मातृभारती द्वारा आयोजित निबंध-लेखन प्रतियोगिता के विजेताओं में शुमार होना मेरे लिए आप सभी पाठकों का आशीर्वाद है। अपना स्नेह यूँ ही बनाए रखेंगे, यही आकांक्षा है।
लेख प्रस्तुत है:
कहते हैं कि ईश्वर
ने जब सृष्टि की रचना की तो सबसे अंत में अपनी सबसे खूबसूरत चीज़ बनाई – इंसान!
उसने हमें न सिर्फ सुंदर शरीर दिया बल्कि विचारवान होने हेतु तर्क-शक्ति-संपन्न एक
मष्तिष्क भी दिया. हमारी बुद्धि हमें शुष्क न बना दे इसलिए हमारे अन्दर भावनाओं का
सागर, “हमारा मन” बनाया. आदमी आदमी इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर आदमियत है,
इंसानियत है. इसके बिना मनुष्य और पशु में क्या भेद? प्रेम हमारे मौलिक और शाश्वत
गुणों में से एक है. संत-कवि कबीरदास जी कहते हैं -
जो घट प्रेम न संचरे, सो घट
जान मसान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस
लेत बिनु प्राण ।।
मनुष्य एक सामाजिक
प्राणी है. यह सत्य है कि व्यक्ति से ही परिवार और समाज का निर्माण होता है,
किन्तु यह भी एक अटल सत्य है कि परिवार और समाज ही वो कुम्हार हैं जो व्यक्ति रूपी
घड़े को आकार देने का काम करते हैं. किसी भी व्यक्ति के विकास में पारिवारिक
मूल्यों और सामाजिक परिस्थितियों का जबरदस्त योगदान होता है. हम अपने जीवन-काल में
अनेक रिश्तों का सानिद्ध्य प्राप्त करते हैं. उनमें से कुछ प्राकृतिक यानि ईश्वर-प्रदत्त
होते हैं. एक व्यक्ति के रूप में हम उनका चुनाव नहीं कर सकते हैं. इनमे सर्वोपरि
है माता-पिता का रिश्ता. कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपनी मनमर्जी से
चुनते हैं. इनमे हमारे मित्र और हमारा जीवन-साथी अहम् हैं.
विश्व के लगभग सभी
संस्कृतियों में विवाह का बड़ा महत्व है. यूँ तो कहा जाता है कि विवाह दो दिलों का
मेल है किन्तु सत्य यही है कि विवाह एक सामाजिक संस्था है. ये दो दिलों से ज्यादा
दो परिवारों का मेल है. आप चाहें तो ये भी कह सकते हैं कि विवाह मूलतः
स्त्री-पुरुष के बीच एक मैत्री-संधि है. विवाह की संस्था वह नींव का पत्थर है जिस
पर परिवार और समाज नाम की संस्थाएँ खड़ी हैं. विवाह की संस्था अगर सफलतापूर्वक
संचालित हुई तो परिवार और समाज अपने-आप ही प्रगति करेंगें, ये अवधारणा
विवाह-संबंधों को व्यक्तिगत संबंध नहीं रहने देती. परिवार और समाज का भरपूर, या
यों कहें कि कभी-कभी आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप व्यक्तिगत संबंधों में उदासीनता
लाता है. स्थिति बिगड़े तो बात हाथ से निकल जाती है. इसका एक दूसरा पहलू भी है.
पारिवारिक और सामाजिक बंदिशों के कारण अक्सर युगल छोटी-मोटी बातों को विस्तार नहीं
देते. कई बार रिश्तों को थामे रखने में इसका बड़ा योगदान होता है. अक्सर
स्त्री-मुक्ति के पक्षधर ये तर्क देते हैं कि तमाम वर्जनाओं का खामियाजा अगर किसी
को उठाना पड़ता है तो वे स्त्रियाँ हैं. अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि उनके
तर्कों में काफ़ी वजन है.
