तब पंख न थे, पर अरमाँ थे ऊँचा उड़ने के
अब पंख फक़त हैं, पंखों में परवाज़ नहीं है
जब सुनता न था कोई, रोम-रोम था चिल्लाता
अब सब सुनते हैं, पर मुझमें आवाज़ नहीं है
जब सुर न सधे थे, स्वर-लहरी थी हवाओं में
अब सुर जो सधे तो, साथ बजे वो साज़ नहीं है
इक दौर था वो कि कानाफूसी भी करते थे जोरों से
अब सब कह दें, पर कहने को कोई राज़ नहीं है
तब लगता था, कि बड़े हुए तो दिन बहुरेंगे
पर अब लगता है, वैसे दिन तो आज नहीं हैं