सुबह का अखबार हाथ में आते ही सन्न रह गया। खून-ही-खून, चारों ओर। ये हो क्या रहा है? अपने ही देश में दुम दबा कर भाग रहे हैं हम, और कुछ कुत्ते शेर की मानिंद शिकार करते घूम रहे हैं।
मैंने झट मटकू भइया को फ़ोन लगाया।
"भइया प्रणाम। ये सब क्या हो रहा है?"
"क्या कहें, ई ता एक दिन होना ही था...."
"काहे भइया?"
"कलयुग में ये क्या हो रहा, तमस प्रकाश पर भारी पर रहा
दैदीप्यमान आलो की कोख से, कैसा अन्धकार पैदा हो रहा।
झुलसाती-लपलपाती ज्वाला, प्यासी है खून की
तांडव है मौत का, सरफिरों के दर्प की।
टी वी कैमरों पर नज़र आने की मारामारी चल रही है,
ब्रेकिंग न्यूज़ से TRP ब्रेक करने की तैयारी चल रही है।
नेता बोले, उनके इरादे नेक नही थे,
होते भी कैसे, हम एक नही थे।
मराठियों का महाराष्ट्र, बिहार में बिहारी बसता है,
हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तानी नही, यही दर्द डंसता है।
हिंद के प्रकाश "दिनकर", लौट कर फिर आ जाओ,
कृष्ण की बन कर तुम वाणी, गीता पुनःश्च दोहराओ।
"क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।" "
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