वक्त के साथ गौरैया के बच्चों ने उड़ना सीख लिया। इंसान ने भी ऊँगली पकड़ कर अपने बच्चे को चलना सिखा दिया। और वक्त गुजरा ... गौरैया ने एक दिन अपने बच्चे को घोंसले से बाहर कर दिया। बच्चा कुछ दिनों तक तो घूम - घाम कर वापस आ जाता था। फिर एक दिन वो जो गया तो वापस नही लौटा।
इंसान बड़े जतन से अपने बच्चे को पालता रहा। उसके मन में अपने बच्चे की वो ही "ऊँगली थाम कर चलने वाले" की छवि बनी रही। लेकिन बच्चा तो अब दौड़ने लगा था। उसे पिता की ऊँगली अब अपने रफ़्तार में बाधक लगती। वो तो गौरैया के बच्चे की मानिंद उड़ना चाहता था।
बूढे पिता को पुत्र की तेज रफ़्तार से गुरेज होने लगा था तो बेटे को पिता की बातें "टोकना" लगने लगी थी। पर आख़िर सामंजस्य का ही नाम जीवन है। धीरे-धीरे दोनों को ही एक दूसरे की आदत हो गयी। पिता को शिकायत रहती की बेटा हमेशा दरवाजे की कुण्डी नही लगता, पुत्र का तर्क था "आपने कौन सा खजाना जमा किया है जो चोरी हो जाएगा?"।
इन सारी घटनाओं के दरम्यान जीवन अपनी रफ़्तार से बढ़ता रहा। गौरैया अब भी हर साल आती। पता नही यह उसकी कौन सी पीढ़ी थी। इंसान भी अब दादा बन चुका था। पतझर में सूखे पेड़ पर नई कोंपल की हरियाली से जो ताज़गी आती है, वो ही अब उसके चेहरे पर दीखती थी। काल-चक्र एक चक्कर पूरा कर चुका था। पुत्र अब पिता था ... अपने पिता की ही तरह। उसका पुत्र बिल्कुल उसकी तरह था। एक समय उसे इस बात का गर्व हुआ करता था। धीरे - धीरे उसकी रफ़्तार से उसे भी डर लगने लगा था।
आज पुत्र फिर देर से आया और चुपके से अपने कमरे में बंद हो गया। दरवाज़े की आवाज़ से उसकी नींद खुल चुकी थी। धीरे से उठ कर वो दरवाज़े के पास गया.... ये क्या। आज फिर दरवाजा खुला हुआ है। वो बुदबुदाने लगा। ये नई पीढ़ी .... जाने कब अपनी जिम्मेदारी समझेगी... उसने कुण्डी लगा दी। जब वो घूमा तो सामने अपने पिता की तस्वीर दिखी। उसकी आंखों के आगे वो दिन घूम गया ... वो देर से आया था ... और चुपके से बिस्तर में घुस गया था। उसके पिता ने इसी तरह बुदबुदाते हुआ कहा था "नालायक" और वो बुदबुदाया था "सठिया गए हैं"। उसकी आंखों में आंसू आ गए। बेटे के कमरे के सामने से गुजरते हुए उसने सुना "सठिया गए हैं" .... और वो रुक गया। आंसू पोंछा ..... और मुस्कुराने लगे।