Wednesday, October 22, 2008

गांधीजी की याद में....

बड़े दिनों बाद मटकू भइया फिर मिल गए। दुआ-सलाम से फारिग होते ही मैंने तीर चलाया:
"कहाँ थे भइया? आपके बिना गांधी-जयंती यूँ ही बीत गई। आज कल तो गांधीजी को कोई याद नही करता। एक आप ही हैं जो ऐसी बातें समझ सकते हैं... वरना..."
मेरी बात बीच में ही काट कर भइया बोले "गांधीजी को लोग आज भी उतना ही मानते हैं। मेरी कहानी सुनो... ड्राइविंग लाइसेंस में पता बदलवाना था... डीटीओ ऑफिस के चक्कर लगा-लगा कर थक गया। वहां का बाबु बोला कि गवाह लेकर आओ। हम उसको बोले कि अभी तो हम नया-नया वहां गए हैं, गवाह कहाँ से लायें? तो जानते हो कि क्या बोला?... बोला कि अगर गांधीजी गवाही दें तो....."
"गांधीजी की गवाही?"
"अरे हम भी अइसने बुरबक वाला सवाल कर दिए... उ ऊपर नीचे हमको देखा और बोला कि १००० रु निकालो, तब काम होगा!"
"अच्छा-अच्छा" मैं अपनी मूर्खता पर हँसने लगा। मुझे ये पहले ही समझ जाना चाहिए था।
"वैसे तुमको एक बात बताएं।" भइया शुरू हो गए। "अगर गांधीजी के अहिंसा का पालन होता तो आज दुनिया कुछ और होती। जानते हो कि अमरीका का रक्षा बजट बहुत से देशों के जीडीपी से ज़्यादा है। हम बम-बारूद पर जितना खर्च करते हैं, उतने में हम पृथ्वी से बीमारियों का नामोनिशान मिटा सकते थे, हर मुहं को रोटी दे सकते थे, हर हाथ को काम दे सकते थे।"
"एक और बात कहें... गांधीजी जिस ग्राम-स्वराज की कल्पना किए थे, उस पर चल कर न सिर्फ़ हम सबको रोज़गार दे सकते हैं बल्कि आर्थिक मंदी की आंधी से भी बच सकते हैं। अब भासन बहुत हो गया। गांधीजी से गवाही दिलवाने के बाद मेरा मूड थोड़ा ख़राब है। बाद में मिलते हैं।"

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