैं जो समकालीन इतिहास और साहित्य
अपने अंदर समेटे हुए हैं. ठीक इसी प्रकार बौद्ध-मठों में ज्ञान का अकूत भण्डार
छिपा है. ज्ञान का ये खज़ाना सिर्फ किताबों या पांडुलिपियों की शक्ल में नहीं होता
है. कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कूट-चिन्हों के सहारे दर्ज रहते हैं. पूजा और जीवन
जीने में काम आने वाली अनेक विधियाँ श्रुति रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती
रहती हैं. इसी प्रकार इस मंदिर में भी ज्ञान के अनेक आयामों का समावेश है. चूँकि
हम संवाद कायम कर पाने में असफल रहे थे, यहाँ उपलब्ध किताबों और अन्य दस्तावेजों
के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिल सकी. हाँ, इतना तो हम समझ ही गए थे कि यहाँ
कई विद्यार्थी धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. आस-पास उनके रहने और खाने की
व्यवस्था थी. इसे सीधे शब्दों में कहें तो वहाँ एक हॉस्टल था. मंदिर के अन्दर
बुद्ध की स्वर्णिम-प्रतिमा थी. मंदिर की आतंरिक दीवारों पर भित्ति-चित्र बने थे.
अंग्रेजी में इसे mural कहते हैं. इन चित्रों में अनेक धार्मिक प्रकरण उद्धृत थे. अंतःस्थल
में माहौल अत्यंत शांत और मन को सुकून देनेवाला था. हम अपने स्तर से चीज़ों की
व्याख्या-विवेचना करते वहाँ से निकल आये. बाहर आकर यह महसूस हुआ कि कितना ही अच्छा
होता यदि मठ की ओर से किसी ज्ञानी व्यक्ति को वहाँ की जानकारी देने हेतु नियुक्त
कर दिया जाता.
सुबह के दस बजने को हैं
और अब हम बतासे लूप के टिकट-काउंटर पर खड़े हैं. ये दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे का एक
लूप है जहाँ ट्रेन को तीव्र रैखिक चढ़ाई चढ़ने के बजाय एक गोलाकार चक्कर घुमाकर उसे
तेज़ी से ऊंचाई प्रदान की जाती है. 1881 में अपनी स्थापना के बाद से ही पहाड़ों की
तीव्र-चढ़ाई रेलों के लिए एक समस्या थी. 1890 में इस लूप को डिजाईन कर इस समस्या का
समाधान किया गया. फिर 1995 में यहाँ के बहादुर शहीद सैनिकों के सम्मान में यहाँ एक
“युद्ध-स्मारक” की स्थापना की गई. स्मारक के अन्दर प्रवेश के लिए प्रति-व्यक्ति
पंद्रह रूपए के टिकट का प्रावधान है. अंदर प्रवेश करते ही एक पुलिया है जिसके नीचे
से दार्जीलिंग से आ रही ट्रेन गुजरकर सामने के पुल से होती घुम स्टेशन को रवाना हो
जाती है. आज ये बात हमें भले ही अति-साधारण लगे लेकिन इस विचार को अमलीजामा पहनाने
में तब के अभियंताओं-तकनिशियनों को कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे, हमें ये अवश्य ही
सोचना चाहिए.
