सुबह के सात बजे हैं
और ये दार्जीलिंग में हमारे दूसरे दिन की शुरुआत है. यूँ तो हमें आठ बजे तैयार
रहने को कहा गया था किन्तु मैंने ड्राईवर को नौ बजे आने को कहा था. मुझे लगा था कि
लंबी यात्रा की थकान से उबरने में थोड़ा समय तो लगेगा ही. आठ बजते-बजते नाश्ता भी
तैयार हो गया. साढ़े-आठ बजे तक हम निकल पड़ने को तैयार थे. मैंने ड्राईवर को फ़ोन
लगाने की कोशिश की मगर असफल रहा. घड़ी की सुइयाँ तेज़ी से नौ बजने की ओर बढ़ रही थी
और न तो ड्राईवर का अता-पता था, न ही कोई फ़ोन लग रहा था. हार कर मैंने श्री बिजय
रॉय को फ़ोन लगाया. हर दस मिनट में “बस पंद्रह मिनट में गाड़ी पहुँच जाएगी” के
आश्वासन मिलते रहे. हमारा उत्साह अब खीज में बदलने लगा था. अपनी खीज निकालने के
लिए “सेल्फी” से अच्छा और क्या हो सकता था?
दस बजने में कोई दस
मिनट बचे होंगे कि संजोक (ड्राईवर) अपनी टाटा सूमो और कुछ बहाने लेकर हाज़िर हुआ. हमारा
समय तो बर्बाद हो ही चुका था लेकिन हम अपना मूड ख़राब नहीं करना चाहते थे. मैंने
सिक्किम ट्रेवल्स द्वारा दिए गए यात्रा-कार्यक्रम की प्रति निकाली और संजोक को बता
दिया कि हमें इसमें लिखे सारे जगह एक-एक कर देखने हैं. मैंने आपको पहले ही बताया
था कि दार्जीलिंग के टूर-ऑपरेटर तीन तरह के टूर कराते हैं –
“सेवेन पॉइंट टूर”
जिसमे शामिल है – हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान और चिड़ियाघर, रंगीत-घाटी रोपवे,
तेनजिंग और गोम्बू रॉक, चाय बागान, तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र, लेबोंग
रेस कोर्स और अंत में गोरखा फुटबॉल स्टेडियम.
“फाइव पॉइंट टूर”
जिसमे शामिल है – जापानी मंदिर और शांति-स्तूप, लाल-कोठी, धीरधाम मंदिर, आभा आर्ट
गैलरी और बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम.
“थ्री पॉइंट टूर”
जिसमे शामिल है – टाइगर हिल, बतासिया लूप और घूम मोनेस्ट्री.
इन तीनों के अलावा
हमारे करार में रॉक गार्डन और गंगा-माया पार्क भी शामिल थे.
तो संजोक यानि कि
ड्राईवर ने कहा कि शुरुआत ज़ू से करते हैं. कोई दस मिनट में हम पद्मजा नायडू
हिमालयन जूलॉजिकल पार्क के दरवाज़े पर थे. टिकटें चालीस रूपए प्रति व्यक्ति के दर
से थीं और कैमरे के लिए दस रूपए अतिरिक्त लगे. हमने अन्दर जाने का टिकट लिया तो
पता चला कि इसी टिकट पर हम हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट और संग्रहालय भी
घूमेंगे .
ज़ू के प्रवेशद्वार पर लगा मानचित्र
चिड़ियाघर का आधिकारिक मानचित्र (ज़ू के वेबसाइट पर उपलब्ध)
अलसाया भालू
काला तेंदुआ (जंगल-बुक के बगीरा की याद आई?)
