एक हाथ में चाय और दूसरे में अखबार लेकर मैं बालकोनी में आया. कुर्सी पर जमते ही आवाज़ आई, "गुड-मार्निंग अंकल".
मैंने देखा कि सामने के फ्लैट की बालकोनी में रवि खड़ा है. हाथों में किताब और चेहरे पर तनाव.
"परीक्षा है?"
उसने सर हिलाया.
"हिंदी की"
मैं अपना ध्यान उसकी ओर से हटा कर अखबार पर लगा दिया. मुखपृष्ठ पर खबर थी - पत्रकार शशांक शेखर नही रहे. साथ छपी तस्वीर देख मेरे दिमाग में कल शाम की याद ताज़ा हो आई. मैं धर्मपत्नी के साथ बाज़ार से लौट रहा था. नुक्कड़ से सीधे देखा तो मुख्य-मार्ग पर ठेलों की कतार लगी थी. मैंने बाएँ वाली सड़क पकड़ ली. पत्नी बोली, "इधर से कहाँ? अपना घर तो सीधे ही था!"
मैंने कहा,"इधर से भीड़ कम होगी. आराम से निकल जायेंगे."
जैसे ही आगे बढ़ा, देखा कि एक जगह भीड़ जमा थी. मैंने गाड़ी धीमी की. एक तो शाम के आठ बजने को थे, ऊपर से स्ट्रीट-लाइट की धीमी रौशनी... ठीक-ठाक कुछ दीखा नही. मैंने उत्सुकतावश एक सज्जन से पूछा, "क्या हुआ भाई साहब?"
"अरे होना क्या है भईया, ये तो रोज़ का ड्रामा है. जब से नीचे भट्टी बनी है, कोई ना कोई इस नाले के पास मिल ही जाता है. चलो भाई, चलो. इन पियक्कड़ों से भगवान बचाए."
भीड़ छटने लगी थी. मैंने देखा कि एक स्कूटर खड़ी है और बगल में एक आदमी बेसुध पड़ा है. उसके नीले शर्ट के ऊपर के बटन खुले हुए थे और हाथों में मोबाइल था. उसके चेहरे पर पसीना था और वह बीच-बीच में गहरी सांस लेता जाता था.
मेरे इस संछिप्त विराम से श्रीमतीजी अब चिढ गयी, "सब चले गए. चलना नही है क्या?"
"हाँ-हाँ" मैंने भी गाड़ी आगे बढ़ा दी.
मैंने कल की यादों को झटका और आगे पढने लगा: "दैनिक दुनिया के वरिष्ठ पत्रकार श्री शशांक शेखर का कल शाम दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. वे कल शाम शास्त्रीनगर से लौट रहे थे कि नाला-रोड पर उनको दिल का दौरा पड़ा. उन्होंने अपनी स्कूटर खड़ी की और परिवार को फ़ोन करके खबर की. समय पर अस्पताल नही पहुँच पाने के कारण उनकी मौत हो गयी. वे अपने पीछे......." आगे की लाइनों को मैं पढ़ नही पाया. मन अपराध-बोध से भर गया. सामने के फ्लैट की बालकोनी में रवि अभी भी पढ़ रहा था, "बाबा भारती ने खड्ग सिंह से कहा कि तुम मेरा घोड़ा ले जाओ लेकिन ये बात किसी से नही कहना वरना लोग गरीब और बीमार की मदद करना बंद कर देंगे".
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