कविताएँ अब पढ़ी नही जाती
कोई नही पढ़ता उन्हे
कविता पढ़ने को चाहिए
रगों में लहू, लहू मे उबाल।
आँखो मे करूणा, हृदय मे प्यार
मन मे शांति, विवेक मे धार।
और चाहिए, सीधी एक रीढ़।
इसलिए
कविताएँ अब पढ़ी नही जाती
कोई नही पढ़ता उन्हे।
कविताएँ अब पढ़ी नही जाती
कोई नही पढ़ता उन्हे
कविता पढ़ने को चाहिए
रगों में लहू, लहू मे उबाल।
आँखो मे करूणा, हृदय मे प्यार
मन मे शांति, विवेक मे धार।
और चाहिए, सीधी एक रीढ़।
इसलिए
कविताएँ अब पढ़ी नही जाती
कोई नही पढ़ता उन्हे।
तुझको याद किया, मुस्कुराता रहा
बेवजह, बेसबब, गुनगुनाता रहा।
तेरे गेसू की खुशबू, हवाओ मे थी
अपने ख्वाबों मे मै, गुल खिलाता रहा।
बादलों मे जो देखा, तो तुम ही मिली
मै ख्यालों मे तुमको, सजाता रहा।
जी करता है छू लूँ, मै नजरो से ही
तुमको देखा तो नजरे चुराता रहा।
सूर्य की चाल पर नजर रखने वालों को दक्षिणपंथी से उत्तरायण सूर्य इस कदर भाता है कि उत्सव का सा माहौल हो जाता है। ठंड से ठिठुर रहे लोगों को सूर्य की आहट मिलती है। गर्माहट की उम्मीद भर से ही, राहत मिलती है।
कोई संक्रांति मनाता है, कोई पोंगल। कोई लोहड़ी मनाता है तो कोई टुसू। अलग जगह, अलग नाम, पर मूल बात वही - सूर्य ने मकर राशि मे प्रवेश कर लिया।
सारा भारतवर्ष एक साथ गा उठता है - दुःख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे।
कोई खिचड़ी बनाता है तो कोई दही-चूड़ा का भोग लगाता है। कोई पतंग उड़ाता है तो कोई बीहू गाता है। तिल और गुड़ तो हर कोई खाता है।
भारत के इस अखिल भारतीय पर्व पर कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -
गुड़ का धेला, दही के मटके
हर थाली मे, कतरनी महके
सजधज कर ही, भोर बिहाने
चली बहुरिया गंगा नहाने
बच्चों के हाथों मे लाई
देकर गई है जमुना ताई
मांझा लगाते, पतंग उड़ाते
तिलकुट, गुड़, बताशे खाते
सूर्य देवता मकर को जाते
आज से अपनी तपिश बढ़ाते
हम सब मिल उत्सव मनाए
उत्तरायण का जश्न मनाए
साल के आखिरी दिन मैं मुस्कराया
मन ही मन सोचा तो याद आया
जीने के लिए एक साल मिला था
क्या मैं इसे ढ़ंग से जी पाया?
खुशियाँ मिली तो गम भी मिले
ठोकर लगी पर उठ कर चले
रूक कर चले, चल कर रूके
मुस्कराए, कि एक और साल आया।