खूबसूरत पुष्प
आराम फरमाता क्लाउडेड तेंदुआ
शाही चाल से टहलता तेंदुआ
शर्मीले याक
अन्दर घुसते ही
हमारा सामना धूप में अलसाये पड़े भालू से हुआ. पर्यटक उसे देख उत्साहित थे और हर
कोई उसके साथ अपनी सेल्फी लेने को उतावला दिख रहा था और भालू भाई साहब इन सबसे
बेपरवाह गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे. हम आगे बढ़ते रहे और एक-एक कर हमारा सामना
हिमालयन भेड़िया, तेंदुआ, काला तेंदुआ, याक और बाघ जैसे जाने कितने ही जानवरों से
हुआ. यूँ तो ज़ू यानि चिड़ियाघर लगभग हर बड़े शहर में पाए जाते हैं पर इस ज़ू की
ख़ासियत मुझे ये लगी कि यहाँ हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले जानवर थे जो अमूमन
और चिड़ियाघरों में नहीं पाए जाते. रास्ते में इस क्षेत्र की अनेक फूलों-वनस्पतियों
की अनेक नई और रंग-बिरंगी किस्में देखने को मिली. आप कदम-दर-कदम बढ़ते जाते हैं और
नए-नए अनुभव आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा बनते जाते हैं.
हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान
आगे बढे तो सामने
लिखा था – May (you) climb from peak to peak. ये हिमालयन पर्वतारोहण
संस्थान का प्रथम दर्शन था. आगे इस संस्थान का भवन था जहाँ इसका कार्यालय और
कक्षाएँ थीं. यहाँ देश भर के पर्वतारोही प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु आते हैं. यहाँ
के प्रशिक्षु रॉक क्लाइम्बिंग के अभ्यास के लिए निकट ही स्थित तेनजिंग और गोम्बू
चट्टानों पर जाते हैं. इनके बारे में बाद में बताऊंगा. अभी तो सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते
हैं और चलते हैं संग्रहालय! दो तलों वाले इस संग्रहालय को देखने के बाद आपको
हिमालय की विशालता, भव्यता, ताकत और कठोरता का अनुभव होता है. हमें ये एहसास भी
होता है कि इंसान प्रकृति के सामने कितना तुच्छ, कितना बौना है. साथ ही ये विश्वास
भी जगता है कि वह नर ही है कि जिसकी जिद्द और साहस के आगे हिमालय भी झुक जाता है.
सच ही तो है –
मानव जब जोर लगाता
है
पत्थर पानी बन जाता
है |
तेनज़िंग स्मारक
जब हम बाहर आये तो
29 मई 1953 को एवरेस्ट पर तेनजिंग नोर्गे शेरपा के फतह की याद में बने स्मारक को
देखा. इस स्मारक का लोकार्पण श्री तेनजिंग के साथ एवरेस्ट पर कदम रखने वाले सर
एडमंड हिलेरी द्वारा किया 1997 में किया गया. यह निश्चित ही एक महान पर्वतारोही की
अपने अनन्य सहयोगी को परम श्रद्धांजलि है.
अब लौट चलने की बारी
थी. रास्ते में हमने देखा कि इस चिड़ियाघर के अन्दर ही बंगाल नेचुरल हिस्ट्री
म्यूजियम की एक नई इमारत तैयार है. पूछने पर पता चला कि बेहतर रख-रखाव के लिए इसे
बाहर से अन्दर लाया जा रहा है. चुनाव बाद इसका उद्घाटन होना तय है. दार्जीलिंग आने
वाले पर्यटकों के लिए ये अच्छी खबर है. एक टिकट लो और चार पॉइंट्स का मज़ा लो! आपको
बताते चलें कि इंटरनेट पर जानकारी हासिल करने के क्रम में मुझे ये पता चला था कि
नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में रख-रखाव की समस्या के कारण उसे बंद कर दिया गया है
पर यहाँ के टूर-ऑपरेटर बंद पड़े पॉइंट्स की भी बखूबी गिनती करवा देते हैं! बहरहाल,
बाकी के जानवरों को देख कर बाहर आते-आते बारह-सवा बारह बज गए. हम अपने अगले पॉइंट
यानि कि रंगीत-घाटी रोपवे की ओर चल दिए.
