1
मैं लगभग दौड़ते हुए
रेलवे ओवर ब्रिज पर चढ़ा. तभी ट्रेन ने आवाज़ दी और धीरे से आगे बढ़ी. मैंने अपनी
रफ़्तार बढाई पर तेजी से सरकती हुई साढ़े-छः बजे की सियालदह लोकल मेरे सामने से निकल
गई. मैं खीज और हताशा में उसे जाते देखता रहा. मैंने सोचा – “अगली ट्रेन बीस मिनट
बाद आने वाली थी. पता नहीं तब तक मैं क्या करूँगा.” मैंने अपने अगल-बगल का जायजा
लिया. कंधे पर बैग लटकाए स्त्री-पुरुष अपने-अपने काम-धंधे पर जाने को तैयार हैं.
चाय के ठेलों पर चाय-बन का नाश्ता करने वालों की लाइन लगी है. एक और ठेले पर ब्रेड-ऑमलेट
मिल रहा है. इन दोनों के आस-पास कुछ आवारा कुत्ते खाना पाने की चाहत लिए घूम रहे
हैं. स्टेशन के प्रवेश द्वार से जितने यात्री आ रहे हैं, उससे ज्यादा लोग पटरियों
के किनारे-किनारे चल कर आ रहे हैं.
तभी घोषणा हुई कि
हावड़ा जाने वाली लोकल दो नंबर प्लेटफार्म पर आने वाली है. प्लेटफार्म की सरगर्मी
अचानक से बढ़ गई. जो बैठे थे, वे खड़े हो कर ट्रेन आने का इंतज़ार करने लगे. जो खड़े
थे, वे ट्रेन की दिशा में झाँक रहे हैं. मेरे मन में विचार आया कि यहाँ बैठे रहने
से अच्छा है कि क्यों न हावड़ा चला जाये. ट्रेन आने की देर थी कि मैं धक्का-मुक्की
कर सामने के दरवाज़े से प्रवेश कर गया. मेरी किस्मत अच्छी है कि मुझे एक सीट मिल
गई. मैंने सोचा – चलो अच्छा हुआ कि बैठने की व्यवस्था हो गई वरना तो घंटा भर
खड़े-खड़े ही जाना पड़ता. इसी भीड़ से बचने के लिए मैं साढ़े-छः की लोकल लेता हूँ वरना
तो मेरा ऑफिस साढ़े-नौ बजे खुलता है.
ट्रेन के खुलते ही
ताज़ी हवा के झोंके ने भीड़ से राहत दी. मेरे अगल-बगल ज्यादातर खोमचेवाले हैं. उन्ही
के बीच मेरे सामने की सीट पर एक कन्या बैठी है, सहमी सी, सकुचाई सी, अपने दोनों
हाथों से अपने बैग को सीने से भींचे हुए, मानो उसका सारा खज़ाना उसी में हो. उसके
घुंघराले बाल और मछली जैसी बड़ी-बड़ी आँखें उसके बंगाली होने की पुष्टि कर रही हैं. पर
ये हिरनी-सी चंचल आँखें इतनी डरी हुई सी क्यों हैं? अचानक बगल से जब दूसरी ट्रेन
धड़धड़ाती हुई गुज़री तो मैं अपने ख्यालों से वर्तमान में आ गया. हावड़ा में हम साथ
ही उतरे पर भीड़ ने उसे अपने में यूँ समेट लिया कि बस....
2
आज सात दिन हो गए जब
से मैंने छः-चालीस की हावड़ा लोकल को ही अपना बना लिया है. इंजन से तीसरे डब्बे में
ही हर दिन वो दिखाई दे जाती है. फिर हावड़ा उतरना, स्टीमर से घाट पार करना और फिर
लोकल बस का सफ़र, यही सिलसिला चल रहा है. अरे, ये क्या? आज हावड़ा स्टेशन आने वाला
है पर लगता है उसे उतरने की कोई जल्दी नहीं है. अच्छा है! आज बात करने का मौका
मिलेगा.
