यूँ तो मैं बहुत व्यस्त हो गया था लेकिन थोड़ी सी फुर्सत मिली कि मटकू भईया की याद आई. फिर क्या था, सुबह-सवेरे उनके घर पहुँच गया.
"भईया प्रणाम"
"अरे कईसे हो? बहुत दिनों बाद हमारी याद आई?"
"क्या भईया, आप भी तो हमें भूल गए?" मैंने शिकायत की.
"अभी परसों ही तो तुम्हारे घर गया था. बच्चों ने बताया कि तुम आज-कल ज्यादा ही व्यस्त रहने लगे हो."
मैं थोडा लज्जित हुआ पर सँभलते हुए बोला, "अच्छा भईया, जरा ये बताइए कि जिसका लक्ष्य हमें गुदगुदाना हो, वह सर-फुटव्वल का कारण बन जाये तो आप क्या कहेंगे?"
"क्या आप किसी बात का सीधा जवाब नही दे सकते?" मैंने सीधा-सीधा वार किया.
"तो सुनो." भईया बोले.
"किसी गाँव में एक आदमी रहता था. एक बार ऐसा हुआ कि बारिश नही हुई और खेती का काम रुक गया. वह व्यक्ति ठहरा भूमिहीन मजदूर, सो रोज़गार की तलाश में निकल पड़ा. नजदीकी स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते, अनेक लोगों से अपनी व्यथा-कथा कहते वह एक बात समझ गया था कि अगर दिल्ली जाया जाय तो शायद उसकी भी किस्मत चमक जाये. सो उसने सीधा दिल्ली का रास्ता पकड़ लिया. वहां पहुँच कर जी-जान लगा कर मेहनत मजदूरी करने लगा. श्रम-शक्ति के आगे भाग्य देवता भी कब तक रूठे रहते? सो धीरे-धीरे उसके पास भी पैसा आने लगा. पैसा आने लगा तो पत्नी भी शहर के रंग-ढंग में ढलने लगी. गाँव का "मोटा" रहन-सहन छोड़ कर शहर की "महीनी" में रमते-रमते उसकी रोटियां भी अब फुल्के बन गए थे.
फिर एक दिन गाँव का उसका मित्र उससे मिलने दिल्ली आया. उसने दोस्त का खूब सत्कार किया. पत्नी ने भी अनेक व्यंजन बना कर थाल परोस दिया. खाते समय उसने एक पूरा फुल्का उठाया और एक कौर में खा गया. अब तो पत्नी को लगा कि पति अगर ऐसे ही भुख्खर की तरह खाता रहा तो उसकी सारी इज्ज़त मिटटी में मिल जाएगी. सो उसने दरवाज़े के पीछे से दो उँगलियाँ दिखाई और इशारा किया कि एक रोटी को कम-से-कम दो कौर में खाओ. उसने कुछ और ही समझा और दो रोटियों (फुल्कों) को एक कौर में खाने लगा!"
"इसका क्या अर्थ हुआ?" मैंने पूछा.
भईया बोले,
"इसका अर्थ ये है कि -
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
मैं हर बार की तरह सिर्फ सर खुजाता रहा.
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