Thursday, June 19, 2014

SUGGESTION

Every little seed, inside has a tree,

The power of it, we can't simply see.

The thoughts and ideas, dwelling in our mind,

Will blossom generously, only if we find –

An idea to nurture, and give it some time,

Do it, test it, tell it, you'll surely get a dime.

 

Call them intelligent; creative, nasty, foolish,

They're road to dreams, you always cherish,

A bowl fills with water, drop by drop,

Come one, come all, push hard, we move to the top,

Improvement is humane, and as they say,

Just keep on tryin', there's always a better way!

Friday, February 28, 2014

हैलो अंकल

मई की भीषण गर्मी ने मानो कर्फ्यू की घोषणा कर रखी थी।  आदमी तो आदमी, पशु-पक्षी भी दोपहर में बाहर निकलने से कतरा रहे थे। "स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया" की शाखा से बाहर आते हुए मधुकर बाबू एक पल को ठिठके। ज़ेब से रुमाल निकाल कर चेहरे को पोंछा और चारों ओर देखा। प्रत्यक्ष जीवन के सारे निशान उनके पीछे यानि कि बैंक के अंदर थे, बाहर नहीं। वे वापस आये, रुमाल को ठन्डे पानी से भिगोया और चेहरे पर बाँध लिया। ऊपर से हेलमेट लगाया और अपनी स्कूटर के पास आ कर खड़े हो गए। पल भर में ही वे रोड पर थे।
चिल्ड्रेन पार्क के बगल से दाहिना मोड़ लेते ही उन्हें एक ठेले पर "आम-पन्ना" दिखाई दिया। एक तो पेड़ों की छाँव, उस पर सूखते कंठ को तर कर लेने का साधन!  जानलेवा गर्मी में रुक कर दो मिनट सुस्ता लेने का इससे अच्छा बहाना और क्या हो सकता था भला?
"ओ भाई, ज़रा एक गिलास मेरे लिए भी बनाना। "
"अभी बनाता हूँ। "
मधुकर बाबू अब अपना हेलमेट उतार कर आस-पास का जायजा लेने में लग गए थे। तेज़ धूप मानो सड़क के अलकतरे को पिघला देना चाह रही थी। कुछ कुत्ते सड़क के किनारे खड़े ट्रक के नीचे सोये थे। ठेले के पास एक गाय खड़ी थी जिसके सामने "अशोक" की पत्तियां पड़ी थी। शायद ठेलेवाले ने ही उसे तोड़ कर दी होंगी। तभी उनके सामने से मोटर-साइकिल लेकर एक युवक निकला।
मधुकर बाबू सोचने लगे - ज़रूर इसे कोई अति-आवश्यक काम आ पड़ा होगा वर्ना इस गर्मी में कौन घर से निकलता है?
तभी युवक वापस लौटा और जिधर से आया था, उधर चला गया।
"अवश्य ही इसने कुछ छोड़ दिया है और अब उसे लेने जा रहा है", मधुकर बाबू ने अपने आप से कहा।
"कुछ बोले का सर?"
"नहीं-नहीं। मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा।
मैं तो ये सोच रहा था कि आखिर ऐसा क्या काम आ पड़ा कि
इस लड़के को इतनी गर्मी में घर से निकलना पड़ा ?"
"अरे सर, आप भी तो घर से बाहर हैं।" ठेलेवाले ने मधुकर बाबू के हाथ में ग्लास थमाते हुए कहा।
उसकी रहस्यमय मुस्कान ने एक पल के लिए विचलित किया पर हाथों में ठंढक के एहसास ने उन्हें दूसरी ही दुनिया में पहुंचा दिया। 
ग्लास खाली होने तक युवक तीन-चार चक्कर लगा चुका था पर अब मधुकर बाबू की दुनिया में उसका कोई वज़ूद नहीं था।
आम-पन्ना ने जैसे उनके भीतर फिर से जीवन का संचार कर दिया था।
मधुकर बाबू ने फिर से रुमाल बांधा और चल दिए। गर्मी की धाह से आकृतियाँ हिलती-डुलती सी प्रतीत हो रही थी। उन्होंने देखा कि कोई लड़की अपनी कॉपी को सर पर रख कर गर्मी से लड़ने की असफल चेष्टा करते चली जा रही है। तभी बड़ी तेज़ी से वही युवक उनके बगल से निकला और लड़की के पास पहुँच कर गाड़ी रोक दी। मधुकर बाबू ने देखा कि लड़की छिटक कर एक किनारे हो गयी है। उसकी रफ़्तार भी बढ़ गयी है। जिस तरह खरगोश बाज़ के हमले से बचने के लिए भागता है, लड़की भी अब कुछ वैसा ही कर रही थी। मधुकर बाबू को ये अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्कूटर की रफ़्तार बढ़ाई और तुरंत वहाँ तक पहुँच गए।


"ऐ लड़के", उन्होंने कड़क आवाज़ में कहा। लड़की अब रुक गयी और थोडा खिसक कर मधुकर बाबू के स्कूटर की तरफ हो ली। डूबते को तिनके का सहारा जो मिल रहा था! वे फिर से गरजे -

"क्या हो रहा है? लड़की को क्यों तंग कर रहे हो?"