प्लेटफार्म पर ट्रेन
के रुकते ही यात्री उतर कर यूँ भागने लगे मानो किसी ने उन्हें ये कह रखा हो कि ट्रेन
में बम है. हो सकता है मैं अतिशयोक्ति कर रहा होऊं पर अगर आपने कोलकाता की ओर
आनेवाली किसी लोकल में सफ़र किया होगा तो इस बात को समझ जायेंगे. भीड़ ने मुझे भी
ट्रेन से उतार दिया है. प्लेटफार्म पर मेरी आँखें उसे ही ढूंढ रही हैं. वो रही,
वहाँ. धीमे निराश कदमों से निकास-द्वार की ओर बढती हुई. मैं उसके पीछे दौड़ा.
“आज भीड़ कुछ ज्यादा
ही थी.”
उसने प्रश्नवाचक
निगाहों से मुझे देखा. मैंने अपना प्रश्न सुधारा –
“आपनी कोथाय जाबेन?”
उसकी आँखों में आँसू
भर आये –
“कोथाय जाबो? अब
जाने को कोई जगह नहीं.”
“क्यों? क्या हुआ?”
“मालिक ने नौकरी से
निकाल दिया है. माँ-बाबा को कुछ नहीं बताया. हर दिन की तरह काम पर निकल आई.”
“आप चाय पियेंगी?”
इस एक प्रश्न ने
मेरे लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए. उसका नाम मौनी है. बाबा डनलप की फैक्ट्री
में काम करते थे. फैक्ट्री बंद हो जाने से बाबा की नौकरी चली गई. मजबूरी में गाँव
जा कर खेती-बारी कर रहे हैं. स्कूल की पढाई ख़त्म कर मौनी एक प्राइवेट नौकरी कर रही
थी, थी इसलिए कि अब वो भी नहीं रही. उसे डर है कि उसकी नौकरी जाने की बात सुन उसके
बाबा को सदमा न लगे, इसलिए बताया नहीं.
इंसान जब मजबूर हो,
तकलीफ में हो तो औरों से अपने तकलीफ की मान्यता चाहता है. ऐसे में मौनी को मेरा
साथ किसी अपने के साथ की तरह महसूस हुआ. मैंने तय किया कि आज ऑफिस से छुट्टी ले
लूँगा और दोनों मिल कर उसके लिए नौकरी ढूंढेंगे. मैंने परशुराम को फ़ोन लगाया –
“बॉस, आज मैं नहीं आ
पाउँगा. मेरा सी एल चढ़ा दीजिएगा.”
“क्यों भई. क्या
हुआ?” परशुराम ने अमरीश पुरी जैसी आवाज़ में पूछा. लंबी कद-काठी, रौबदार मूंछ और
अमरीश पुरी जैसी आवाज़ के साथ-साथ वह “परशुराम” की तरह गुस्सैल भी है. मैंने झूठ
बोलना मुनासिब नहीं समझा और उसे सारी बात बता दी.
“तो इसके लिए तुम्हे
छुट्टी लेने की क्या जरूरत? उसे साथ लेते आओ. अगर वह एक छोटा सा इम्तिहान पास कर
ले तो उसे यहीं रख लेंगे.”
बस तीन घंटे और मौनी
एक अजनबी सहयात्री की जगह अब मेरी सहकर्मी थी, वो भी पिछले वेतन से तीन सौ की
बढ़ोत्तरी के साथ! उसका दुःख दूर कर मुझे एक अजीब सा सुकून मिला. आज रात मैं अच्छी
नींद ले सकूँगा, एक अच्छा काम जो किया था मैंने.
3
रात के ग्यारह बज
रहे हैं और मैं अभी-अभी घर लौटा हूँ. वाह! आज का दिन भी क्या दिन था, मेरी ज़िन्दगी
का यादगार दिन! आज से ठीक एक माह पहले १० मार्च को मैं मौनी से पहली बार मिला था –
ट्रेन में. वैसे देखा जाए तो उसे मिलना नहीं कहते. मैंने बस उसे पहली बार देखा था.
भीड़ में गुम हो जाने वाली किसी भी साधारण लड़की की तरह ही थी वो, पर कोई तो बात थी
उसमें कि मैंने सियालदह लोकल छोड़ कर हावड़ा लोकल का दामन थाम लिया था.
