"भैया प्रणाम. क्या बात है? गाँधी-जयंती के दिन उदास?"
"आओ-आओ. उदास नही हूँ, बस ज़रा सोच में डूबा हूँ."
मटकू भैया के तेवर देख मैं हैरान था. जलेबी जैसे सीधे-सादे हमारे भैया को क्या हो गया? शक हुआ तो रहा नही गया,
"भैया, आपकी तबियत तो ठीक है?"
"आज एक अजीब वाकया हुआ. हमलोग बाज़ार से आ रहे थे. इतने में क्या देखता हूँ कि एक आदमी गांधीजी की तरह धोती बांधे, चश्मा पहने हाथों में तिरंगा लिए नंगे पांव शान से चला जा रहा है. हमरा बिटवा बोला - पापा देखो. वो आदमी गांधीजी के 'fancy dress' में जा रहा है."
"फिर क्या हुआ?" अब मेरे मन में भी उत्सुकता जागने लगी.
" फिर क्या... पता नही क्यों, हमरे मुहं से निकल गया - गांधीजी के ड्रेस में fancy क्या है?"
"फिर क्या हुआ भैया?"
"हमरा बिटवा फिर बोला - पापा, देखिये! सब लोग उसको देख कर हस रहे हैं. हमरे मुहं से अनायास फिर निकल गया - बेटा, जिस देश में सच से सामना होते ही घर टूट जाएँ, लोग आत्महत्याएं कर लें, वहां इस तरह सत्य पर लोग सिर्फ हंस ही सकते हैं. असल में वे उसपर नही, अपने आप पर हंस रहे हैं .... 'सच से भागने' की अपनी कमजोरी छुपाने के लिए."
कड़वे सच का सामना करने की हिम्मत मुझमे भी नही थी.