Friday, January 1, 2010

नव-वर्ष सुखमय हो

सपनो की उड़ान
तीखी धूप के साथ
गर्म हवा के थपेड़े
पथरीली ज़मीन
उठती - गिरती सांसें
साँसों के साथ गिरते-उठते
सपनो के महल
मुट्ठी में बंद रेत-सी
निकल जाने को आतुर
जीवन, और सपने भी
फिर भी हार न मानना
फितरत है इंसान की
हैरान हुए थे धर्मराज भी जिस पर
जीते हैं यूँ कि
कभी मौत आएगी ही नही!
"मैं हूँ श्रेष्ट"
पहचान की जिद्द
हासिल किये अनगिनत मुकाम
आगे भी रहे ये जिद्द
घूमता रहे समय का पहिया


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