आज थोड़ी फुर्सत मिली तो मटकू भईया की याद आयी। उनसे मिले तो ज़माना हो गया! मैं भी थोडा मसरूफ था, और भईया का तो खैर, कहना ही क्या? फिर तो मैंने सारा आलस छोड़ा और चल दिया भईया के घर की ओर...
मैं तेज़ क़दमों से बढ़ा चला जा रहा था कि सामने से भईया आते दीख गए!
"भईया प्रणाम"
"आनंद से रहो .....
माता रानी की कृपा तुम सबों पर बनी रहे...
इतनी तेजी से कहाँ चले?"
"आप ही से मिलने जा रहा था। बहुत दिन हो गए थे ना... आपका आशीर्वाद लिया नही था।"
भईया सिर्फ मुस्कुराये।
"कहाँ थे इतने दिनों? आप भी कभी इधर आये नही?" मैंने उलाहना दिया।
"अरे भाई, मैं भी दुर्गा-पूजा का आनंद ले रहा था! नए कपडे खरीदे, जूता खरीदा, नयी घडी ली.... और हाँ, नया मोबाइल भी लिया!" भईया बिलकुल बच्चों की तरह चहक रहे थे! उनका ये रूप मेरे लिए भी नया था!
"पत्नी-बच्चों के संग इस बार घूमा भी खूब!"
"क्या-क्या देखे?"
"अरे भाई, पूजा की रौनक देखी, श्रधालुओं का रेला देखा, चारों ओर भीड़ देखी, और साथ मेला देखा।"
"आप तो कविता करने लगे।" मैं मुस्कुराया।
"नही मेरे भाई, मैंने और भी बहुत कुछ देखा।
ज़बरदस्ती लिया जाने वाला चंदा देखा,
पंडाल के नाम पर गोरखधंधा देखा,
लोगों की कतार की परवाह किये बिना
पिछले दरवाज़े से, माँ का भोग बिकते देखा
पुलिस रही मौन, पूजा-समिती वालों को
ज़बरदस्ती गाडी रोक कर, 'पार्किंग' वसूलते देखा
गाड़ी पर सवार हो, भोंपू बजाते बाईकर्स को
माँ की भक्ति का माखौल उड़ाते देखा।"
भईया अचानक से गंभीर हो गए थे।
"मैंने एक और भी चीज़ देखी।"
"क्या?"
"एक बच्ची... चार-पांच साल की। रस्सी पर करतब दिखा रही थी। उसके माता-पिता ढोलक बजा रहे थे। दिल में आया कि उन्हें डांटू... खेलने की उम्र में काम करवा रहे हो?"
"फिर आपने क्या किया?"
"ई बताओ की हम तुमको समझदार लगते हैं कि बुरबक?" भईया ने पलटवार किया था। मैं भौंचक रह गया।
"क्या भईया आप भी? अरे आप से ज्यादा समझदार कोई है?"
"इसी लिए हम उसकी कटोरी में दस रुपये डाल आये......."
भईया की नज़रें झुक गयी थी। कुछ छ्णों तक यूँ ही रहने के बाद वो तेज़ी से वहां से चले गए और अपने दिल का तूफ़ान मेरे दिल में उतार गए।