Sunday, January 26, 2020

ये कैसा समय?

खामोश सी नदी
आसमान ओढ़े
हैं तेज हवाएँ
मगर लहरें नहीं

लगता है आज
नदी उदास है
रुक सी गई है
झील की मानिंद

हरी जलकुम्भी ने
छिपाया जल-दर्पण
अपना अक्स जहाँ
देखते थे कभी बादल

बीच बीच में
नुकीले चट्टान
भेद हरी चादर
बाहर को निकले

चट्टानों पर कतारें
सफेद बगुलों की
जिनका मछलियों पर नही
कीड़ों पर ध्यान है

तट पर हाहाकार
मचा, वो देखो!
कहाँ? अरे उधर
बहता जाता क्या?

पल में ही भीड़
निठल्लों की
बूढ़ों, बच्चों की
औरतों की

जितने मुंह उतनी
बात बनी
ना जाने किसकी
जान गई

कोई बोला - लगता
है गरीब मजदूर
दाने दाने को तरस
बिचारा चला गया

कोई बोला - आशिक
है, चेहरा तो देखो
हार प्रेम की बाजी
ये जीवन से हारा

पढ़ा - लिखा लगता
है बेरोजगार ये
सपने टूटे तो शायद
ये टूट गया

कोई बोला - बस!
बातें कर लो बड़ी बड़ी
नदी पार करने में
लगता फिसल गया ये

चर्चा चली खूब
अनुमान लगाए सबने
बहता रहा अभागा
आगे, शनैः शनैः

पुलिस आई,
अफसर आए
जनता आई
नेता आए

फिर से हल्ला
फिर है तमाशा
फिर से बातें
तोला माशा

नदी अभी भी
चुप चुप सी है
एक उदासी
ओढ़े सी है

समय की तरह
चुपचाप बहती नदी
देख रही है कोलाहल
और अनिच्छा भी








Thursday, January 16, 2020

राधे बाबू

आज राधे बाबू का जन्मदिन है। यूँ तो उन्हें भी नही पता कि उनका जन्म किस दिन हुआ। माँ को भी सिर्फ इतना याद है कि भीषण गर्मी में वे पैदा हुए थे। शायद वो दिन वटसावित्री व्रत का दिन था। स्कूल में मास्साब ने जन्मतिथि एक अप्रैल की लिख दी। नौकरी भी उसी आधार पर मिल गई। अब कौन याद रखे फिजूल की बातें?

पर आज कुछ खास है। आज राधे बाबू का उनसठवाँ आधिकारिक जन्मदिन है। बस एक साल और। उसके बाद सेवानिवृत्ति! वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में पदार्पण!

Tuesday, January 14, 2020

बागबाँ

बागबाँ भगवान नही,
एक इंसान ही तो है
वो चाहता है कि हों

उत्तर दिशा में दो सहेलियाँ
लाल-नारंगी बोगिनबेलिया
हरे भरे अशोक के बीच
लाल-लाल गुलमोहर पलाश

पूरब है सूरज का कोना
सूरजमुखी वहाँ है होना
तालाब में पानी कम हो
दलदल में खिले कमल हो

पश्चिम में हो मुख्य द्वार
ट्यूलिप के चार कतार
दक्षिण में चमेली के घेर
और लाल-पीले कनेर

कभी काटता है, कभी छाँटता
कभी पूरी क्यारी उखाड़ता
उसे नीले फूल बिलकुल भी
पसंद नहीं, तो लगाया नहीं

उसे फलदार वृक्ष भी
नापसंद, समय लगता है,
सेवा चाहिए, फल के लिए
फूल तो हर दिन आते हैं

उसे नील-माधव और
नीलकंठ भी नही जँचते
शेष-शैय्या शायी, श्रीपति
ही एक उसके आराथ्य हैं

उसे बच्चों से प्यार है
करता उनसे बातें खूब
बाग के बीचों बीच बने
फव्वारे की सीढियों पर

नित नए ढब, नए करतब
नए फसाने, नई कहानियाँ
बच्चे खुश, वो भी खुश
यही तो वो चाहता है

क्या करे बेचारा आखिर
बागबाँ भगवान नही
एक इंसान ही तो है