संत जोसेफ्स स्कूल
महज दस मिनटों में
हम रोपवे के पास थे. ड्राईवर ने सड़क के दूसरी ओर इशारा करके बताया कि ये जो शानदार
ईमारत आप देख रहे हैं, ये संत जोसेफ्स स्कूल है जहाँ हाल ही में “यारियाँ” फिल्म
की शूटिंग हुई है. बॉलीवुड सदा से ही दार्जीलिंग का दीवाना रहा है. आपको सुपरस्टार
राजेश खन्ना का वो गाना तो याद ही होगा – “मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू”, या
फिर देव आनंद साहब की फिल्म “जब प्यार किसी से होता है” का गाना “जिया ओ”, या फिर
“परिणीता” का “ये हवाएँ”. इन सभी में दार्जीलिंग के प्रसिद्ध हिमालयन रेल की झलक
देखने को मिलती है. इनके अलावा “मेरा नाम जोकर” का वो हिस्सा तो आपको याद ही होगा
जिसमे ऋषि कपूर एक विद्यार्थी हैं या फिर शाहरुख़ खान अभिनीत “मैं हूँ ना” का कॉलेज
आपको याद है? “बर्फी” तो आपको बखूबी याद होगी, क्यों? है न?
अब समय था कि हम
अपने और रोपवे के बीच की इन चंद सीढ़ियों के फासले मिटा दें. हमने बस कुछ सीढियाँ
चढ़ीं और हम टिकट काउंटर के सामने थे. यहाँ टिकटों की कीमत डेढ़ सौ रूपए प्रति
व्यक्ति थीं. यूँ तो रोपवे दस बजे ही खुल जाता है और हमने सोचा था कि ग्यारह बजे
तक यहाँ पहुँच जायेंगे लेकिन आपको तो पता ही है कि हमारा एक घंटा कैसे बर्बाद हुआ.
हाँ, आपको बता दें कि तीन साल से कम उम्र के बच्चों के लिए मुफ्त यात्रा का
प्रावधान है और तीन से सात साल के बच्चे आधी कीमत दे कर इसका आनंद उठा सकते हैं. हर
महीने की उन्नीस तारीख को ये बंद रहता है. जब हम पहुंचे तो हमारे आगे बमुश्किल दस
लोग थे. हमें अपनी बारी आने का ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा.
केबल कार में बैठ, ऊँचे
पेड़ों, घरों और घाटियों के ऊपर से नीचे देखना एक अद्भुत नज़ारा था. आबादी विरल हुई
तो चाय के बागान शुरू हो गए. कुछ हरे-भरे थे तो कुछ में पौधों की छंटाई हुई थी.
कुछ जगहों पर औरतें चाय की पत्तियाँ तोड़ रही थीं. दूर तक वादियों का खूबसूरत नज़ारा
मंत्रमुग्ध करने वाला था. दूर घाटियों में छिपी रंगीत नदी के जल की चांदनी रेखा
यदा-कदा अपनी झलक दिखला रही थी. हमारी केबल-कार शनैः शनैः नीचे की ओर जा रही थी.
हमें पहले ही कहा गया था कि नीचे जा कर उतर जाएँ ताकि वहाँ से लोग वापसी कर सकें.