अब सवाल ये उठता है
कि क्या विवाह नाम की संस्था वक़्त के साथ अपना औचित्य खोती जा रही है? क्या परिवार
और समाज के नाम पर व्यक्ति को अपनी खुशियाँ कुर्बान कर देनी चाहिए? क्या व्यक्ति
को अपनी इच्छानुसार अपने जीवन जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए? तमाम तरह की नैतिकताओं
का बोझ ढोती विवाह की संस्था आधुनिक युग में अपनी बेड़ियाँ तोड़ने को आतुर दीखती है.
“कन्यादान” को लैंगिक भेद-भाव से जोड़ कर देखा जा रहा है. आधुनिक युवा पश्चिमी
सभ्यता की तर्ज़ पर विवाह-पूर्व समन्वय को तरजीह देता दीख रहा है. प्राचीन भारतीय
संस्कृति के पक्षधर “स्वयंवर” प्रथा की वकालत करते हुए ये बताने की कोशिश करते हैं
कि महिलाओं को अपने “वर” के वरण का अधिकार होना चाहिए. एक अहम् सवाल जो बार-बार
उठाया जाता है, वह यह है कि - प्रेम-विवाह या वैवाहिक प्रेम?
प्रेम एक ऐसा विषय
है जिस पर विश्व की हर भाषा में बहुत कुछ लिखा जा चुका है किन्तु प्रेम खुद ऐसी
भाषा है जो आँखों से कही और मन से पढ़ी जाती है. प्रेम ऐसा शब्द है जिसकी व्याख्या
असंभव है. हाँ, एक बात है जिससे सब इत्तेफ़ाक रखते हैं -
प्रेम-पियाला जो
पिए, सीस दक्षिणा देय ।
लोभी सीस न दे सके,
नाम प्रेम का लेय ।।
और
ये इश्क़ नहीं आसाँ,
बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है
और डूब के जाना है ।
प्रेम में पड़े
व्यक्ति को पागल कहा जाता है. कहते हैं कि प्रेम में इतनी ताक़त है कि काल को मोड़
दे. हम सबने सावित्री की कहानी पढ़ी है. उनके प्रेम में इतनी शक्ति थी कि यमराज को
भी हार मान लेना पड़ा. प्रेम वह अद्भुत एहसास है जो व्यक्ति में जीवन जीने की चाहत
पैदा करता है. किन्तु क्या यह आवश्यक है कि विवाह के लिए प्रेम होना ही चाहिए?
क्या विवाहोपरांत प्रेम असंभव है?
यहाँ पर आवश्यक हो
जाता है कि हम स्त्री और पुरुष के कुछ मूल मानविक गुणों की बात करें. नारी-मन
संबंधों में स्थायित्व खोजता है, स्थिरता चाहता है. इसके उलट पुरुष अधिकतर
लक्ष्य-प्रेरित होते हैं. एक के बाद एक जीवन-लक्ष्यों का पीछा करते-करते वे थोड़े
रूखे हो जाते हैं. प्रकृति ने स्त्रियों को माता बनाने का सौभाग्य दिया. वे जीवन
धारण कर सकती हैं, उसका पालन-पोषण कर सकती हैं. इन सबके साथ प्रकृति ने उन्हें एक
और शक्ति प्रदान की है. स्त्रियों में यह नैसर्गिक क्षमता होती है कि वे अपने भावी
जीवन-साथी का आकलन अपने प्रेमी से ज्यादा अपने बच्चों के सफल और सक्षम पिता के रूप
में करती हैं. अगर नैसर्गिक चयन के सिद्धांत के हिसाब से चलें तो साथी के चयन का
विशेषाधिकार स्त्रियों के पास है.
अब यहाँ दो बातें
आती हैं – चुनाव का अधिकार और चुनाव कर सकने की योग्यता. वर्तमान परिपेक्ष्य में
भारतीय समाज विवाह योग्य लड़के-लड़कियों को सहचर चुनने का अधिकार नहीं देता है.
अधिसंख्य मामलों में परिवार और समाज अपनी मान्यताओं और वर्जनाओं के हिसाब से
वैवाहिक संबंध तय करता है. आज के युवा इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन मानते हैं.
