रौशनी की तलाश में
भटकता मन अंतस
गिरते-उठते ज्वार सा
आवेग करते अतिक्रमण
अपनी ही परछाई से
डर सा लगने लगे
डरो मत, उठो
आशा के दीप
छोटे ही सही
लौ थरथराती ही सही
अकेले लडेंगे अंधेरों से
डरेगा, अंधेरा भी
दीप की नन्ही लौ से
भाग्य को कोसने की बजाये
कुछ कर दिखाएँ
एक छोटा सा दीप जलायें।
इस कविता ने स्वतः-स्फूर्त आज जन्म लिया।
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