शाम को बाज़ार निकला तो रास्ते में मटकू भइया मिल गए। नाम से इनको कोई भइया टाइप चीज़ समझने की गफलत मत पालियेगा। जब पैदा हुए तो नामकरण किया गया - पद्मलोचन। नाम के अनुरूप बड़े-बड़े नयन। प्यार से किसी ने कहा, "बचवा की आंखें बड़ी मटकती हैं"। बस, फिर क्या था, पद्मलोचन हो गए मटकू बबुआ। जब बड़े हुए तो हो गए मटकू भइया।
"भइया प्रणाम, कैसे हैं?"
"क्या रहेंगे बबुआ, ई कमर तोड़ महंगाई में नौकरी वाला भी ससुरा बी पी एल हो गया है। सोचो कि गरीबों का क्या होगा?"
"बी पी एल क्या?" मैं ज़रा अनजान बन गया। भइया को मेरी नादानी पर गुस्सा करने का मौका मिला, "ऐतनो नही बुझाता है क्या रे तुमको? बी पी एल माने गरीबी रेखा के नीचे वाला लोग, हिन्दी में कहेंगे लाल कार्डधारी। अब त समझिए गया होगा।"
" जी - जी"
"कहाँ जा रहा है?"
" जी, ज़रा सोचा कि कुछ सब्जियां ले लूँ। "
" थैला भर के पैसा लाया है न? पहले पॉकेट में पैसा लाते थे और थैला में सब्जी ले जाते थे। अब त ज़माना ही उल्टा हो गया है!"
"आप कहते हैं की चावल-दाल-सब्जी का भाव बढ़ गया है। फिर किसान क्यों खुदकुशी कर रहे हैं ?" मैंने मटकू भइया को छेड़ा।
"तुम लोग को बुझायेगा... अरे तुमको का लगता है... सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया त किसानों के जिंदगी का ग्राफ ऊपर चला गया? फसल ज्यादा हो या कम, किसान दोनों तरफ़ से मरता है। कम हुआ तो क़र्ज़ चुकाने लायक भी पैसा नही आता है... ज्यादा हुआ तो फसल का दाम कम मिलता है। अब त किसानों सब चालाक हो गया है। अनाज-सब्जी छोड़ के सूरजमुखी, एलो-वेरा और गेंदा लगाने लगा है। आख़िर पैसा किसको अच्छा नही लगता है?"
"अच्छा भइया, जय जवान-जय किसान... ... ..."
"अरे तुम क्या बोलेगा," मेरी मुहं की बात मुहं में ही रह गयी। "जवान भी अब नौकरी से तौबा कर रहा है। पैसा तो पहले भी ज्यादा नही था लेकिन इज्ज़त खूब था। अब त उसी का इज्ज़त है जिसके पास पैसा है। तभी तो तेज़ विद्यार्थी फौज के बदले ऑफिस का काम पसंद करता है। आराम का आराम... और पैसा भी दुनिया भर का।"
"आपकी बात में तो दम है" मैंने कहा।
".... तुम्हारे चक्कर में मेरा भी काम गड़बड़ हो जाएगा। तुम जाओ सब्जी-मंडी... मैं चला अपने रस्ते..."
No comments:
Post a Comment