सुनहरी रेत पर फ़िसलती
चाँदनी, रंग-बिरंगे झाड़-फानूसों की अठखेलियाँ, नाना प्रकार के व्यंजन और मौज-मस्ती
में लीन ज़िन्दगी से बेपरवाह युवा, ज़ेहन में सिर्फ एक ही छवि बनाते हैं – गोवा! क्षेत्रफल
के हिसाब से देश का ये सबसे छोटा राज्य देसी-विदेशी सैलानियों की सूची में ऊपर
रहता है।
कुछ दिनों पूर्व यूँ ही
बनते-बनते बात बन गई और मैं सपरिवार निकल पड़ा गोवा की सैर को। मेरे जो मित्र वहाँ
से हो आए थे, उनकी सलाह पर अमल करते हुए मैं मुंबई के रास्ते गोवा की ओर निकल पड़ा।
मुंबई से सुबह-सुबह गोवा के लिए एक रेल चलती है – मांडवी एक्सप्रेस। दोस्तों ने
बताया था कि इस गाड़ी की ख़ासियत इसकी पैंट्री है। एक बार रेलगाड़ी मुंबई की सरहदों
से बाहर हुई तो नजारों ने यूँ बाँध लिया कि बस। हरे-भरे पहाड़, बलखाती नदियाँ,
नारियल के कतारबद्ध पेड़, सुंदर गाँव और साथ चलते सड़क पर सरपट दौड़ते वाहन, बाहर
नज़ारे तो मानो थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे और अन्दर पैंट्रीवाले खाने के विविध
व्यंजनों की रफ़्तार थमने नहीं दे रहे थे। इडली, मेदुवडा, वड़ापाव, उपमा-शीरा और भी
न जाने क्या-क्या खा-खा कर हमारी हालत ऐसी थी कि दोपहर के भोजन के लिए पेट में जगह
नहीं बची। अनेक स्टेशनों, पुलों और सुरंगों से होती हुई हमारी रेल तकरीबन तीन घंटे
विलंब से थिविम स्टेशन पर पहुंची।
हमारे मेज़बान (मैं उन्हें
मेज़बान ही कहना पसंद करूंगा) ने हमें पहले ही बता दिया था कि स्टेशन से बाहर
निकलते ही प्री-पेड काउंटर से हमें टैक्सी लेना है। आधे घंटे में हम उनके निवास पर
थे। हमारा कमरा और गरमा-गर्म खाना, दोनों ही तैयार थे। वहीँ हमारी मुलाकात राजू से
हुई। अगले तीन दिनों तक वही हमारा व्यवस्थापक, बावर्ची और टूर-प्लानर था। उसने हमसे
पुछा – आप गोवा क्यूँ आये हैं? सवाल अटपटा था। हम चकराए। फिर उसने बताया कि गोवा
आने वाले लोग अलग-अलग भावनाएँ और योजनाएँ लेकर यहाँ आते हैं। हर किसी को उसके पसंद
के गोवा से मिलवाना ही उसका काम है। “आप खुश तो मैं भी खुश!” उसने हँसते हुए कहा
था।
अगले दिन सुबह-सुबह उसने
चाय के साथ हमें अनिलजी से मिलवाया। वे अपनी गाड़ी लेकर पर्यटकों की सेवा में
उपस्थित रहते हैं। हमने उन्ही से पुछा कि हमें क्या देखना चाहिए और किस प्रकार
उसको व्यवस्थित करना है। उन्होंने कहा कि आज सुबह से शाम तक मैं आप सबको उत्तरी
गोवा घुमा लाता हूँ। जब हमने उनसे पैसों की बात की तो बोले, पहले आप घूम लो, अच्छा
लगे तो पेट्रोल के दाम दे देना।
फिर क्या था। हमने नाश्ता
किया और चल पड़े उनके साथ। हालाँकि हमें थोड़ी देर हो गयी थी पर हम लोग साढ़े-ग्यारह
बजे अगुआडा फोर्ट ( #FortAuguada ) में थे। मांडवी नदी के उत्तरी मुहाने पर बना यह किला शानदार है। दो
तलों वाला यह किला १६१२ में पुर्तगाली पोतों के विश्राम-स्थल और पेयजल आपूर्ति
केंद्र के रूप में बनवाया गया था। उपरी तल में करीब 24 लाख गैलन पानी जमा रखने की