जब हम पुलिया से
अंदर गए तो हमारा साक्षात्कार करीने से की गई बागवानी पर गया. लूप की गोलाई के
केंद्र में “युद्ध-स्मारक” स्थित है. ये त्रिभुजाकार स्तंभ ऊपर की ओर बढ़ते हुए
पतला होता जाता है. इसके शीर्ष पर एक पिरामिडनुमा आकृति है. इसके बगल में उलटी
बंदूक पकड़े एक सिपाही अपने शहीद साथियों की याद में सर झुकाए खड़ा है. राष्ट्र के
लिए हँसते-हँसते मौत से खेल जाने वाले वीरों को हर आने-जाने वाला अपनी श्रधांजलि
दे रहा था. सीढ़ियों के पास शान से फहराता तिरंगा वीरता-अमन-प्रगति का संदेश दे रहा
था. मुझे ऐसा लग रहा था मानो वे वीर सिपाही स्वयं अपने हाथों से वहाँ तिरंगा लगा
ये कह रहे हों –
कर चले हम फ़िदा
जान-ओ-तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले
वतन साथियों
हम रेल की पटरियों
के किनारे-किनारे लूप का चक्कर लगा कर नजारों का आनंद लेने लगे. यहाँ घूमते-घूमते
अगर आप थक जाएँ तो बैठने के लिए अनेक बेंच हैं. लूप के एक किनारे हमें दो दूरबीन
वाले मिले. तीस रूपए प्रति-व्यक्ति की दर से वे वहाँ से दार्जीलिंग शहर का नज़ारा
दिखाते हैं. वैसे तो वहाँ से दूरबीन से देखने लायक कुछ ख़ास नहीं था फिर भी हमने इस
का आनंद लिया. अगर दिन साफ़ होता तो दूरबीन से शायद हम कंचनजंगा को और पास से देखने
का लुत्फ़ उठा पाते, पर ऐसा था नहीं. बहरहाल, तस्वीरें लेते-लेते कब पैंतीस-चालीस
मिनट बीत गए, हमें पता ही नहीं चला. थ्री-पॉइंट टूर के तीनों स्थल का हम भ्रमण कर
चुके थे. अब बारी थी रॉक-गार्डन चलने की.
लूप से जब हम चले तो
ड्राईवर ने एक बायाँ मोड़ लिया. उसके बाद तो जैसे हमारी साँसे ऊपर-की-ऊपर और
नीचे-की-नीचे रह गईं. रास्ता एक अनवरत ढलान था जो कहीं तीस डिग्री तो कहीं-कहीं पैंतीस-चालीस
डिग्री तक का था. बस्तियों के बीच के संकरे रास्तों से गुजरते हुए हम जल्दी ही
खुले में आ गए. अब हमारे चारों ओर चाय के बागान थे पर सड़क की ढ़लान अब भी डरावनी ही
थी. चारों ओर दूर तक फैली पहाड़ों की श्रृंखलाएँ दूर नीले गगन में कहीं खो सी जा
रही थीं. गहरी घाटियों में जहाँ-तहां कुछ घर दिख रहे थे. शायद वहाँ कोई बस्ती
होगी. हम बड़ी तेज़ी से नीचे उतर रहे थे. कुछ ही मिनटों में हमें रॉक-गार्डन का
प्रपात नज़र आने लगा. इसके बाद चाय के बागान ख़त्म हो गए और घने जंगलों से हमारा
सामना हुआ. हमें बतासे-लूप से रॉक-गार्डन आने में कोई बीस मिनट लगे होंगे.
जब हमने रॉक-गार्डन
में प्रवेश किया, तब सुबह के ग्यारह बज रहे थे. चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा
ये बागीचा दरअसल एक पहाड़ी झरने के इर्द-गिर्द विकसित किया गया है. प्रवेश-शुल्क दे
कर हम जैसे ही अन्दर घुसे, कल-कल ध्वनि से नीचे उतरते झरने ने हमारा स्वागत किया. यहाँ
काफी भीड़ जमा थी, अन्दर जानेवालों की भी और वापस लौटने वालों की भी. हमने आगे बढ़
जाना ही मुनासिब समझा. कदम-दर-कदम चट्टानों के दरम्यां की गई बागवानी और कलाकारी
हमारे कदमों को मानो थाम ले रही थी. चलते-चलते हम प्रथम तल तक आ पहुंचे. यहाँ काफी
बड़ा चबूतरा बना था जहाँ बैठने का इन्तजाम था. यहाँ कुछ फोटोग्राफर्स भी थे जो
पर्यटकों को पारंपरिक पोशाकों में तस्वीरें खिंचवाने के लिए प्रेरित कर रहे थे. यहाँ
से दो रास्ते थे, दाहिना रास्ता झरने की दिशा में ऊपर ले जा रहा था जबकि बायाँ रास्ता
पत्थरों और चट्टानों के मध्य स्थित तीन तलों वाले बगीचे की ओर ले जा रहा था. हमने
झरने की ओर जाना तय किया.