प्रेम विवाह अभी भी भारतीय समाज में एक वर्जित विषय है. हालाँकि हाल के दिनों में
इसमें बढ़ोत्तरी हुई है पर अब भी इसे पूर्ण-स्वीकृति नहीं है. देश के कई हिस्सों
में हालात यहाँ तक ख़राब हैं कि प्रेम-विवाह करने वाले युगलों की हत्या तक कर दी
जाती है.
मान लिया जाए कि
आपको विवाह हेतु साथी का चयन करने का अधिकार मिल जाये तो क्या आप तब तक इंतज़ार
करेंगे जब तक आपको स्वमेव प्यार नहीं हो जाता? या फिर आप प्यार करने का प्रयत्न
करेंगे? जब आपको यकीन हो जाएगा कि प्यार हो गया है, तब आप विवाह करेंगे? यहाँ
ध्यान देने वाली बात ये है कि प्रेम उपजा नहीं, उसे प्रयत्न कर उपजाया गया है. इस
प्रतिपादित प्रेम पर आश्रित विवाह क्या आदर्श-विवाह कहलायेगा?
यहाँ मैं दो और
ताकतों की बात करना चाहूँगा जो विवाह-पूर्व प्रेम को प्रभावित करती हैं. प्रथम है
व्यक्ति पर समकक्षों का मानसिक दबाव. आज-कल प्रेम एक फैशन बन गया है. अपने
समकक्षों में सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ाने, उनके बीच अपनी सामाजिक हैसियत ऊँचा रखने
की चाहत लोगों को प्रतिपादित प्रेम की ओर धकेल रही है. दूसरी है बाज़ार की ताक़त. यह
प्रेम की नित नई परिभाषाओं, प्रेरणाओं और प्रयोजनों को लेकर हमारे सामने उपस्थित
होता रहता है. ये बताता है कि अगर आप अपनी प्रेमिका को फलां बाइक या कार पर “लॉन्ग
ड्राइव” पर नहीं लेकर गए या फिर उसे फलां आइसक्रीम या चॉकलेट नहीं खिलाई या फिर
फलाने ब्रांड की सोने या हीरे के जेवर नहीं दिए तो आपका प्रेम प्रेम है ही नहीं.
ऐसा नहीं है कि बाज़ार सिर्फ प्रेम को अपना लक्ष्य बनाता है. वैवाहिक-प्रेम भी उसकी
पहुँच में है. वह बताता है कि “जो बीबी से करे प्यार, वह फलां ब्रांड से कैसे करे
इनकार?”.
हम सबने उन अंधों की
कहानी सुनी और पढ़ी है जो ये जानना चाहते थे कि हाथी कैसा होता है. जिसने पैर छुए,
उसने बताया कि हाथी खंभे जैसा होता है. जिसने कान छुए, उसने बताया कि हाथी सूप
जैसा होता है और जिसने उसकी पूँछ पकड़ी, उसने बताया कि हाथी रस्सी जैसा होता है.
अपनी-अपनी जगह वे सभी सही थे लेकिन समग्रता में देखें तो सभी गलत थे.
प्रेम के बाद विवाह
या विवाह के बाद प्रेम, ये बहस बेमानी है. सितार के तारों को ज्यादा कस दें तो वो
टूट जाता है और ढीला छोड़ दें तो उससे आवाज़ नहीं आती. अगर मधुर संगीत चाहिए तो
तारों का समुचित कसा होना अति-आवश्यक होता है. विवाह एक प्रतिज्ञा है जो आप साथी
से नहीं बल्कि खुद से करते हैं. आप कहते हैं कि चाहे कुछ हो जाए, मैं इसका साथ
निभाऊंगा. क्या यही प्रेम नहीं? सही समन्वय, सम्यक व्यवहार रहे तो ये मायने नहीं
रखता कि आपने प्रेम करके विवाह किया या विवाहोपरांत प्रेम किया. प्रेम करना इंसान
की पहचान है. जब तक निष्काम, निश्छल प्रेम है, हर संबंध मधुर है और ये धरती ही
आपके लिए स्वर्ग है.
आप सबों का पुनः धन्यवाद।