सुविधा है। यहाँ का लाइट-हाउस देखने लायक है। इस स्थल पर खड़े होकर नदी पार पंजिम
की खूबसूरती देखते ही बनती है। किले के निचले तल का उपयोग जहाजों की गोदी के रूप
में होता था।
यहाँ करीब एक घंटे बिताने
के बाद हम निचले तल की ओर निकल पड़े। रास्ते में हमने नेरुल नदी और उसमें चल रही
अनेक नौकाएँ देखीं। यहाँ मैं एक बात बता दूँ कि यहीं से डॉलफिन-दर्शन के लिए
नौकाएँ उपलब्ध होती हैं। नेरुल नदी के किनारे से होते हुए ताज-विवांता के बगल से गुजर
कर हम इस स्थल पर सिर्फ पंद्रह मिनट की ड्राइव में ही पहुँच गए। यहाँ खड़े होकर
सिंक्वारिम बीच पर जल-क्रीड़ा का आनंद लेते सैलानियों को देखने का अपना ही एक अनुभव
था। अनेक दलालों ने हमें भी सस्ते दर पर वाटर-स्कूटर और पारा-ग्लाइडिंग करने के
लिए आमंत्रित किया किन्तु हमें इनमे दिलचस्पी तो थी नहीं, सो उन्हें मना कर दिया। यहाँ
तकरीबन बीस-पच्चीस मिनट बिताने के बाद हम कांडोलिम बीच की ओर बढ़ चले।
अब दिन के
कोई सवा-एक बज रहे थे। कांडोलिम-बीच पर भीड़ भी ज्यादा नहीं थी। यहाँ सफाई अच्छी थी
किन्तु लहरें काफी ऊँची उठ रही थी। यहाँ हमें एक shack नज़र आया जिसका नाम था –
सन्नी-साइड-अप। लाइव संगीत पर झूमते लोग और उन्हें खिलाने में व्यस्त वेटर, अन्दर
का माहौल बिलकुल अलग ही था। अनिलजी ने हमें बताया कि नए साल में यहाँ ज़बरदस्त
पार्टियाँ होती हैं। हाँ, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया। shack का हिंदी
रूपांतरण शायद मड़ैया या झोपड़ी हो, किन्तु गोवा में ये सबसे ज्यादा पाए जाने वाले
और सर्वाधिक दर्शनीय स्थलों में से एक होते हैं। गोवा का पर्यटन व्यवसाय इनके बिना
अधूरा है। ये पर्यटकों को खाने-पीने के साथ आराम और मनोरंजन भी मुहैया कराते हैं। यहाँ
भी बीस-पच्चीस मिनट बिताने के बाद हम लोग कलांगुट बीच की ओर बढ़ चले।
रास्ते में मैंने ध्यान
दिया कि ऐसी कई दुकानें हैं जिनके सूचना-पट्ट पर रूसी भाषा में लिखा हुआ था।
अनिलजी ने हमें बताया कि रूसियों ने गोवा में काफ़ी अचल संपत्ति खरीद रखी है।
एकीकृत रूस और यूरोपीय देशों के नौजवान पर्यटक अक्सर इनके यहाँ देखे जाते हैं। कलांगुट
एक भीड़-भाड़ वाला इलाका है। यहाँ पर्यटकों के मनोरंजन के लिए काफी कुछ मौज़ूद है। बीच
की ओर जाने वाले रास्ते में गोवा-दमन और दिउ के प्रथम मुख्य-मंत्री स्वर्गीय
दयानंद बांदोडकर की प्रतिमा है। इस बीच पर आनेवाले ज्यादातर सैलानी भारतीय थे।
लोगों का तो मानो रेला लगा हुआ था किन्तु फिर भी सभी अपने-आप में जैसे अकेले थे।
एक दूसरे से बेपरवाह, अपनी ही मस्ती में डूबे हुए। यहाँ जल-क्रीड़ा हेतु अनेक साधन
तो हैं ही, भोजन की भी कोई कमी नहीं। अगर आप पैसे खर्च करने को तैयार हों तो टैटू
बनवा लीजिए, या कोई वस्त्र ले लीजिए और कुछ भी नहीं सूझ रहा हो तो शराब तो
टैक्स-फ्री है ही। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि यहाँ की पुलिस को शराब
सूँघने में महारत है और पी कर आप तट पर नहीं जा सकते। यदि आप इसकी ज़बरदस्ती करें
