बसंत बहार, लाई रस की फुहार
उड़े गुलाल, रंगों की चली धार।
स्वाद भरे, पकवानो की भरमार
मिलजुल कर, होली का हो त्योहार।
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बसंत बहार, लाई रस की फुहार
उड़े गुलाल, रंगों की चली धार।
स्वाद भरे, पकवानो की भरमार
मिलजुल कर, होली का हो त्योहार।
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
उम्मीदों की थामे डोर, एक कदम सपनो की ओर
बीते वर्ष को पीछे छोड़, नए वर्ष में स्वागत है।
माफ कर दिया है, मगर भूला नही हूँ
वो पत्थर जो फेंके थे मुझ पर कभी
मुझे काँच का, जो तुमने समझ कर
वो काँच की किरचें, संभाल रखी हैं
वो पत्थर भी सारे, वहीं पर पड़े हैं।
पाँव छिले थे, कुछ खून बहा था
वो सारे निशाँ भी, वहीं पर अड़े हैं।
मैं बढ तो गया हूँ, बस अपनी खातिर
पर तुम्हारे इरादे, वहीं पर खड़े हैं।
न समझो कि डरता हूँ तुमसे मगर
जीवन में जीवन से बढ़ के है क्या?
तो अब मैने ठाना है, चोट न खाऊँगा
"कौन हो तुम?" बस यूँ निकल जाऊँगा
तो अब तुम मुझे, चोटिल करोगे कैसे?
माफ तो कर दिया है, मगर भूलूँगा कैसे?
सर्दी की सुबह होती
कनकनाती, थरथराती।
एक प्याली चाय की
दोनों हाथों थाम ली।
भाप देखो चाय की
और चुस्की चाय की।
अमृत का जब जश्न मनाओ
छक कर जब तुम अमृत पाओ
भूल न जाना इस मंथन में
संग संग गरल भी निकला था
अमृत का जब प्याला भरना
खुशी के जय जयकारे करना
कोटि कोटि उन नीलकंठ के
कोटि कोटि आभार करना
“आंटी, ज़रा दरवाज़ा बंद कर लीजिए| मैं अस्पताल जा रही हूँ|” संभावना ने मकान-मालकिन
से कहा|
“इतनी रात में कहाँ
जा रही हो?”
“अरे आंटी, ये नई बीमारी
न जाने क्या-क्या करवाएगी| आप दरवाज़ा बंद कर लो|” संभावना आगे बढ़ गई|
“क्या हुआ?” ये मकान
मालिक थे| पत्नी की आवाज़ सुन कर कमरे से बाहर आ गए थे|
“अजी होना क्या है?
हमने एक डॉक्टर को किरायेदार बना कर गलती कर दी है| जब मर्जी आती है, जब मर्जी जाती है| पूछो तो अस्पताल का बहाना
बना देती है|”
“तो आप क्या चाहती
हैं? निकाल दें उसे?”
मकान-मालकिन ने कुछ
कहा नहीं, सिर्फ टेढ़ी नज़रों से पति को देखा| संभावना ने दोनों को देखा और पलट कर चली गई|
“देखा आपने! किस तरह
ये लड़की हमें घूर रही थी|”
“हम्म...” पतिदेव ने चुप रह जाना
ही श्रेयस्कर समझा|
“संभावना – ओ
संभावना|” साथी डॉक्टर ने कुर्सी पर सो रही संभावना को जगाया|
“ढाई बज गए हैं| जल्दी चल| कैंटीन में खाना ख़त्म हो
जाएगा|”
“नहीं यार, तू जा| मैं रूम पे जाती हूँ| आखिर पेइंग गेस्ट के लिए
लंच तो बना ही होगा...” दोनों हँस दिए| कोरोना जैसी भयानक बीमारी की काली छाया के बीच
यही मुस्कुराहटें तो जीवन बचाने का काम कर रही थी|
“यार कभी कभी लगता
है कि डॉक्टर बन कर गलती कर दी|”
“तुझे ऐसा क्यूँ
लगता है?”
