आज अट्ठाईस दिसंबर है। बच्चों
की परीक्षाएँ ख़त्म हुए पूरे चार दिन बीत चुके हैं। इन चार दिनों में वे जितना
खेलने की सोच सकते थे, उतना खेल चुके थे। आज छुट्टी का पाँचवा दिन है। शैतान-मंडली
सुबह से ही सुस्त है। रौनी और चिंकी अपने दोस्तों के साथ सर्दी की अलसाई धूप में
खुद भी अलसाये-अलसाये से लॉन में पड़े हैं –
“यार, बोर हो गए।” रौनी
बोला।
चिंकी ने भी भाई की
हाँ-में-हाँ मिलाया - “हाँ यार। ये मम्मी-पापा भी ना; कहीं घुमाने कहो तो बहाना
बनायेंगे कि छुट्टी नहीं है।”
बहन का साथ पा कर रौनी का
गुस्सा फूट पड़ा - “देखना, आज सन्डे है लेकिन बहानों का संडे कभी नहीं आता।”
तभी बाहर से आवाज़ आई –
“आदित्य, ओ आदित्या!”
“क्या है मम्मी?”
“जल्दी से घर आ जाओ। पापा आ
गए हैं और हम सब जू घूमने जा रहे हैं।”
“अभी आया! बाय रौनी। बाय
चिंकी। बाय सैडी।”
सैडी यानि सुन्दरमण भी उठ
चुका था, “बाय रौनी। बाय चिंकी। मैं भी अब चलता हूँ।”
“बाय अंकल”
“बाय बेटा।” बाज़ार से लौट
रहे शास्त्री जी ने जवाब दिया। अंदर घुसते ही उनका सामना रौनी-चिंकी से हुआ। उनके
उतरे चेहरे देख कर उन्हें किसी अनहोनी का अंदेशा तो हुआ पर उन्होंने तूफ़ान को
छेड़ना उचित नहीं समझा। अंदर मिसेज शास्त्री ने आँखों-आँखों में बच्चों की नाराज़गी
का कारण बता दिया। फिर क्या था! बस घंटे भर की बात थी और पूरा परिवार सिटी-पार्क में
था।
शहर के बीचों-बीच बना ये पार्क शहर की शान है। शहर की तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी यहाँ आ कर थम सी जाती है। करीने से बनी क्यारियों में भाँति-भाँति के पुष्प हों या उनका रस पीने को तत्पर तितलियाँ, पेड़ों पर भागती गिलहरियाँ हों या पत्तों के बीच लुक-छुपी करते पंछी, जीवन के अनेक रंग यहाँ बिखरे पड़े हैं। मुग़ल-गार्डेन के फूलों को
निहारते-सराहते, फव्वारों के किनारे चलते-चलते परिवार अब चिल्ड्रेन-पार्क तक आ
पहुँचा था।
“बच्चों, तुम दोनों मम्मी
के साथ यहाँ खेलो। तब तक मैं लंच ले आता हूँ।” दोनों बच्चों ने आगे कुछ सुनने की
बजाय झूले की ओर दौड़ लगा दिया। शास्त्रीजी ने पत्नी की ओर देखा और दोनों मुस्कुरा
दिए।
“तुम इनका ख्याल रखना, मैं
अभी आता हूँ।”
कुछ आधे घंटे में ही मिसेज शास्त्री ने शास्त्री जी को आते देखा। उनके हाथों में जो थैला था, उसके वजन के अंदाज़े से लग रहा था कि आज तो जम कर मौज होने वाली है। उन्होंने तुरंत बच्चों को आवाज़ लगाई -
"रॉनी! चिंकी! बेटा पापा आ गए हैं। तुम दोनों भी आ जाओ। जल्दी करो वरना खाना ठंडा हो जाएगा।"
एक खुली सी शांत और साफ़ जगह देख कर शास्त्रीजी ने चादर बिछा दी। बात की बात में प्लेटें सज गईं और लाजवाब व्यंजनों का दौर शुरू हो गया।
"रॉनी! चिंकी! बेटा पापा आ गए हैं। तुम दोनों भी आ जाओ। जल्दी करो वरना खाना ठंडा हो जाएगा।"
एक खुली सी शांत और साफ़ जगह देख कर शास्त्रीजी ने चादर बिछा दी। बात की बात में प्लेटें सज गईं और लाजवाब व्यंजनों का दौर शुरू हो गया।
“मम्मी, जरा चिली-चना तो
बढ़ाना।” रौनी बोला।
“मेरे लिए पनीर-मसाला...”