तो हो सकता है कि आप गिरफ्तार कर लिए जाएं। आखिर ये आपके खुद की सुरक्षा के लिए
ज़रूरी जो है।
बहरहाल, अब पेट में चूहे
कूदने लगे थे तो हमने तय किया कि घर वापस चलते हैं और राजू के हाथ का गर्मा-गर्म
खाना खाते हैं। तीन बजते-बजते हम सब खाने की मेज पर व्यस्त हो चुके थे। सिर्फ एक
घंटे में हम तरोताज़ा होकर वापस निकल चुके थे। सिर्फ बीस मिनट की ड्राइव के बाद हम
सब चापोरा फोर्ट के पास थे। पूरी तरह से खंडहर में तब्दील हो चुका यह किला एक ऊँची
पहाड़ी पर स्थित है। रोड से किले तक का रास्ता बहुत ही उबड़-खाबड़ है और मुरुम सी
मिट्टी होने के कारण पाँव जमाना मुश्किल होता है। सावधानी से चढ़ते हुए जब हम ऊपर
पहुंचे तो हमारी सांसें थमी-की-थमी रह गयी। नज़र जिधर घूमती थी, नज़ारे मन मोह लेते
थे। पूर्व दिशा में चापोरा नदी का मुहाना और चापोरा बीच है जबकि दक्षिण में
वागाटर-बीच है। अरब सागर का मनमोहक नज़ारा मजबूर कर देता है कि हम कहें – “दिल
चाहता है...”। यहाँ हमने चालीस मिनट बिताये। वहां मौज़ूद अधिकांश लोग अब जाने लगे
थे तो हम भी साथ हो लिए।
चापोरा किले ( #FortChapora ) से निकल कर सिर्फ
दस मिनट में हम लोग वागाटर-बीच पर थे। इस बीच से चापोरा फोर्ट को देखने का एहसास ही
अलग था। यहाँ से हम अंजुना बीच गए। जब पर्यटन का मौसम अपने चरम पर होता है, अंजुना
बीच का फ़्ली-मार्केट पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय होता है। वैसे ये बताते चलें
कि आपने अपने शहर के साप्ताहिक हाट के बारे में तो ज़रूर ही सुना होगा। हमारे शहर
में ये मंगलवार को लगता है और इसलिए मंगला-हाट कहलाता है। ये फ़्ली-मार्केट भी कुछ
ऐसी ही चीज़ है। यहाँ से हम बागा-बीच पहुंचे। सूरज लहरों के पीछे छिप जाने को
बेकरार हो रहा था, और हम उन लम्हों को अपनी यादों में समेट लेने के लिए बेताब थे। जब
हम बीच की ओर बढे तो देखा कि चारों ओर काफी चहल-पहल है किन्तु एक स्थान-विशेष पर
लोगों का हुजूम जैसे उमड़ा जाता था। नज़दीक जाकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। वहाँ
हिंदी फिल्मों के अभिनेता चंद्रचूड़ सिंह की शूटिंग चल रही थी। हम भी दर्शकों की
भीड़ में शामिल हो गए। पाँच मिनट में ही शूटिंग ख़त्म और पैक-अप! फिर अभिनेता और
अभिनेत्री के साथ तस्वीर खिंचवाने का दौर शुरू हुआ। हमने भी बहती गंगा में हाथ धो
लिए और फिर अस्ताचलगामी सूर्य को विदाई देने चल दिए।
सूरज धीरे-धीरे लहरों के
पीछे छिप गया और सिर्फ उसके लाल साफ़े के निशान रह गए। निशा ने शनैः- शनैः अपने आँचल
लहराए और सारे जहाँ को अपने आगोश में लेने को मचल उठी थी। दिनभर की भाग-दौड़ से हम
भी थक चुके थे, तो घोंसले की ओर लौटती चिड़ियों के झुण्ड के साथ हम भी अपने आशियाने
की तरफ निकल गए। आज का दिन बहुत थकाने वाला था किन्तु हमने बहुत कुछ देखा और जाना।
अनिलजी ने कहा कि सुबह साढ़े-सात बजे तैयार रहें, कल हम लोग दूधसागर जलप्रपात देखने
चलेंगे। तो कल मिलते हैं।