गर्मी के दिन तो
सबके लिए परेशानी भरे होते हैं पर ये कलकत्ता की गर्मी भी न, यहाँ गर्मी से ज्यादा
उमस आपकी जान ले लेती है. मैंने पंखा चला दिया. खिड़की खोलते ही हवा से ज्यादा
बाज़ार का शोर अंदर आने लगा. वैसे तो मुंबई के बारे में कहा जाता है कि ये शहर कभी
नहीं सोता, लेकिन मैं कहता हूँ कि आप एक बार कोलकाता आ कर देखो, ये शहर भी नहीं
सोता है. पसीने से तर शर्ट खूंटी पर टंगा फड़फड़ा रहा है, बिल्कुल मेरे विचारों की
तरह. यादों के रेले, समुन्दर की लहरों की तरह, उठते हैं, एक दूसरे में उलझते हैं
और किनारे आ कर दम तोड़ देते हैं. उनमें उलझा मैं, अपने आप में खोया हुआ, कभी
मुस्कुराता हूँ, कभी गुम हो जाता हूँ.
आज पगार-दिवस था. हर
नौकरी-पेशा को इस दिन संकट-मोचक श्री (लक्ष्मी) के दर्शन होते हैं. मौनी को भी आज
पहली तनख्वाह मिली थी. “अमरीश पुरी” ने हम दोनों को आधे दिन की छुट्टी अपने
दायित्व पर दे दी थी, इस हिदायत के साथ कि छुट्टी से एक घंटा पहले आ कर दस्तख़त कर
देना तो पूरे दिन की हाज़िरी दे दूंगा. मैंने मन-ही-मन सोचा – ये अमरीश पुरी आज
आलोक नाथ कैसे बन गया? पर मुझे क्या? वैसे भी, इंसान को अपने काम से काम रखना
चाहिए.
एक बजे मैं और मौनी
साथ निकले. हमारे ऑफिस के नीचे ही एक सड़क-छाप ढाबा है जहाँ हम सब खाना खाते हैं.
आज हम दोनों आगे बढ़ कर एक रेस्त्रां में घुस गए. दाल-लुची खाते हुए मैंने मौनी से
कहा –
“मौनी, बहुत दिनों
से तुमसे एक बात कहना चाहता था.”
“हाँ, तो बोलो न.”
“मुझसे...” मैं
ठिठका.
“मुझसे शादी करोगी?”
उसने कोई जवाब नहीं
दिया. बस अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखती रही. मुझे लगा कि शायद मैंने कुछ गलत
तो नहीं पूछ लिया. बैरा बिल लेकर आया तो उसने अपने हिस्से के पैसे देने के लिए
पर्स का मुहँ नहीं खोला. मैंने इसे ही उसकी मौन स्वीकृति समझा. वहाँ से जब हम
निकले तो उसने धीरे से मेरा हाथ थाम लिया. ये उसकी स्वीकृति की पूर्णता थी. हाथों
में हाथें डाले हम बेवजह इधर-उधर घूमते रहे. जब थक गए तो पार्क की बेंच ने हमें
सहारा दिया.
“मौनी...”
“हूँ....”
“एक बात कहूँ....”
“हूँ...”
“जब तुमने पैसे नहीं
दिए, तभी मैं समझ गया कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो.”
“इसका क्या मतलब?”
“कुछ नहीं, बस ऐसे
ही...”
“ऐसे ही, कैसे ही?
तुम कहना क्या चाहते हो?” उसका स्वर तेज हो गया.
“अरे बाबा कुछ भी
नहीं कहना चाहता हूँ.” मैंने हथियार डालते हुए कहा.
“तुम मर्दों को
औरतों का फायदा उठाना खूब आता है. जरा सी मदद क्या कर दी कि समझने लगे कि औरत उनकी
गुलाम हो गई.”
“अब इसमें फायदा
उठाने की बात कहाँ से आ गई?”
“कैसे नहीं आई? अगर
तुम मेरी मदद नहीं करते तो तुम्हारी हिम्मत थी मुझे शादी के लिए पूछने की? बोलो...
चुप क्यों हो?”
“तुम गलत समझ रही
हो...”