झरने के
किनारे-किनारे कभी दायें तो कभी बायें जाते रास्तों और पुलों से होते हुए हम अनेक
तल चढ़ते हुए काफी ऊपर तक आ गए. जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते, लोगों की संख्या कम
होती जाती. आखिरी पड़ाव तक तो सिर्फ हम लोग ही पहुंचे. ऊपर से नीचे देखने पर लोग
चींटियों के तरह नज़र आ रहे थे. हमने कुछ तस्वीरें खींची और उतर गए. अब बारी थी
दूसरी ओर जाने की. अजब-गजब चट्टानी कलाकृतियों के बीच करीने से सजाया गया उपवन
नयनाभिराम दृश्य पेश कर रहा था. ये एक ऐसी जगह है जहाँ आपके पैर कहेंगे – “अब और
नहीं” किन्तु दिल कहेगा – “बस अगला तल देख लेते हैं”. अगर थक जाएँ तो भी परवाह
नहीं. यहाँ कदम-कदम पर पर्यटकों के विश्राम के लिए बैठने की व्यवस्था है. हाँ, एक
बात का ध्यान अवश्य रखें – पीने का पानी साथ जरूर रखें. एक बार आप अन्दर गए तो फिर
कुछ नहीं मिलेगा. हम यहाँ काफी समय भी बिता चुके थे और दो अलग-अलग रास्तों की चढ़ाई
ने हमें थका भी दिया था. हम बाहर आ गए. हमें भूख भी लग आई थी, तो पास के ही एक
होटल से हमने गरमा-गर्म मोमो खाया. यहाँ हमें पता चला कि गंगा-माया पार्क और नीचे
है और रास्ते में कुछ काम चल रहा है. अभी पौने-एक बज रहा था और हमें एक-बीस की
टॉय-ट्रेन में भी जाना था. तो हम वापस चल दिए. एक बात तो मैं समझ ही गया, अगर
रॉक-गार्डन और गंगा-माया पार्क अच्छे से घूमना हो तो आपको कम से कम चार घंटों का
समय लेकर चलना चाहिए.
जब हम दार्जीलिंग
स्टेशन पहुंचे तो देखा कि 52548 जॉय राइड प्लेटफार्म पर लगी थी. हमने उसके ड्राईवर
से बात की. उन्होंने बताया कि ये इंजन अंग्रेज़ ले कर आये थे. तब से अब तक ये अपनी
सेवाएँ दे रही है. उन्होंने हमें इंजन का बायलर दिखाया. ये छोटा था. उन्होंने
बताया कि बायलर छोटा होने की वजह से हमें बीच में रुक कर पानी भरना होता है. ट्रेन
के खुलने का समय हो चला था. कोच अटेंडेंट ने घोषणा की कि यात्री अपनी सीट पर बैठ
जाएँ. आज की ट्रेन में सिर्फ एक डब्बा जोड़ा गया था क्योंकि यात्रियों की संख्या कम
थी. हम जा कर अपनी सीट पर बैठ गए. थोड़ी देर में कोयले के इंजन ने अपनी जानी-पहचानी
आवाज़ में तेज़ सीटी दी. फिर धुएं और भाप की महक और गर्मी के एहसास ने हमें अपने
बचपन में पहुंचा दिया. तब अधिकांश ट्रेने भाप के इंजन से चला करती थी. ट्रेन की
खुली खिड़की से देखने का मतलब होता था इंजन के धुएं के संग उड़ते कोयले के बारीक
कणों का प्रकोपभाजन बनना. आपके कपड़े काले पड़ जाते थे और तेज़ हवा और कोयले के कण
बालों की तो ऐसी की तैसी कर देते थे.
