Saturday, May 29, 2010

अथ श्रीखैनी कथा

सुबह सवेरे पान की दूकान पर मटकू भईया दिख गए। उनसे मिले लम्बा समय हो गया था। अतः सोचा कि 'मौका भी है, दस्तूर भी' ऐसे मौके को हाथ से क्यों जाने दूं?
"भईया प्रणाम"
"आनंदित रहो"
"ये क्या भईया? सारी दुनिया तम्बाकू के दुष्प्रभावों की बात कर रही है, तम्बाकू को 'बाई-बाई' करने को कह रही है और एक आप हैं कि..... सुबह सवेरे पान की गुमटी पर नज़र आ रहे हैं?"
एक क्षण को लगा कि भईया की भृकुटी तनी, पर दूसरे ही पल वो मुस्कुराते नज़र आये।
"...तो आज भाषण पिलाने के मूड में हो?"
मैं हँसने लगा। भईया भी हँसने लगे।
"एक बात जानते हो? भारत के कितने किसानों के परिवार इस नगदी फसल के भरोसे चलते हैं? कितने पेट में ये अनाज बन कर जाता है? कितने बच्चों के हाथों में पकड़ी किताब के रूप में ढल जाता है? कितनी मरीजों के दवा का बिल चुकाता है?"
"नही"
"तम्बाकू बुरी चीज़ है, मैं भी मानता हूँ, पर पहले इस रोज़गार पर आश्रित लोगों को वैकल्पिक रोज़गार दो, वो खुद ही ये काम बंद कर देंगे। वैसे एक मजेदार बात बताऊँ?"
"हाँ भईया, ये भी कोई पूछने वाली बात है?"
"खैनी (तम्बाकू) भिखारी को भी ऊपर होने का एहसास कराती है और हाँ, देश की एकता और अखंडता कायम रखने में इसका बड़ा योगदान है।"
इस अजीबो-गरीब बात से चौंकना लाजिमी था, सो मैंने भी रस्म निभा दी।
"वो कैसे?"
"देखो, जब तुम किसी को कुछ देते हो तो दाता का हाथ ऊपर होता है और लेने वाले का हाथ नीचे होता है, है कि नही?"
"बिलकुल ठीक"
"लेकिन क्या तुमने कभी देखा है कि जब कोई किसी को खैनी देता है तो लेनेवाला देनेवाले की खुली हथेली पर रखी खैनी को अपनी चुटकी में उठता है? तो लेनेवाले का हाथ ऊपर हुआ कि नही?"
"और भईया, देश की एकता ...."
"हाँ सुनो।" मेरी बात बीच में ही काट कर भईया बोले।
"जब एक खैनी बनानेवाला अपनी हथेली पर तम्बाकू रगड़ता है, बाकी के खानेवाले बिना जाति-धर्म-राज्य-बोली या गोरा - काला देखे उसमे अपनी हिस्सेदारी पक्की करते हैं। बोलो सही या गलत?"
इस अद्भुत ज्ञान ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। इस "खैनी-पुराण" के बाद मैंने दोनों हाथ जोड़े और दूकान में लटके रेडी-मेड "राजा छाप खैनी" को पूरे भक्ति-भाव से प्रणाम किया।

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