दरवाजे की घंटी बजी तो रजनी
बड़े ही बेमन से उठी. घंटी दुबारा बजी तो रजनी बड़बड़ाई – ऐसी भी क्या जल्दी है
इसे, हुंह. लोग कुछ सेकंड इंतज़ार भी नहीं कर सकते.
दरवाजा खोला तो सामने
डाकिया खड़ा था – आपकी रजिस्ट्री है मैडम. उसने लिफ़ाफा और कलम आगे बढ़ा दिया. सरकारी
लिफाफे की रंगत और खुशबु ही अलग होती है. रजनी समझ गई कि इसमें उसकी तकदीर का
फैसला बंद है.
अभी पिछले शुक्रवार ही तो
उसका और अनिर्बन का तलाक हुआ है. शनिवार और रविवार की छुट्टियाँ अनिर्बन की
गलतियों को याद करके कोसने में गुज़र गईं. सोमवार को ऑफिस में इस तलाक के ही चर्चे
थे. होते भी क्यूँ नहीं, आखिर अनिर्बन भी तो उसी ऑफिस का एक हिस्सा है. कुछ लोगों
ने रजनी को आज की आज़ाद नारी बताया तो कुछ ने उसके अकेले हो जाने का दुःख जताया.
पीठ पीछे लगभग सभी ने कहा कि मारवाड़ी लड़की और बंगाली लड़के की शादी वैसे भी नहीं
टिकने वाली थी. किसी ने कहा कि अच्छा हुआ इनके कोई बच्चा नहीं है, वरना उसका क्या
होता? किसी ने व्यंग मारा – चार सालों के प्यार के बाद की शादी साल भर भी नहीं टिक
पायी!
जितने मुहँ, उतनी बातें!
घूमते-घूमते कुछ बातें रजनी के कानों तक भी आ पहुँची. जिन लोगों पर भरोसा करके
उसने अपने जीवन के राज़ साझा किए थे, वे भरोसे के कच्चे और ज़ुबान के चटोर निकले. अब
पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत? इस ज़हरीले वातावरण में अब रजनी का दम घुटने
लगा था. उसने बॉस को मैसेज भेजा – “बॉस, मेरी तबियत ठीक नहीं है. मैं घर जा रही
हूँ. शायद कल भी न आ पाऊँ.”
“ओके”, बॉस का जवाब तुरंत
ही आ गया.
आज बुधवार है. अदालत से
तलाकनामा मंज़ूर हो कर आ गया है. रजनी को तो वैसे खुश होना चाहिए था पर जाने क्यों,
बार-बार उसकी आँखें गंगा-जमुना हुआ चाहती हैं.
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