नीचे पहुँच कर हमने देखा कि सिर्फ दो लोग ही कतार में हैं. चूँकि हमें देर हो चुकी
थी तो हमने अनुरोध किया कि हमें बिना उतरे वापस जाने दिया जाए. वैसे अगर आप उतर
जाएँ तो गरमा-गर्म चाय और मोमो का आनंद ले सकते हैं. आप चाहें तो यहाँ भाड़े पर
उपलब्ध पारंपरिक परिधानों में अपनी तस्वीर चाय-बागानों में खिंचवा सकते हैं. पर
हमने बिना उतरे वापसी का फैसला किया था. वापसी में अभी हमने आधा रास्ता ही तय किया
होगा कि बादल घिर आये और बारिश होने लगी. इसी बीच शायद बिजली चले जाने की वजह से
हमारी केबल-कार बीच रास्ते में ही रुक गई लेकिन शायद जेनेरेटर चला कर उसे फिर से
चलायमान किया गया. जब हम उतरे तो डेढ़ बजने को थे. बारिश अभी भी हो रही थी. बिना
भीगे गाड़ी तक पहुँचना असंभव लग रहा था. तो हमने वहीँ बैठ कर गर्मागर्म मैगी, मोमो
और चाय का आनंद लिया. अब तक वर्षा रानी को भी हम पर दया आ गई थी तो उन्होंने हमें
गाड़ी तक जाने की इजाज़त दे दी.
यहाँ से जब हम आगे
बढे तो रास्ते में संजोक ने दूर स्थित तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र
दिखाया. उसने यह भी बताया कि अभी रास्ते की मरम्मत चल रही है, तो जा पाना संभव
नहीं होगा. सच पूछें तो हमें भी वहाँ जाने में खासी दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि
हमारे पास समय कम था.
हम यहाँ से आगे बढ़े
तो रास्ते के बायीं ओर तेनजिंग रॉक और दाहिनी ओर गोम्बू रॉक आया.
तेनज़िंग रॉक, दार्जीलिंग
तेनजिंग रॉक सड़क
की ओर से कोई बीस फुट के आस-पास ऊँचा होगा जबकि दूसरी ओर वो काफी गहरा है. यहाँ
कुशल पर्वतारोही भी प्रशिक्षण लेते हैं तो पर्यटकों को भी मौका मिलता है. माउंट
एवेरेस्ट पर सबसे पहले कदम रखनेवाले श्री तेनजिंग नोर्गे के नाम पर इसे तेनजिंग
रॉक का नाम दिया गया है. चट्टानी हौसलों वाले इन्सान को एक राष्ट्र इससे बेहतर
क्या सम्मान दे सकता था? जब हम आगे बढे तो संजोक (ड्राईवर) ने बताया कि अब हम चाय-बागान
देखने चलेंगे.
रंगीत-घाटी चाय बागान का विहंगम दृश्य
रंगीत-घाटी चाय बागान का विहंगम दृश्य
फोटोग्राफर गौतम
कुछ ही मिनटों में
हम रंगीत-घाटी चाय बागान में थे. ये बागान काफी तीखी ढ़लान पर स्थित है. नीचे जाने
की बात सोच कर भी रोंगटे खड़े हो जाएँ! वहाँ हमारी मुलाकात गौतम और उनके साथियों से
हुई. वे पर्यटकों के लिए पारंपरिक पोशाक उपलब्ध कराते हैं और तस्वीरें भी उतारते
हैं. पोशाकों का किराया पचास रूपए प्रति व्यक्ति और तस्वीरें भी पचास की, प्रिंट
और फोटोग्राफर की सेवाओं के साथ! उनके साथ हम पूरी सतर्कता से नीचे उतरे. वे हमें
एक ऐसी जगह तक ले गए जहाँ तस्वीरें अच्छी आती. गौतम ने न सिर्फ हमारी अच्छी
तस्वीरें खींची बल्कि हमें भी हमारे कैमरे का इस्तेमाल करने में सहयोग किया. करीब
पचास मिनट बिता कर हम जब चलने को हुए तो संजोक ने दूर एक मैदान सा दिखा कर कहा –
वही लेबोंग रेस कोर्स है.