ट्रेन ने धीरे से
प्लेटफार्म का दामन छोड़ दिया और सफ़र पर आगे बढ़ चली. सड़क के किनारे-किनारे वाहनों
संग दौड़ती ट्रेन राह चलते पर्यटकों के लिए कौतूहल का विषय थी. कई लोग अपने
मोबाइल-फ़ोन से ट्रेन की तस्वीरें उतार रहे थे. जब-जब ट्रेन सड़क के दायें से बायें
या बायें से दायें आती, सड़क पर चलते वाहन उसके लिए रुक जाते. मकानों, बाजारों और
वाहनों की कतारों के बीच से होती ये टॉय ट्रेन छुक-छुक करती चली जा रही थी और हम
नजारों का आनंद लेने में व्यस्त थे. आधे घंटे में हमारी ट्रेन बतासे-लूप पर थी.
यहाँ पर हम दस मिनट के लिए रुकने वाले थे. अभी हम पहुंचे ही थे और ट्रेन के साथ
तस्वीरें लेना शुरू ही किया था कि पीछे से आने वाली डीजल जॉय-राइड ट्रेन आ पहुंची.
लगता है कि उसमे ज्यादा पर्यटकों ने टिकट लिया होगा तभी तो उसमे दो डिब्बे लगे थे.
उसमे बैठे तमाम यात्री उतर कर हमारी ट्रेन के पास आ तस्वीरें लेने में लग गए. इस
अफरातफरी में दस मिनट कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला.
हम यहाँ से चले तो
सवा-दो बजे घुम स्टेशन पहुँच गए. आप कई जगहों पर लिखा पाएँगे कि घुम विश्व का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन है पर ये हकीकत नहीं है. हाँ, ये भारत का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन ज़रूर है. यहाँ एक
रेल संग्रहालय है और एक छोटा सा पार्क है. संग्रहालय में दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे
के इतिहास का गवाह रही कुछ वस्तुएँ और ढ़ेरों जानकारी है. यहाँ दस मिनट बिता कर हम
पार्क गए. यहाँ कंचनजंगा का एक प्रतिरूप बना है जहाँ बच्चे अपनी तस्वीरें खिंचवा
रहे थे. वैसे कुछ लोगों के लिए बचपन उम्र की मोहताज़ नहीं होती. उनका तो दिल बच्चा
होता है! आधे घंटे के ठहराव के बाद जब हम यहाँ से चले तो इस बार बीच में गाड़ी कहीं
नहीं रुकी. सिर्फ चालीस मिनटों की यात्रा में हम दार्जीलिंग स्टेशन पर थे.
यहाँ से हम सीधे
होटल पहुंचे. दार्जीलिंग ऐसी जगह है कि आप जितना भी घूमो, आपका मन नहीं भरेगा. हम
भी कोई अपवाद तो थे नहीं. सो, हम भी निकल पड़े चौरास्ता और मॉल रोड की सैर पर. आज
की सैर का एक विशेष प्रयोजन ये भी था कि हम अपने प्रियजनों के लिए यहाँ से कोई
निशानी ले लें. तो सैर-सपाटा और खरीदारी करते शाम के छः बज गए. ठंड बढ़ने लगी थी और
हमारी खरीदारी पूरी हो चुकी थी. लिहाजा हम वापस चल दिए.
वापस आ कर याद आया कि कल
सुबह-सुबह हमें न्यू-जलपाईगुड़ी के लिए निकल जाना है. मैं श्री प्रधान के पास गया
और उनसे अनुरोध किया कि हमारा बिल बना दें ताकि सुबह हमें देर न हो. उन्होंने
हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया. मैंने पैसे चुकाए और उनका धन्यवाद किया. अब समय था
कि हम अपना सामान समेट वापसी की तैयारी करें.
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