उनकी हरकत ने एक बेकार बैठे ऑटो वाले का ध्यान आकर्षित किया और वो भी अपनी गाड़ी लेकर चला आया।

"क्या हुआ भैया? कोई दिक्कत है क्या?"

"नहीं भाई। मुझे क्या दिक्कत होगी? दिक्कत तो इसे है।" मधुकर बाबू ने लड़के की तरफ इशारा करते हुए कहा।

"क्यों रे! मार खाने का मन है क्या? पता है न, पब्लिक जब मारती है त पुलिसो से भयंकर मारती है।" ऑटो-वाला बोला।

तू-तू मैं-मैं होता देख लोग अब रुकने लगे थे। शायद लड़के को लगा कि स्थिति जल्द ही बेकाबू हो जायेगी। उसने गाडी को गियर में डाला और चलता बना।

मधुकर बाबू ने लड़की को देखा। गर्मी से लाल चेहरा और आँखों में पानी। उन्हें बड़ी दया आयी। ऑटो-वाले से बोले,

"भैया। जरा इसे इसके घर छोड़ दोगे?"

"मेरे पास पैसा नहीं है अंकल।" लड़की बोली।

"तुम राशन-दूकान वाले विनय जी की लड़की हो न?" ऑटो-वाले ने पूछा।

"हाँ"

"आओ बैठो। मैं तुम्हारे पापा की दूकान के पास ही रहता हूँ। तुम्हे वहीँ छोड़ दूंगा। और हाँ! चिंता मत करो। पैसे मैं उनसे ले लूँगा।"

जब लड़की ऑटो में बैठ कर चली गयी तो मधुकर बाबू ने गहरी सांस ली -

"ये आज कल के लड़के! तौबा-तौबा।"



मधुकर बाबू घर पहुंचे तो पत्नी ने शीतल जल हाथों में थमाते हुए पूछा, "बैंक में भीड़ अधिक थी क्या? आपको देर लगी?"

"अरे नहीं-नहीं!" मधुकर बाबू धर्मपत्नी को रास्ते में घटी घटना के बारे में बताने लगे।

"आप भी क्यों दूसरों के फटे में में टाँग अड़ाने चल देते हैं ? कोई गुंडा-बदमाश होता तो ? आप के साथ मार-पीट करता तो ?" धर्मपत्नी जी की चिंता अब मुखर हो गयी थी।

"ऐसे कैसे मार-पीट कर लेता? और एक बात बताओ - अगर उस लड़की की जगह अपनी पाखी होती तो ? क्या तब भी तुम ऐसा ही कहती?"

"फिर भी," वे बोलीं। "आज-कल के लड़के-लड़कियों में पहले वाली बात नहीं है। ये लोग किसी को कुछ नहीं समझते। वादा करो आगे से ऐसे चक्करों में नहीं पड़ोगे।"

"अच्छा बाबा।" मधुकर बाबू ने हथियार डाल देने में ही अपनी भलाई समझी।



वक़्त की परतों ने इस घटना को मधुकर बाबू के स्मृति कुंड की किस गहराई में छुपा दिया, इसका पता उन्हें भी नहीं चला। आज वसंत-पंचमी है, देवी सरस्वती का पूजनोत्सव ! माँ-बेटी ने मिलकर पूजा की तैयारी कर रखी है। ऐसे में मधुकर बाबू ने सोचा कि क्यों न बाज़ार जा कर आधा किलो बुँदिया ले आया जाये। दरअसल उन्हें आज अपने स्कूल के उन दिनों की याद आ रही थी जब वहाँ सरस्वती पूजा होती और बच्चों को मिश्री-कंद, गाजर, बेर, अंकुरित मूंग और बुँदिया का प्रसाद मिलता था।

"पाखी। पाखी बेटा। जरा दरवाज़ा लगा लेना। मैं थोड़ी देर में बाज़ार से आता हूँ। "

"जी पापा"

अपनी स्कूटर लिए मधुकर बाबू अभी चिल्ड्रेन पार्क तक पहुंचे ही थे कि एक मोटरसाइकिल पर एक लड़का तेजी से आगे निकला। उसके पीछे बैठी लड़की ने से उसे कस कर पकड़ रखा था। अभी वे कुछ समझ पाते कि लड़के ने अपनी गाडी घुमाई और मधुकर बाबू के बगल में आकर धीमा हो गया। मधुकर बाबू ने उन्हें देखा तो गर्मी की दोपहर घटना ताज़ा हो आयी। वही लड़का और लड़की पर शायद… । दोनों उनके बगल से गुजरे और लड़के ने व्यंग कहा-

"हेल्लो अंकल!" और दोनों हसने लगे।