ये चिंकी थी।
सब अपनी मस्ती में खा रहे
थे कि अचानक रौनी ज़ोर से चिल्लाया – “शू... हट... चल भाग यहाँ से।” यह एक आवारा
कुत्ता था जो शायद भोजन की सुगंध से खिंचा चला आया था। शास्त्रीजी ने ऐसा दिखाया
जैसे कि उनके हाथ में पत्थर हो और उसे कुत्ते की दिशा में फेंकने का नाटक किया। इसका
असर हुआ और कुत्ता उलटे पाँव भाग चला। रौनी अब सहज हो चला था। उसने निश्चिंत होकर
जैसे ही मुहँ में कौर डाला, उसकी निगाहें पेड़ की ओट में खड़े दो मलिन-मुख बालकों से
जा टकराई। उसने सरसरी निगाह से देखा, दोनों ने फटे हुए वस्त्र धारण कर रखे थे जो
शायद किसी वयस्क के थे। दोनों ही खाने को ललचाई निगाहों से एकटक घूर रहे थे। रौनी
फिर असहज हो गया। उसकी असहजता सहज ही परिजनों की निगाहें उस ओर ले गयी जिधर रौनी देख रहा था। चार
जोड़ी आँखों को अपने ऊपर टिका देख पहले तो दोनों सकपकाए, फिर पेड़ की ओट से निकल कर
थोड़ा निकट आ कर खेलने लगे। उनकी निगाहें अब भी भोज्य-सामग्री पर ही टिकी थीं।
बालकों के निकट आ जाने से
पूरा परिवार असहज हो उठा। सबने जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म किया और जूठा समेटने लगे। रौनी
ने देखा कि उन्होंने जो जूठा फेंका था, दोनों बच्चे उसमें से बचा-खुचा निकाल कर खा
रहे हैं। मिसेज शास्त्री ने शायद बेटे की स्थिति भांप ली थी। उन्होंने बैडमिंटन
उठाया और रौनी के साथ खेलने लगी। माहौल फिर से खुशनुमा हो चुका था। शाम ढ़लने लगी
थी और ठंड भी बढ़ रही थी। अब समय आ गया था कि घर को प्रस्थान किया जाए। शास्त्री परिवार सामान समेट कर चलने को हुआ कि दोनों
बच्चे फिर से आ धमके। उनकी उपस्थिति ने मिसेज शास्त्री के अंदर गुस्से की लहर दौड़ा
दी थी। शायद दोनों बच्चों ने इसे समझ लिया था, इसलिए वे उनकी तरफ ही हाथ फैलाये
बढे –
“माई, कुछ दे दो माई।”
“हटो! पीछे हटो” कहते हुए
मिसेज शास्त्री खुद ही पीछे जाने लगीं पर बच्चे भी कहाँ मानने वाले थे। एक ने बाएँ
हाथ से उनका दुपट्टा पकड़ लिया और दाहिने हाथ से बार-बार उनके पैर छू कर प्रणाम
करने लगा। मिसेज शास्त्री इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने
झटका दे कर अपना दुपट्टा छुड़ाया और पति के पीछे जा छुपी। इतनी देर में शास्त्रीजी
ने समझ लिया था कि इन बच्चों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होगा। उन्होंने झट से दस का
एक नोट निकाला और मामले को निपटाया किन्तु मिसेज शास्त्री का मूड ख़राब हो चुका था।
“आवारा! भिखमंगे! सारा मूड
ख़राब कर दिया।” मिसेज शास्त्री का गुस्सा तो जैसे सातवें आसमान पर था।
“देखा आपने! उसने मुझे छू
लिया! मेरे कपड़े गंदे कर दिए। वाहियात गंदे बच्चे।” मिसेज शास्त्री अब अपने पति से
मुखातिब थीं।
“मम्मी-मम्मी, क्या वे अछूत
बच्चे हैं जो उनके छू लेने से आप इतनी नाराज़ हो?” ये चिंकी थी।
“..........................”
नन्हीं बच्ची के मासूम सवाल
का निहितार्थ इतना गहरा था कि मिसेज शास्त्री अवाक् रह गई। पत्नी के गुस्से और
बच्ची की जिज्ञासा में टकराव न हो, इसलिए शास्त्रीजी बोले, “रौनी-चिंकी, देखूं तो
कि दोनों में कौन गाड़ी के पास पहले पहुँचता है!” सब कुछ भूल कर पल में ही दोनों
हवा से बातें करने लगे।
इधर एक पेड़ के नीचे खड़े
दोनों लड़के मिस्टर और मिसेज शास्त्री को जाते देख रहे थे। एक ने दूसरे से कहा –
“भाई ये अच्छे कपड़े वाले
हमें अछूत क्यों समझते हैं?”
“अबे अच्छा ही है कि अछूत
समझते हैं। इसी बहाने हमें पैसे तो मिल जाते हैं”
दोनों ही मस्ती में खिलखिला
दिए।