चाय बागान से दीखता लेबोंग रेस-कोर्स
ये आर्मी-क्षेत्र में आता है और यहाँ नहीं जा सकते. पहले
ये रेस-कोर्स था पर अब परेड-ग्राउंड की तरह इस्तेमाल होता है. मैंने उसको पुछा कि
भई, तुम्हारे आधे से ज्यादा पॉइंट्स तो “नहीं-जा-सकने” वाले हैं. फिर इनको सूची
में क्यों जोड़ रखा है? उसने कहा कि मैंने थोड़े ही जोड़ रखा है, वो तो ट्रेवल कंपनी
ने जोड़ रखा है. मैं तो ड्राईवर हूँ. जहाँ-जहाँ जाना संभव होगा, लेता चलूँगा! मैंने
पुछा कि अब कौन सी जगह दिखाओगे तो उसने कहा - गोरखा फुटबॉल स्टेडियम.
गोरखा फुटबॉल स्टेडियम, दार्जीलिंग
आड़े-टेढ़े-संकरे
रास्तों से आगे बढ़ते हम लेबोंग टैक्सी-स्टैंड आ गए. संजोक ने गाड़ी एक किनारे लगा
दी और नीचे की ओर इशारा किया – “यही गोरखा फुटबॉल स्टेडियम है जहाँ कभी वाईचुंग
भुटिया खेल का अभ्यास करते थे”. ये क्रीडांगन किसी भी शहर में पाए जाने वाले आम
क्रीडांगन की ही तरह था. कुछ युवा अब भी वहाँ खेल रहे थे. कुछ तस्वीरें खींच, हम
वापस चल दिए.
अब हम शहर के दूसरे
छोर की ओर जा रहे थे. तकरीबन आधे घंटे की ड्राइव के बाद हम जापानी मंदिर के सामने
थे. शहर की हलचल से दूर एकांत में बने इस मंदिर में उस समय प्रार्थना चल रही थी.
हम भी चुप-चाप कतार में बैठ गए. हमारे सामने डफ जैसा एक वाद्ययंत्र रखा था जिसे बजाने
के लिए एक लकड़ी पड़ी थी. हम वज्रासन में बैठ उसे बजाने लगे. मंत्रोच्चारों के बीच
लय में बजता यंत्र एक अलग ही माहौल बना रहा था. कुछ देर तक वहाँ बैठने से हमें
काफी शांति मिली. फिर हमने प्रसाद लिया और धीरे से वहाँ से उतर आए. मैंने देखा कि
वहाँ अनेक पर्यटक थे किन्तु बहुत कम लोग मंदिर के अन्दर जा रहे थे. यदि आप जाएँ तो
दस मिनट अन्दर ज़रूर बिताएँ. हमें तो बहुत शांति मिली. यकीन मानिये, आपको भी अच्छा
लगेगा.
जापानी मंदिर, दार्जीलिंग
दार्जीलिंग का शांति-स्तूप
इसी परिसर में आगे
शांति-स्तूप या पीस पैगोडा है. तेईस मीटर के व्यास वाले इस स्तूप की ऊंचाई साढ़े
अट्ठाईस मीटर है. इसका उद्घाटन 1992 में हुआ था. आसमान को छूता दुग्ध-धवल स्तूप और
ऊपर चढ़ने को दोनों ओर से सुंदर सीढियाँ, तिस पर भगवान् बुद्ध की स्वर्णिम प्रतिमा
के तो कहने ही क्या? अप्रतिम हरियाली के बीच अवस्थित सफ़ेद रंग की ये संरचना अपने
आकार और रंग के माध्यम से शांति का अपना संदेश बगैर किसी दिक्कत आप तक पहुंचा देती
है.
