इस वर्ष ठंड का ये दूसरा दौर शुरू हो चुका है। कुहासे के आगे सूर्य-देव भी लाचार नज़र आते हैं। एक गुनी-जन ने बताया कि ये ठण्ड ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है! उनकी बातें सुन कर मुझे भईया की याद आई। इनकी बात की तरह भईया की बातों को समझना भी मेरे लिए कठिन होता है। भईया की याद आई तो ये भी याद आया कि उनसे मिले तो अरसा हो गया है। सो मैं उनके घर पहुँच गया।
"भईया, भईया।" मैंने जोर से आवाज़ लगायी।
"कौन है?" अन्दर से भैया की आवाज़ आई। साथ ही दरवाज़ा खुला - "अरे तुम! आओ, आओ।"
"भईया प्रणाम। आप तो आज-कल मुझे याद भी नहीं करते। कितने दिन हो गए, आप आये भी नहीं।" मैंने शिकायत की।
"ठण्ड ज्यादा थी न, इसलिए अति-आवश्यकता होने पर ही निकलता था। और सुनाओ"
"देखो भाई, बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं - जड़, जोरू और ज़मीन; जोर-वालों की होती है।" भैया बोले।
"इसका क्या मतलब?" मैं अचंभित था!
"अच्छा बताओ- अगर मैं तुम्हें अभी चाय पीने को कहूं तो…"
मैं अन्दर चला आया और बैठ गया, "हाँ भैया। आप कुछ कह रहे थे।"
"अच्छा बताओ, राजा कौन?"
मैंने कहा, "जो राज करे सो राजा।"
"गलत", भईया बोले। "संसाधन जिसके कब्ज़े में हो, वही राजा।"
"वो कैसे भईया?" मैंने पूछा।
"पैसा संसाधन है कि नहीं? राजा प्रजा से टैक्स के जरिये क्या वसूलता है?"
"और भईया ज़मीन?"
"महाभारत के 94 अंक बना कर भी बी. आर. चोपड़ा तुम्हारे दिमाग में कुछ नहीं डाल पाए .... " भईया के स्वर में नाराज़गी झलकने लगी थी।
चाय ने मेरी इज्ज़त रख ली। दो-चार चुस्कियों के बाद मैंने भईया को फिर छेड़ा - "भईया, आप स्त्रियों के बारे में कुछ कह रहे थे".
"लगता है कि तुम इतिहास में भी खासे कमज़ोर रहे हो ..." भईया बोले।
"क्या भईया आप भी। मेरी बेईज्ज़ती करने में आपको काफी मज़ा आता है न?" मैंने पूछा।
"नहीं रे। जब मानव समाज व्यावसायिक गतिविधियों की तरफ बढ़ा, नारी को श्रम-शक्ति उत्पादन स्त्रोत के रूप में देखा जाने लगा।"
भईया ने गहरी सांस ली और खिड़की से बाहर खेलती बच्चियों को देखने लगे। अपने भविष्य से बेपरवाह, हाथों-में-हाथ डाले बच्चियाँ गोल-गोल घूम रही थी - "घो-घो रानी .... कितना पानी ..."
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