“देख, हमारी पढाई
ख़त्म नहीं हुई कि ये भयानक बीमारी आ गई| न दवाई, न इलाज़, उस पर तुर्रा ये कि छू लो तो
फैल जाए|”
“सही कहा, अब तो
बीमारी बाहर है और इंसान कैद में|”
“अब तो मुन्ना भाई
की “जादू की झप्पी” भी उल्टा काम करेगी|”
दोनों फिर से हँस
दिए|
शाम के कोई सात बजे
होंगे| ऊँघती अनमनी सी संभावना चाय की प्याली लिए बरामदे में बैठी थी| तभी मकान-मालिक ने पुकारा –
“संभवना, बेटा जरा
इधर तो आना|”
“जी अंकल”
“देखो बेटा ऐसा है
कि...”
“ऐसा-वैसा कुछ नहीं| सीधी बात बोलते जुबान
क्यों लड़खड़ाती है?” ये मकान-मालकिन थीं| “देखो संभावना, हम तुम्हें बतौर पेइंग गेस्ट,
और नहीं रख सकते| तो आज ही हमारा कमरा खाली कर दो|”
“आज ही? ऐसे कैसे आज
ही खाली कर दो कमरा? पूरे महीने का किराया आपने एडवांस ले रखा है| अग्रीमेंट में ये भी लिखा
है कि एक महीने का नोटिस दिए बिना आप कमरा खाली नहीं करवा सकते| वैसे आपको समस्या क्या
है?” उनींदी सी संभावना के अन्दर का तनाव फट पड़ा|
“नहीं चाहिए हमें
जुबान लड़ाने वाली किरायेदार| वो भी डॉक्टर| पता नहीं कब घर में बीमारी ले आए! हम दोनों बूढ़े, क्या पता
बीमारी से हमारा क्या हाल होगा? रही बात नोटिस की...”
“हाँ जी|” संभावना ने बात को बीच
में ही काटते हुए कहा, “बिना एक महीने के नोटिस के, मैं कहीं भी नहीं जा रही| मज़ाक समझ रखा है| पैसे चाहिए, पेइंग गेस्ट
रख लो| जब मन करे उसे निकाल बाहर करो| उस पर अपनी ऊम्र का धौंस दिखाओ|”
मकान-मालकिन ने दराज़
से छह हज़ार रूपए निकाले और संभावना के हाथ में रख दिए|
“ये लो अपने पैसे! तुम 22 फ़रवरी को आई थी| आज एक महीना हो गया| तुम्हारा एडवांस वापस कर
दिया है, नोटिस पूरा हुआ| कल सुबह तक घर खाली कर दो|”
“कल... आप पागल हो
गई हैं? आज कर्फ्यू है| इतनी शाम मैं कमरा खोजने कहाँ जाऊं?” संभावना समझ गई थी कि
अब इन्हें समझा पाना मुश्किल है|
“कहीं भी जाओ, हमें
क्या? बस, हमारा कमरा खाली कर दो डॉक्टरनी जी|” मकान-मालकिन ने व्यंग से कहा|
संभावना का सर चकरा
गया| उसे कुछ नहीं सूझा तो अपने कमरे में आकर निढ़ाल पर गई| उसे वह दिन याद आया जब उसे
इस अस्पताल में नौकरी मिली थी| कितनी खुश हुई थी| पिता का सपना पूरा हुआ था| उसने भी पढाई में कोई
कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, तभी प्रवेश परीक्षा उतीर्ण कर कॉलेज का मुहँ देखना नसीब हुआ
था| सालों की पढाई, फिर नौकरी| पर यहाँ तो सर मुंडाते ही ओले पर गए| कोरोना क्या आया, मानो
साक्षात् काल ही आ गया| उसका सर दर्द होने लगा| उसने दोनों हाथों से अपना सर थाम लिया|
तभी जोरों से किसी के
बर्तन पीटने की आवाज़ सुनाई दी| संभावना को लगा जैसे किसी ने उसके सर पर जोरों से वार किया
हो| अचानक चारों ओर से ऐसी आवाजें आने लगी| वह खिड़की पर आई| पूरा शहर डॉक्टरों के सम्मान में ताली-थाली बजा
रहा था|
वह पथ क्या, जिस पथ पर, दौड़ा हर कोई सरपट
उबड़ खाबड़ ना, पथरीला ना, चिकना जैसे पनघट
संभल पथिक, ये उर्ध्वाधर सी राह पतन को जाती है
कदम जमा, और हाथ बढ़ा, ईश्वर ही तेरा साथी है।