हिन्दू धर्म में
पूजा-पाठ के दौरान घंटियों का इस्तेमाल किया जाता है. किसी भी हिन्दू मंदिर में
आपको अलग-अलग आकार के घंटे टंगे मिलेंगे. इसाई भी अपने गिरिजाघरों में बड़े-बड़े
घंटे लगवाते हैं. बौद्ध धर्म में इनके स्तूपों का आकार किसी बड़े घंटे के जैसा होता
है. है न एक अद्भुत समानता! यहाँ आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बौद्ध धर्म में
स्तूपों के निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है. इनमे सबसे प्रसिद्ध है सारनाथ और
साँची के स्तूप. आठवीं सदी में बना इंडोनेशिया स्थित बोरोबुदुर स्तूप को यूनेस्को
ने दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध स्मारक माना है. दुनिया भर में नव-निर्मित स्तूपों की
संख्या कोई अस्सी के आस-पास है. हिंदुस्तान में ये राजगीर (बिहार), धौलागिरी
(ओडिशा), इन्द्रप्रस्थ पार्क (दिल्ली), दार्जीलिंग (पश्चिम बंगाल), वैशाली (बिहार), वर्धा (महाराष्ट्र), और लद्दाख
(जम्मू और काश्मीर) में हैं.
गिरी-विलास जहाँ
“लाल-कोठी” नाम के एक चर्चित बांग्ला फिल्म की शूटिंग हुई थी जिसके बाद इसे लोग
लाल-कोठी के नाम से ही बुलाने लगे. यहाँ अभी दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल का
कार्यालय है. ये जगह पर्यटकों के लिए खुली नहीं है. मेरे दिमाग में फिर से वही
सवाल कौंधा - “नहीं-जा-सकने” वाले पॉइंट्स की सूची बनाने का क्या मतलब? जो लोग
शांति-स्तूप देखने आयेंगे, वे इसे पार करके ही तो जायेंगे. फिर मुझे संजोक का
उत्तर याद आ गया और मैं चुप ही रहा.
हम यहाँ से निकले तो
आभा आर्ट गैलरी गए. यहाँ आभा देवी द्वारा कपड़े पर कढ़ाई कर बनाई गई कारीगरी के
उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं. सुई-धागे का इतना बारीक काम कि आप अचंभित रह
जायेंगे. कलाकार की कल्पना-शक्ति और कला की बारीकियों की उसकी समझ और पकड़
काबिले-तारीफ है. यहाँ आपको सिर्फ दो रूपए का टिकट लेना है और मुश्किल से पंद्रह
मिनट में आप इसे घूम लेंगे. मेरी तो यही राय है कि अपने पंद्रह मिनट यहाँ ज़रूर
बितायें.
धीरधाम मंदिर से दीखता दार्जीलिंग शहर का मनमोहक नज़ारा
यहाँ से निकले तो
समय था अपनी सूची के आखिरी पायदान पर स्थित धीर-धाम मंदिर की. ड्राईवर ने हमसे कहा
कि यहाँ कोई पर्यटक नहीं जाता पर हमने कहा कि भई तुम पहले ही दो जगहों (लेबोंग
रेस-कोर्स और तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र) के लिए इनकार कर चुके हो, अब
और नहीं. ये मंदिर दार्जीलिंग रेलवे स्टेशन के बिल्कुल बगल में है. जब हम यहाँ
पहुंचे तो साढ़े-चार बज रहे थे पर मंदिर अब भी बंद ही था. हमने चारों ओर घूम कर
माहौल का जायजा लिया. इस जगह से दार्जीलिंग शहर का अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता
है. हमने यहाँ पंद्रह मिनट बिताए. अगर मंदिर खुला होता तो शायद हम थोड़ा और समय
बिता पाते.
अब पाँच बजने को
हैं. लगातार घूम कर हम थक चुके हैं. तो अब समय है कि इस पर विराम लगा दिया जाए. वो
अंग्रेजी में कहते हैं न – let us call
it a day now. तो यहाँ से हम सीधे होटल
पहुंचे. इसके बाद गर्म चाय के साथ दिन भर खींचे गए फोटो का विश्लेषण शुरू हुआ. आज
इतना ही. कल की यात्रा का विस्तृत विवरण लेकर बाद में हाज़िर होता हूँ.
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