मैं जितना समझाता,
बात उतनी बिगड़ती जाती. हार कर मैंने चुप रह जाना ही श्रेयस्कर समझा. मेरी चुप्पी
ने उसकी बौखलाहट बढ़ा दी. अगल-बगल से गुजरने वाले अब हमें तमाशा समझने लगे थे. मेरा
संयम भी अब जवाब देने लगा था. फिर भी मैंने बात तो सँभालने के लिए मजाक किया -
“तुम्हारे माँ-बाबा
ने बेकार ही तुम्हारा नाम मौनी रखा. तुम्हारा नाम तो बक-बक रखना चाहिए था.”
“देखो... मेरे
माँ-बाबा को बीच में लाया तो अच्छा नहीं होगा.”
इसके बाद तो जो
तू-तू मैं-मैं का सिलसिला शुरू हुआ कि मेरी चीख और उसके आँसू पर जा कर थमा. वो जा
चुकी थी और मैं दोनों हाथों से अपना सर पकड़े पार्क की बेंच पर बैठा अपने आँसू
छिपाने की कोशिश कर रहा था. मेरी प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो चुकी
थी.
मैं जी भर के रोया.
मन हल्का हुआ तो अन्दर से आवाज़ आई – वो तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती. वो जाना
चाहती है. उसे रोको मत, जाने दो.
मन फैसला कर चुका
था. मैं उठा, हाथ-मुहँ धोये, मुस्कुराया और ऑफिस की ओर यूँ चल दिया मानो कुछ हुआ
ही न हो. अन्दर घुसते ही परशुराम सर के अर्दली ने आकर खबर की कि साहब बुला रहे
हैं. मन में कई तरह के विचार उमड़ने लगे. कहीं मौनी ने मेरी शिकायत तो नहीं कर दी.
दुनिया भी बड़ी अजीब है, जिसकी मदद करो वही आपकी कब्र खोदने में लग जाता है. खैर,
जब तीर कमान से निकल चुका हो तो पछता कर भी क्या फायदा?
अन्दर घुसते ही
परशुराम सर ने बड़े प्यार से मुझे बिठाया और कहा –
“बेटा कुलंजन...”
“सर मेरा नाम
मनोरंजन है, कुलंजन नहीं.” मैंने विरोध किया.
“इसलिए पूरी दुनिया
का मनोरंजन कर आये?”
मैं समझ गया कि जरूर
मौनी ने नमक-मिर्च लगा कर “अमरीश पुरी” से मेरी शिकायत की है. मुझे ऑफिस से निकाले
जाने का उतना डर नहीं था जितना पुलिस-केस होने का था. मैं अन्दर ही अन्दर सिहर
गया. हे भगवान! अब क्या होगा. फिर भी मैंने परशुराम सर को बीते एक महीने की सारी
बातें तफ्सील से बता दीं. वे मुस्कुराये. फिर हँसे. फिर ठहाके लगाने लगे. उन्होंने
अर्दली भेज मौनी को बुलाया. जब वो आई तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखें सूजी हुई सी लग रही
थीं. उसके व्यवहार ने एक बात तो साफ़ कर दी थी – उसने मेरी शिकायत नहीं की थी. सर
के सामने वो सर झुकाए खड़ी रही. उन्होंने उससे उपस्थिति-पुस्तिका पर हस्ताक्षर
करवाए और कहा –
“मौनी बेटा, आज की
तुम्हारी छुट्टी. घर जाओ, आराम करो.”
मौनी ने सर को देखा,
मुझे देखा और केबिन से निकल गई. सर अब मुझसे मुखातिब थे.
“तेरी बहुत इज्ज़त
करती है. शायद प्यार भी करती है. उसे रोको, मत जाने दो.”
मैं समझ चुका था कि
मुझे क्या करना है. उसके माँ-बाबा का आशीर्वाद लेकर जब मैं रात की साढ़े-दस की लोकल
पर सवार हुआ तो लगा कि रिश्तों के मायने बदल गए हैं. मुझ अनाथ को एक परिवार मिल
गया था. नींद कह रही है कि जल्दी सो जाओ. कल एक नई सुबह आने वाली है.
बहुत अच्छी लघु कथा !! बधाई !!
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